Category Archives: जनवादी व नागरिक अधिकार

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबन्धन की भारी जीत! मज़दूर वर्ग की चुनौतियाँ बढ़ेंगी, ज़मीनी संघर्षों की तेज़ करनी होगी तैयारी!

मुसलमानों और सामाजिक आन्दोलनों को झूठे दुश्मन के रूप में चित्रित करके, मन्दिर-मस्जिद, गोमाता, लव-लैण्ड-वोट जिहाद, वक्फ़ बोर्ड आदि जैसे कई फ़र्ज़ी मुद्दे उठाकर समाज में भय का माहौल पैदा करके इनका जनाधार बनाया गया है। ऐसे में जब रोज़गार-महँगाई-मन्दी के चलते जनता के बीच भारी असन्तोष मौजूद है, तब भाजपा ने साम-दाम-दण्ड-भेद का इस्तेमाल कर मीडिया और आरएसएस कार्यकर्ताओं की मदद से व पूँजीपतियों द्वारा ख़र्च किये गये हज़ारों करोड़ रुपये का इस्तेमाल करके व इसके अलावा चुनाव में कटेंगे तो बँटेंगे, ओबीसी-मराठा मुद्दे पर भी ध्रुवीकरण करके, चुनाव आयोग की मदद से मतदाता सूची में बदलाव, सम्भावित तौर पर ईवीएम से चुनावों में हेरफेर करके और इसके साथ ही “लाडली बहन” जैसे लालच दिखाने वाली योजनाओं द्वारा एक बार फिर सत्ता तक पहुँचने में भाजपा-महायुति क़ामयाब रही है। इन सब कारणों में संघ परिवार के समर्पित हिन्दुत्व वोट बैंक और भाजपा के वास्तविक जनाधार की भूमिका को निश्चित रूप से नहीं भुलाया जाना चाहिए।

चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है!

जहाँ तक इन नतीजों के बाद कुछ लोगों को धक्का लगने का सवाल है तो अब इस तरह के धक्के और झटके चुनावी नतीजे आने के बाद तमाम छद्म आशावादियों को अक्सर ही लगा करते हैं! 2014 के बाद से हुए कई चुनावों के बाद हम यह परिघटना देखते आये हैं। ऐसे सभी लोग भाजपा की चुनावी हार को ही फ़ासीवाद की फ़ैसलाकुन हार समझने की ग़लती बार-बार दुहराते हैं और जब ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है तो यही लोग गहरी निराशा और अवसाद से घिर जाते है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की चुनावी हार से देश की मेहनतकाश अवाम और क्रान्तिकारी शक्तियों को कुछ हासिल नहीं होगा। ज़ाहिरा तौर पर उन्हें कुछ समय के लिए थोड़ी-बहुत राहत और मोहलत मिलेगी और इससे हरेक इन्साफ़पसन्द व्यक्ति को तात्कालिक ख़ुशी भी मिलेगी। लेकिन जो लोग चुनावों में भाजपा की हार को ही फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का क्षितिज मान लेते हैं वे दरअसल फ़ासीवादी उभार की प्रकृति व चरित्र और उसके काम करने के तौर-तरीक़ों को नहीं समझते हैं। 

मोदी-शाह सरकार की नयी अपराध संहिताओं का फ़ासीवादी जनविरोधी चरित्र

नये अपराधिक क़ानून दमन के हथियारों को अपडेट करने और अधिक दमनात्मक बनाने का ही काम करते हैं। अपने भक्तों और जनता के बेवकूफ़ बनाने के लिए फ़ासीवादी सत्ता को अपने को भारतीय, आधुनिक, जनपक्षधर, न्यायप्रिय दिखाने का प्रपंच करना पड़ता है। लेकिन असलियत छिपाना मुश्किल है। पुराना भारतीय दण्ड क़ानून हो या भारतीय न्याय क़ानून, ये सभी क़ानून जनता के दमन के ही निकाय हैं। लेकिन मोदी सरकार के नये क़ानूनों को पहले से अधिक दमनकारी और फ़ासीवादी बनाया गया है। तीन नये आपराधिक क़ानूनों के ज़रिये आने वाले बर्बर समय की आहट महसूस की जा सकती है, जिसकी ज़द में तमाम इन्साफ़पसन्द नागरिक, जनपक्षधर बुद्धिजीवी, पत्रकार, क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्यकर्ता से लेकर आम मेहनतकश आबादी आयेगी।

दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के नेतृत्व में दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर पेपर लीक और भर्तियों में धाँधली के खिलाफ़ छात्रों-युवाओं का जुझारू प्रदर्शन!

