हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे
चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है!
सम्पादकीय अग्रलेख
8 अक्टूबर को हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में सम्पन्न हुए विधान सभा चुनावों के नतीजे आ गये। इन नतीजों के आने के बाद इतनी बात तो तय है कि हरियाणा और जम्मू-कश्मीर की आम मेहनतकश अवाम के जीवन के हालात में कोई वास्तविक या गुणात्मक परिवर्तन नहीं आने वाला है। हरियाणा में फ़ासीवादी भाजपा की फिर से सरकार में वापसी हुई है, वहीं जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में इण्डिया गठबन्धन (मुख्य तौर पर नेशनल कान्फ्रेंस) की सरकार बनी है हालाँकि अभी वहाँ कांग्रेस सरकार में शामिल नहीं हुई है।
हरियाणा के चुनाव परिणाम आने के बाद एक बार फिर से प्रगतिशील-जनवादी दायरे के कई लोगों को झटका लगा है। ऐसे सभी लोग हरियाणा में कांग्रेस की जीत की उम्मीद लगाये बैठे थे। हरियाणा के सम्बन्ध में गोदी मीडिया तक के तमाम एक्ज़िट पोल कांग्रेस की जीत ही दिखला रहे थे। आम लोगों में भाजपा के ख़िलाफ़ गुस्से को देखते हुए भी इसी की सम्भावना अधिक लग भी रही थी। हालाँकि ऐसा हुआ नहीं और भाजपा 90 में से 48 सीटें जीत गयी जबकि कांग्रेस के खाते में 37 सीटें आयीं। भाजपा का हरियाणा में यह अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है। नतीजों के शुरुआती रुझानों के बाद कांग्रेस ने चुनाव आयोग द्वारा गिनती की प्रक्रिया को जानबूझकर धीमा करने और ईवीएम के ज़रिये चुनावी नतीजों में हेर-फ़ेर करने के आरोप लगाये जो चुनाव आयोग के निष्पक्षता के दावों और ईवीएम की विश्वसनीयता पर एक बार फिर गम्भीर प्रश्नचिन्ह खड़े कर देता है।
यह आशंका इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि कई विश्लेषकों के अनुसार चुनाव आयोग की वेबसाइट पर 5 अक्टूबर को चुनाव सम्पन्न होने के बाद भी मत प्रतिशत में बढ़ोत्तरी दर्ज होती देखी गयी। हरियाणा में 9 सीटें ऐसी थीं जिनपर कांग्रेस 6000 वोटों से कम के अन्तर से हारी है जिसमें उचाना कलां की सीट पर कांग्रेस का प्रत्याशी महज़ 32 वोटों के अन्तर से हारा है। इसके अलावा 8 ऐसी सीटें थी, जहाँ भाजपा प्रत्याशियों की ज़मानत ही ज़ब्त हो गयी जो कि भाजपा की इस “ऐतिहासिक” जीत की पोल भी खोल देता है। जहाँ तक कुल प्राप्त मतों के प्रतिशत का सवाल है तो भाजपा को कुल मतों का 39.94 प्रतिशत प्राप्त हुआ और वहीं कांग्रेस को 39.09 प्रतिशत मत मिले हैं। यानी भाजपा को महज़ 0.85 प्रतिशत वोट ही कांग्रेस से अधिक मिले थे, हालाँकि पिछली बार के मुक़ाबले इस बार भाजपा ने 3.45 प्रतिशत वोट अधिक पाये हैं।
दूसरी तरफ़, जम्मू-कश्मीर में हुए चुनाव 21 नवम्बर 2018 को विधान सभा भंग किये जाने व मोदी सरकार द्वारा अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए हटाये जाने के बाद और राज्य का दर्जा छीने जाने के बाद हुए यह पहले विधान सभा चुनाव थे। वहाँ के नतीजों में अप्रत्याशित कुछ भी नहीं था। कश्मीर में उमर अब्दुल्ला की जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस को बहुमत मिला और 42 सीटें जीतने के साथ वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, वहीं भाजपा को 29 सीटें मिलीं और जम्मू में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आयी। वैसे