इस देश के हुक्मरानों का अपनी न्यायपूर्ण माँगों के लिए शान्तिपूर्ण विरोध कर रहे आम छात्रों-युवाओं के प्रति रवैया फिर से साफ़ हो गया। ख़ासतौर पर भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान देश में बेरोज़गारी, परीक्षाओं में पेपर लीक और भर्तियों में भ्रष्टाचार पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ चुका है। प्रधानमन्त्री मोदी जी ने कभी इस बात पर गर्व किया था कि हमारा देश युवा आबादी का सबसे बड़ा देश है। लेकिन युवा आबादी के इस सबसे बड़े देश के युवाओं का भविष्य अँधेरे की गर्त में है। पिछले सात सालों के दौरान 80 से ज़्यादा परीक्षाओं के पेपर लीक हो चुके हैं। भर्तियों में होने वाला भ्रष्टाचार हम सबके सामने है। आरओ-एआरओ, यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा, बीपीएससी से लेकर हाल में नीट और यूजीसी नेट जैसी परीक्षाओं की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है। इस पर भी मौजूदा शिक्षा मन्त्री धर्मेन्द्र प्रधान संसद में यह बयान देने की बेशर्मी कर रहे हैं कि भाजपा के कार्यकाल में एक भी पर्चा लीक नहीं हुआ है। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षाएँ भी आयोजित करने वाली एनटीए जैसी संस्था को बिना किसी सुव्यवस्थित ढाँचे के चलाया जा रहा है जिसका नतीजा यह है कि एनटीए द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में बड़े पैमाने पर अनियमितताएँ सामने आ रही हैं। एनटीए द्वारा आयोजित की जाने वाली सभी परीक्षाएँ प्राइवेट एजेंसियों के माध्यम से करायी जा रही हैं।

लोकसभा चुनाव-2024 के नतीजों में हुई थी हेरा-फेरी- एडीआर और वोट फ़ॉर डेमोक्रेसी की रिपोर्ट

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट की 538 सीटों में पड़े कुल वोटों और गिने गए वोटों की संख्या में लगभग छह लाख वोटों का अन्तर था। रिपोर्ट के मुताबिक, अमरेली, अहिंगल, लक्षद्वीप, दादरा नगर हवेली एवं दमन दीव को छोड़कर 538 सीटों पर डाले गए कुल वोटों और गिने गए वोटो की संख्या अलग-अलग है। सूरत सीट पर मतदान नहीं हुआ था। एडीआर के संस्थापक जगदीप छोकर के मुताबिक़ चुनाव में वोटिंग प्रतिशत देर से जारी करने और निर्वाचन क्षेत्रवार तथा मतदान केन्द्रवार आँकड़े उप्लब्ध न होने को लेकर सवाल है।

काँवड़ यात्रियों के नाम पर योगी सरकार का एक और फ़ासिस्ट आदेश

इस बेहूदा आदेश के पीछे मुस्लिम दुकानदारों के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे स्वामी यशवीर नाम के एक ढोंगी बाबा का हाथ है। इस घोर साम्प्रदायिक व्यक्ति ने आरोप लगया है कि “ये लोग खाने में थूक रहे हैं और मूत्र भी कर रहे हैं।” ऐसे अपराधी की जगह सीधे जेल में होनी चाहिए थी लेकिन फ़ासिस्ट भाजपा उसे सर-आँखों पर बैठाकर उसके वाहियात आरोपों की बिना पर लोगों का कारोबार बन्द करा रही है और कांवड़ के नाम पर रास्ते पर भर गुण्डागर्दी और आवारागर्दी करने वालों के लिए आसान बना रही है कि वे मुस्लिम नामों की पहचान करके उन दुकानों को निशाना बनायें।

भगतसिंह जनअधिकार यात्रा के तहत ईवीएम के ख़िलाफ़ देशभर में अभियान!

देश के कई जाने-माने वकील, अवकाशप्राप्त न्यायाधीश, विधिवेत्ता, चुनाव विशेषज्ञ और विपक्षी पार्टियाँ ईवीएम की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल उठाती रही हैं, लेकिन गोदी मीडिया की कृपा से उनकी बातें आम लोगों तक नहीं पहुँच पातीं। दूसरी ओर, चुनाव आयोग की बेहद कमज़ोर व अविश्वसनीय सफ़ाइयों का जमकर प्रचार किया जाता है। बुनियादी सवालों को नज़रों से ओझल कर दिया जाता है। ग़ौरतलब है कि ईवीएम पर सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी ने ही सवाल उठाया था।

केन्द्रीय एजेंसियाँ बनी भाजपा के हाथों की केन्द्रीय कठपुतलियाँ!