कश्मीर घाटी में लम्बे अरसे से चुनावों का कोई विशेष अर्थ नहीं रहा गया है लेकिन इस बार अगर कुछ इलाक़ों में मतदान प्रतिशत पहले के मुक़ाबले थोड़ा ज़्यादा भी रहा तो इसके पीछे कारण भाजपा को सत्ता से बाहर करना था। श्रीनगर में मतदान महज़ 29.81 फ़ीसदी रहा। दूसरा,कश्मीर घाटी में पीडीपी के दयनीय प्रदर्शन के पीछे भी कारण उसके भाजपा से गठबन्धन का निकट इतिहास था जिसकी वजह से आम कश्मीरी उसे सबक़ भी सिखाना चाहते थे। यहाँ यह बात जोड़ना आवश्यक है कि आम कश्मीरियों के एक सीमित हिस्से का चुनाव की प्रक्रिया में भागीदारी का तथ्य यह दृष्टिभ्रम पैदा कर सकता है कि कश्मीरी अवाम अपने साथ हुए ऐतिहासिक विश्वासघात और मोदी सरकार की कारगुज़ारियों को भूल गयी है। लेकिन ऐसा सोचना महज़ ख़ाम-ख़याली से कम कुछ नहीं है। कश्मीर में चुनाव की प्रक्रिया कश्मीरियों के राष्ट्रीय दमन की हक़ीक़त को न तो छिपा सकती है और न ही वहाँ स्थिति के “सामान्य” हो जाने की ही कोई पुष्टि करती है।
बहरहाल, जहाँ तक इन नतीजों के बाद कुछ लोगों को धक्का लगने का सवाल है तो अब इस तरह के धक्के और झटके चुनावी नतीजे आने के बाद तमाम छद्म आशावादियों को अक्सर ही लगा करते हैं! 2014 के बाद से हुए कई चुनावों के बाद हम यह परिघटना देखते आये हैं। ऐसे सभी लोग भाजपा की चुनावी हार को ही फ़ासीवाद की फ़ैसलाकुन हार समझने की ग़लती बार-बार दुहराते हैं और जब ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है तो यही लोग गहरी निराशा और अवसाद से घिर जाते है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की चुनावी हार से देश की मेहनतकाश अवाम और क्रान्तिकारी शक्तियों को कुछ हासिल नहीं होगा। ज़ाहिरा तौर पर उन्हें कुछ समय के लिए थोड़ी-बहुत राहत और मोहलत मिलेगी और इससे हरेक इन्साफ़पसन्द व्यक्ति को तात्कालिक ख़ुशी भी मिलेगी। लेकिन जो लोग चुनावों में भाजपा की हार को ही फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का क्षितिज मान लेते हैं वे दरअसल फ़ासीवादी उभार की प्रकृति व चरित्र और उसके काम करने के तौर-तरीक़ों को नहीं समझते हैं।
हर्षातिरेक-अवसाद के दुष्चक्र में फँसे ऐसे तमाम लोगों के पास वास्तव में फ़ासीवाद की, और विशेष तौर पर इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की, कोई वैज्ञानिक समझदारी नहीं है। यह इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवादी उभार की विशिष्टताओं को समझ पाने की नाकामी और किसी न किसी प्रकार के बुर्जुआ विभ्रम का शिकार होने से पैदा होने वाली निराशा ही है जो चुनावी जोड़-तोड़ और तिकड़म के बूते फ़ासीवादी भाजपा को हराने के सपने देखते हैं। बेशक़, कभी-कभी प्रतीतिगत तौर पर ये चुनावी जोड़-तोड़ काम करते हुए नज़र भी आने लगते हैं लेकिन उसके पीछे भी असल वजह जनता के अलग-अलग हिस्सों में भाजपा की नीतियों के विरुद्ध भयंकर गुस्सा होता है जो चुनावों में भाजपा की हार या ख़राब प्रदर्शन में अभिव्यक्त हो भी जाता है। लेकिन इसी को भाजपा और संघ परिवार की फ़ासीवादी राजनीति और विचारधारा की हार मानने की ग़लती पिछले लम्बे अरसे से प्रगतिशील और क्रान्तिकारी ताक़तों के लिए आत्मघाती साबित हुई है। यदि आशा किसी विज्ञान या तर्क द्वारा संचालित नहीं होती है और राजनीतिक परिघटनाओं को, विशेष तौर पर फ़ासीवाद के कार्यान्वयन को महज़ पूँजीवादी चुनावों और उसके नतीजों के कुछ समीकरणों और जोड़-घटाव से व्याख्यायित करने की कोशिश करती है, तो वैसी अतार्किक और अवैज्ञानिक आशा निराशा के दलदल में डूबने के लिए शुरू से ही अभिशप्त होती है। कुछ ऐसा ही हमारे देश के वाम और उदार-वाम दायरों में पिछले 10 सालों से हो रहा है।
हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर लगातार इस बात को रेखांकित करते रहे हैं कि भाजपा की चुनावी हार को फ़ासीवाद की निर्णायक हार समझने की ग़लती हमें नहीं करनी चाहिए। इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवादी उभार की यही ख़ासियत है कि फ़ासीवादी ताक़तें सरकार में आ-जा सकती हैं। सरकार से बाहर रहने की सूरत में भी समाज व राज्यसत्ता में फ़ासीवादी ताक़तों की आन्तरिक पकड़ बनी रहती है क्योंकि एक दीर्घकालिक प्रकिया में आन्तरिक क़ब्ज़े और घुसपैठ के ज़रिये राज्यसत्ता और समाज के भीतर फ़ासीवादी शक्तियों ने अपनी अवस्थितियाँ सुदृढ़ की हैं। इसलिए चुनाव हारकर फ़ासीवादी पार्टी का सरकार से बाहर जाना फ़ासीवाद का अन्त कत्तई नहीं है। हिटलर और मुसोलिनी के दौर के जर्मनी और इटली के समान मोदी सरकार ने देश में चुनावों को, संसद विधानसभाओं को खुले तौर पर भंग नहीं किया है बल्कि अन्दर से पूँजीवादी संसदीय लोकतन्त्र की संस्थाओं, प्रक्रियाओं आदि पर कमोबेश नियन्त्रण स्थापित कर लिया है। सड़कों पर बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद, गौ रक्षक दलों के फ़ासीवादी गुण्डा-गिरोहों के आतंक के साथ ही संघ परिवार और भाजपा ने बड़ी ही कुशलता के साथ पहले से ही मौजूद पूँजीवादी संस्थाओं जैसे कि इन्फोर्समेण्ट डायरेक्टरेट (ईडी), केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) और आयकर विभाग में आन्तरिक घुसपैठ करके इन संस्थाओं का इस्तेमाल बतौर राजनीतिक पुलिस अपने राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ किया है। न्यायपालिका, चुनाव आयोग, सेना, अर्द्धसैनिक बलों तक में संघ परिवार ने पिछले कई दशकों के दौरान एक लम्बी प्रक्रिया में घुसपैठ की है और अपने लोगों को बिठाने का काम किया है।
भारत में फ़ासीवादी उभार की समूची प्रक्रिया इस बात को ही सत्यापित करती है कि आज के दौर में, यानी साम्राज्यवाद के नवउदारवादी चरण में फ़ासीवाद बुर्जुआ संसदीय जनवाद के ‘खोल’ या रूप का परित्याग आम तौर पर और अपवादस्वरूप स्थितियों को छोड़कर, नहीं करेगा क्योंकि ऐसा करने की न तो उसे कोई आवश्यकता है (बुर्जुआ जनवाद की बची-खुची जनवादी सम्भावना-समपन्नता भी क्षरित होती चली गयी है और संसदीय प्रणाली फ़ासीवादियों को अपने मंसूबों को पूरा करने में कोई रुकावट भी पेश नहीं करती है) और ऐसा करते हुए वह अपने शासन को और अधिक वर्चस्वकारी और दीर्घजीवी बनाने में सफल भी हुआ है। इसलिए इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवादी उभार एक सतत् जारी रहने वाली परियोजना है। जो लोग आज के दौर के फ़ासीवाद का किसी भी प्रकार का सादृश्य-निरूपण बीसवीं सदी के फ़ासीवादी प्रयोगों से करने की कोशिश करते हैं वह दरअसल अतीत-ग्रस्तता का शिकार हैं और कठमुल्लावादी चिन्तन और लकीर की फ़क़ीरी करने पर आमादा हैं। ऐसे ही लकीर के फ़क़ीर पंजाब के ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप का नेतृत्व है जो मानसिक