केन्द्रीय एजेंसियाँ भाजपा की कठपुतली की तरह काम कर रही हैं। इसका कारण है पूरी सत्ता व मशीनरी में फ़ासीवादियों की पोर-पोर में पहुँच। फ़ासीवाद भारत में जिस कार्यपद्धति को लागू कर रही है उसकी भी जर्मन और इतालवी फ़ासीवादियों की कार्यपद्धति से काफ़ी समानता रही है। जर्मनी और इटली की तरह यहाँ पर भी फ़ासीवादी जिन तौर-तरीकों का उपयोग कर रहे हैं, वे हैं सड़क पर की जाने वाली झुण्ड की हिंसा; पुलिस, नौकरशाही, केन्द्रीय एजेंसी, सेना और मीडिया का फ़ासीवादीकरण; क़ानून और संविधान का खुलेआम मख़ौल उड़ाते हुए अपनी आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देना और इस पर उदारवादी पूँजीवादी नेताओं की चुप्पी; शुरुआत में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना और फिर अपने हमले के दायरे में हर प्रकार के राजनीतिक विरोध में ले आना। यह दुनिया भर के फ़ासीवादियों की साझा रणनीति रही है। फ़ासीवादी हमले का निशाना संस्थाएँ नहीं बल्कि व्यक्ति हुआ करते हैं और भारत में भी विरोधियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को आतंकित करने की यही नीति फ़ासीवादियों द्वारा अपनायी जा रही है।

चुनावों के रास्ते फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय सम्भव नहीं – क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ही दे सकता है जनविरोधी फ़ासीवादी सत्ता को निर्णायक शिकस्त

हमें माँग करनी चाहिए कि धर्म का राजनीतिक व सामाजिक जीवन से पूर्ण विलगाव करने वाला एक सख़्त क़ानून बनाया जाना चाहिए जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में किसी भी धर्म का ज़िक्र भी करता है, किसी धार्मिक समुदाय के प्रति टीका-टिप्पणी करता है, मन्दिर-मस्जिद का ज़िक्र भी करता है, तो उसे तत्काल गिरफ़्तार करने और राजनीतिक जीवन से उसे प्रतिबन्धित करने का क़ानून लाया जाये। इसमें क्या ग़लत है? इसे अगर सख़्ती से लागू किया जाये तो न तो कोई संघी फ़ासीवादी हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का सियासत में इस्तेमाल कर पायेगा और न ही कोई ओवैसी राजनीति में मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल और न ही कोई सिख कट्टरपंथी अमृतपाल सिख जनता की धार्मिक भावनाओं का राजनीति में इस्तेमाल कर पायेगा। ऐसा क़ानून जो धर्म को पूर्ण रूप से व्यक्तिगत मसला बना दे, इसमें क्या ग़लत है? औपचारिक क़ानूनी अर्थों में भी देखा जाये तो अगर किसी दल का राजनीतिज्ञ जनता के बीच चुनाव लड़ने ला रहा है, कोई राजनीतिक अभियान चलाने जा रहा है, तो उसका मक़सद तो हर नागरिक के लिए नौकरी, शिक्षा, इलाज, घर आदि के अधिकारों को सुनिश्चित करना है न, चाहे उसका धर्म या जाति कुछ भी हो? तो फिर ऐसा क़ानून बनना ही चाहिए जो धर्म को राजनीति से पूर्ण रूप से अलग कर दे। इसके अभाव की वजह से ही हमारे देश में बेवजह का खून-ख़राबा और सिर-फुटौव्वल खूब होता है और फ़ासीवादी कुकुरमुत्तों को उगने के लिए खाद-पानी मिलता है। ऐसे क़ानून का नारा तो मूलत: 18वीं और 19वीं सदी में पूँजीपति वर्ग ने दिया था लेकिन अपनी अभूतपूर्व पतनशीलता के दौर में वह इस सच्चे क्रान्तिकारी सेक्युलरिज़्म का नारा भूल चुका है और आज उसे पहले से भी अधिक क्रान्तिकारी रूप में व ऊँचे वैज्ञानिक स्तर पर सर्वहारा वर्ग उठा रहा है।

फ़िलिस्तीन के समर्थन में और हत्यारे इज़रायली ज़ायनवादियों के ख़िलाफ़ देशभर में विरोध प्रदर्शनों को कुचलने में लगी फ़ासीवादी मोदी सरकार

भारत इज़रायल के हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार है। वहीं दोनो के खुफिया तन्त्र में भी काफ़ी समानता है। ज्ञात हो कि जासूसी उपकरण पेगासस भारत को देने वाला देश इज़रायल ही है। यह भी एक कारण है कि मोदी सरकार देश भर में जारी इज़रायल के प्रतिरोध से घबरायी हुई है, कि कहीं इससे उनके ज़ायनवादी दोस्त नाराज़ न हो जायें। वहीं फ़िलिस्तीन मसले पर इन्दिरा गाँधी के दौर तक भारत ने कम-से-कम औपचारिक तौर पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति के लक्ष्य का समर्थन किया था और इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीनी ज़मीन पर औपनिवेशिक क़ब्ज़े को ग़लत माना था। 1970 के दशक से प्रमुख अरब देशों का फ़िलिस्तीन के मसले पर पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ समझौतापरस्त रुख़ अपनाने के साथ भारतीय शासक वर्ग का रवैया भी इस मसले पर ढीला होता गया और वह “शान्ति” की अपीलों और ‘दो राज्यों के समाधान’ की अपीलोंमें ज़्यादा तब्दील होने लगा। अभी भी औपचारिक तौर पर तो भारत फ़िलिस्तीन का समर्थन करता है, पर वह सिर्फ़ नाम के लिए ही है।