तौर पर बीसवीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक में ही क़ैद हैं और अभी भी भारत में फ़ासीवाद के आने का इन्तज़ार कर रहा है! बहरहाल राजनीतिक तौर पर अपढ़ इस ग्रुप के नेतृत्व की बात जितनी कम की जाये उतना अच्छा है। राष्ट्रीय प्रश्न से लेकर भाषा के सवाल और फिर धनी किसान आन्दोलन और एमएसपी के प्रश्न पर अपनी ग़ैर-सर्वहारा समझदारी का जुलूस निकालने के बाद अब इस ग्रुप के नेतृत्व ने फ़ासीवाद के सवाल पर भी अपनी बेहद बचकानी और कठमुल्लावादी समझदारी की नुमाइश पेश की है।
इस संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण चर्चा के बाद हम हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनावी नतीजों के विश्लेषण पर लौट सकते हैं। यह चर्चा इसलिए ज़रूरी थी क्योंकि मौजूदा दौर में चुनावों के किसी भी विश्लेषण को उपरोक्त सन्दर्भ में रखकर ही बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। बहरहाल, हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी भाजपा ने चुनाव प्रचार में जमकर पैसा बहाया। अभी भी पूँजीपति वर्ग की सबसे चहेती पार्टी होने का ख़िताब भाजपा को ही हासिल है और इसलिए उसके पास धनबल की कोई कमी नहीं है। इसके ज़रिये न सिर्फ़ भाजपा का प्रचार बाक़ी सभी पूँजीवादी दलों के प्रचार पर भारी पड़ता है बल्कि विपक्ष को तोड़ने में भी यह धनबल काफ़ी मददगार साबित हुआ है। यह कारक फ़िलहाल भाजपा को अन्य ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टियों के मुक़ाबले अप्रत्याशित लाभदायक स्थिति में रखता है और हम जानते हैं कि पूँजीवादी चुनावों में धनबल सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके अलावा राज्य मशीनरी पर अपने क़ब्ज़े के चलते भाजपा विपक्षी दलों की बाँह कई अन्य तरीक़ों से भी मोड़ती ही रहती है। इसके साथ ही हरियाणा में संघ का पूरा ताना-बाना भी भाजपा के प्रचार में उतरा हुआ था। ज़ाहिरा तौर पर भाजपा के पीछे संघ के फ़ासीवादी काडर-आधारित सांगठनिक ढाँचे की उपस्थिति उसे अन्य ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टियों से अलग करती है और उसे चुनावों में अतिरक्त लाभ पहुँचाने और बढ़त देने की वस्तुगत ज़मीन मुहैया कराता है। साथ ही, हरियाणा में भाजपा अपने साम्प्रदायिक फ़ासीवादी शस्त्रागार के कई आज़मूदा हथियार इस्तेमाल करने से भी बाज़ नहीं आयी। 2023 में भाजपा और संघ परिवार द्वारा नूँह में मुसलामानों के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक हमले और दंगे करवाने के पीछे मक़सद वोटों का ध्रुवीकरण ही था। हालाँकि हरियाणा की आम मेहनतकाश आबादी ने सूझ-बूझ का परिचय देते हुए इस भाजपाई साज़िश को क़ामयाब नहीं होने दिया था और फ़ासीवादी ताक़तों को अपनी जन-एकता को तोड़ने नहीं दिया था।
इसके अलावा भाजपा जानती थी कि पिछले 10 सालों में हरियाणा में अपनी जनविरोधी नीतियों के कारण वह लोगों के बीच में ख़ासा अलोकप्रिय हुई थी। हरियाणा में बेरोज़गारी दर पूरे देश में सबसे ज़्यादा है, जोकि 30 प्रतिशत के ऊपर है। अग्निपथ जैसी योजनाओं के कारण भी यह बात आम लोगों के बीच स्थापित हो चुकी है कि भाजपा रोज़गार-विरोधी सरकार है। साथ ही, पहलवानों के आन्दोलन ने भी भाजपा की छवि को काफ़ी क्षति पहुँचायी और स्त्री-विरोधी पार्टी के तौर पर इसकी “ख्याति” को पुष्ट करने का ही काम किया। विधान सभा चुनाव में विनेश फोगाट की जीत इस बात को ही रेखांकित करती है। लेकिन इसका पूर्वानुमान लगाते हुए संघ व भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने विधान सभा चुनावों से ऐन 6 महीने पहले ही मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमन्त्री पद से हटाकर नायाब सिंह सैनी को मुख्यमन्त्री बनाया। यह दरअसल एक तीर से कई शिकार करने जैसा था।
भाजपा द्वारा अपनी ही जनविरोधी नीतियों की वजह से पैदा हुई सरकार-विरोधी लहर को इस क़दम से रोकने की कोशिश तो की ही गयी, साथ ही नायाब सिंह सैनी के चेहरे को आगे करके ग़ैर-जाट ओबीसी वोटों का सुदृढ़ीकरण करने का प्रयास भी किया गया जो एक हद तक क़ामयाब भी हुआ। यह रणनीति भाजपा ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में अपनायी है जहाँ इसने प्रभुत्वशाली ओबीसी जाति (जिनका प्रतिनिधित्व पहले से ही कोई न कोई क्षेत्रीय पूँजीवादी दल कर रहा है) के बरक्स ग़ैर-प्रभुत्वशाली ओबीसी जातियों की लामबन्दी अपने पक्ष में की है। कांग्रेस की भूतपूर्व हुडा सरकार को “खर्ची-पर्ची” की सरकार के तौर पर प्रचारित किया गया और यह बात भी ग़ैर-जाट ओबीसी और दलित आबादी के बीच प्रचारित की गयी कि कांग्रेस सरकार की वापसी मतलब ‘जाटशाही’ की वापसी होगी।
एक और बात जो गौरतलब है वह यह कि हरियाणा में भाजपा ने मोदी के चेहरे और छवि का इस्तेमाल काफ़ी कम किया। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद 400 पार के नारे की हवा निकलने की वजह से मोदी की छवि को पहुँची क्षति के बाद हरियाणा में भाजपा और नरेन्द्र मोदी कोई नया जोख़िम उठाना नहीं चाहते थे। यही वजह है कि विधान सभा चुनाव स्थानीय चेहरों को आगे करके ही लड़ा गया। यही कारण था कि नरेन्द्र मोदी ने इस बार हरियाणा में केवल चार रैलियाँ की जबकि 2014 के चुनावों में मोदी ने 10 रैलियाँ की थी और 2019 चुनावों में भी कम से कम 6 रैलियाँ की थीं। इसके अलावा भाजपा ने 90 में से 61 सीटों पर नये प्रत्याशियों को खड़ा किया ताकि सरकार-विरोधी लहर को इसके ज़रिये भी बेअसर किया जा सके जिसमें उसे काफ़ी हद तक सफलता मिली भी।
इसके अलावा दलित वोटों का एक हिस्सा भी भाजपा के पक्ष में गया है, जो हरियाणा में कुल आबादी का 21 प्रतिशत है। इसमें भी 12 प्रतिशत आबादी वाल्मीकि और धानक जैसे सबसे अरक्षित और पिछड़े हिस्सों से आता है। चुनाव से पहले भाजपा ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण में उप-वर्गीकरण पर आये उच्च्तम न्यायलय के फ़ैसले पर तुरन्त अवस्थिति अपनाकर इस हिस्से को भी अपने पक्ष में जीतने का प्रयास किया। वहीं कांग्रेस इस मुद्दे पर चुप रही। इसके अलावा, बलात्कार और हत्या के मामले में सज़ा काट रहे डेरा सच्चा सौदा के गुरमीत राम रहीम को ऐन चुनाव से पहले मिली 20 दिन की पैरोल बिना किसी वजह के नहीं थी। क्या ग़ज़ब का संयोग है कि राम रहीम को ऐसी पैरोल अक्सर चुनावों के पहले ही मिली है! इससे पहले 13 अगस्त को वह 21 दिन के लिए जेल से बाहर आया था। उससे भी पहले लोक सभा चुनावों से पहले वह 19 जनवरी को भी पैरोल पर बाहर आया था। ज्ञात हो कि पिछले 4 सालों में भाजपा सरकार राम रहीम पर पैरोल के मामले में 15 बार मेहरबान रही है। तो निश्चित ही इस मेहरबानी का क़र्ज़ राम रहीम ने चुनाव से पहले अदा किया ही होगा!
भाजपा हरियाणा में लगातार तीसरी बार विजयी हुई है और इस बार 48 सीटों के साथ उसने अपने पिछले सभी प्रदर्शनों को पीछे छोड़ा है। हालाँकि भाजपा की जीत कई सवाल भी खड़े करती है। मसलन, जैसा कि हमने पहले भी बताया कि भाजपा की यह कैसी “ऐतिहासिक” जीत थी जिसमें उसके 8 प्रत्याशियों की ज़मानत ही ज़ब्त हो गयी? कैसे इस “ऐतिहासिक” जीत में भाजपा के 10 में से 7 मन्त्री चुनाव हार गये? मुख्यमन्त्री नायब सिंह सैनी के अलावा केवल दो और भूतपूर्व मन्त्री अपनी जीत दर्ज कर पाये। ऐसे में ईवीएम और केन्द्रीय चुनाव आयोग की मदद ने भाजपा की जीत को “ऐतिहासिक” बनाने में सम्भवतः अच्छा-ख़ासा योगदान तो किया ही होगा, जैसा कि कांग्रेस और कई चुनावी विश्लेषक परिणाम आने के बाद लगातार कहते भी रहे और पिछले कई चुनावी नतीजों ने इस बात की पुष्टि भी की है। हालाँकि चुनाव आयोग ऐसे तमाम आरोपों पर कोई सफ़ाई देने के बजाय केवल अपनी निष्पक्षता के खोखले दावों को ही दुहरा रहा था। वहीं दूसरी तरफ़ देश के उच्चतम न्यायलय ने भी ईवीएम की विश्वसनीयता पर उठ रहे सवालों को अपने फ़ैसले के ज़रिये ठण्डे बस्ते में ही डालने का काम किया था।
बहरहाल, भाजपा द्वारा जीती गयी 48 में 9 सीटें ऐसी हैं जिन्हें भाजपा ने कभी नहीं जीता था मसलन नरवाना, गोहाना, समालखा, खरखोदा, सफ़ीदों, बरवाला, दादरी आदि। इन सीटों पर जीत का मुख्य कारण भाजपा द्वारा अन्य पार्टियों के दलबदलुओं व बाग़ियों को समायोजित करने, अपने नेताओं के निर्वाचन क्षेत्रों में फ़ेरबदल करने और स्थानीय जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखने की रणनीति थी। परिवारवाद के विरोध का सुर अलापने वाली भाजपा ख़ुद परिवारवादी राजनीति की सबसे कुख्यात पनाहगाह है। पूर्व मुख्यमन्त्री बंसी लाल की पोती श्रुति चौधरी तोशाम विधान सभा से विजयी बनी। कुछ महीने पहले ही श्रुति चौधरी और उसकी माँ किरण चौधरी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे। किरण चौधरी हरियाणा से भाजपा की राज्य सभा सदस्य है।
हरियाणा में मुक़ाबला मुख्य तौर पर भाजपा और कांग्रेस के बीच द्विध्रुवी रहा। पिछले विधान सभा चुनावों में जननायक जनता पार्टी को 10 सीटें मिली थी, हालाँकि इस बार आज़ाद समाज पार्टी से गठबन्धन के बावजूद इसके खाते में एक भी सीट नहीं आयी। वहीं इनेलो और बसपा के गठबन्धन को केवल 2 सीटें हासिल हुईं।
जहाँ तक कांग्रेस के चुनावी प्रदर्शन का सवाल है तो पूँजीवादी चुनावों के मानकों से भी बात करें तो कांग्रेस का प्रदर्शन उतना ख़राब भी नहीं था जितना कि गोदी मीडिया नतीजे आने के बाद पेश करने की कोशिश कर रहा था। वास्तव में, यह भाजपा की जीत कम और कांग्रेस की हार अधिक थी। इसके लिए भी ज़िम्मेदार एक हद तक कांग्रेस के भीतर मौजूद आन्तरिक कलह था जो रह-रहकर भूपिन्दर हुडा ख़ेमे और कुमारी शैलजा ख़ेमे के आपसी अन्तरविरोधों के रूप में सामने आ रहा था। कांग्रेस की हार का एक और कारण उसकी अपनी आत्मसन्तुष्टि थी और जीत को लेकर अति आत्मविश्वास था जिसकी वजह से कई जगह कांग्रेस के बाग़ियों ने ही उसकी हार सुनिश्चित करने का काम किया। कई विश्लेषकों का कहना है कि आम आदमी पार्टी से गठबन्धन न करना कांग्रेस की सबसे बड़ी ग़लती थी। हालाँकि यह अपने आपमें कांग्रेस की हार में कारक नहीं था। लेकिन हाँ, कांग्रेस के कुछ वोट तो अपने प्रत्याशियों को खड़ा करके ‘आप’ ने काटे ही। क्या यह भी महज़ संयोग है कि कांग्रेस और ‘आप’ के बीच गठबन्धन और सीट-वितरण को लेकर बातचीत असफल होने और इस गठबन्धन के न बनने के कुछ दिनों बाद ही अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और अब हाल ही में सत्येन्द्र जैन को ज़मानत मिल गयी? पूँजीवादी राजनीति में ऐसे संयोग कम ही पाये जाते हैं।
जहाँ भाजपा ने एक हद तक ग़ैर-जाट ओबीसी वोटों का सुदृढ़ीकरण अपने पक्ष में किया वहीं कांग्रेस जाट वोटों के अपने पक्ष में सुदृढ़ीकृत होने को लेकर आत्मसन्तुष्ट थी और उसने बाक़ी ओबीसी जातियों में प्रचार पर कोई विशेष ध्यान ही नहीं दिया। कांग्रेस को मुख्य तौर पर जाटों, जाटवों और मुसलामानों का वोट प्राप्त हुआ। वहीं जाट वोटों को बाँटने का काम इनेलो और जेजेपी द्वारा भी किया गया। और कई सीटों पर टिकट न मिलने पर कांग्रेस के बाग़ियों ने भी कांग्रेस के वोट काटे। उदाहरण के तौर पर नरवाना सीट पर भाजपा प्रत्याशी कृष्ण बेदी ने 11,499 वोटों से कांग्रेस के प्रत्याशी सतबीर डबलैन को हराया। इस सीट पर इनेलो की प्रत्याशी विद्या रानी दनोडा को 46,303 वोट मिले। वहीं सफीदों में भाजपा ने जेजेपी के बाग़ी राम कुमार गौतम को टिकट दिया जिसने कांग्रेस के प्रत्याशी सुभाष गंगोली को 4,037 वोटों से हराया। इस सीट पर कांग्रेस के बाग़ी नेता जसबीर देसवाल को 20,114 वोट प्राप्त हुए थे। इसके अलावा आज़ाद समाज पार्टी और बसपा के भी चुनावों में अपने प्रत्याशी खड़े करने की वजह से दलित वोट भी बँटा।
कई सामाजिक-जनवादियों और छद्म वामपन्थियों से लेकर तमाम उदारवादी विश्लेषक किसान आन्दोलन की वजह से भाजपा को चुनावों में होने वाले नुक़सान के गुलाबी सपने देख रहे थे और दावे कर रहे थे कि धनी किसानों की एमएसपी की माँग को न माने जाने का खामियाज़ा भाजपा चुनावों में भुगतेगी। हालाँकि ऐसा कुछ हुआ नहीं। ऐसे तमाम “विद्वान” लोग यह नहीं समझते कि आज किसी एक विशिष्ट आर्थिक माँग पर शासक वर्गों के दो धड़ों में तात्कालिक अन्तरविरोध (एमएसपी के मसले पर औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग और खेतिहर पूँजीपति वर्ग के धड़े के बीच अधिशेष के विनियोजन को लेकर पैदा होने वाला तात्कालिक विशिष्ट अन्तरविरोध) के पैदा होने का मतलब यह नहीं है कि भाजपा धनी किसान वर्ग और कुलक वर्ग के दूरगामी हितों की नुमाइन्दगी नहीं करती है, जोकि गाँवों में शासक वर्गों की भूमिका अदा करते हैं। बल्कि मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के विरुद्ध इन दोनों ही धड़ों समेत समूचे पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों के सामूहिकीकरण का काम और उनके दूरगामी आम आर्थिक और राजनीतिक हितों की नुमाइन्दगी का काम भाजपा शासक वर्ग के राजनीतिक संकट के दौर में सबसे कुशलता के साथ कर सकती है क्योंकि मेहनतकश वर्गों को दमनात्मक राज्य मशीनरी और फ़ासीवादी विचारधारा के ज़रिये अनुशासित करने का काम एक फ़ासीवादी पार्टी ही सबसे बेहतर ढंग से कर सकती है जोकि भाजपा है। इसलिए भाजपा की ज़रूरत केवल औद्योगिक-वित्तीय पूँजी को ही नहीं बल्कि ग्रामीण पूँजीपति वर्ग को भी है। हालाँकि नारोदवादी व कुलकवादी राजनीति के अलग-अलग संस्करण पेश करने वाले तमाम “वामपन्थी” संगठन ग्रामीण इलाक़ों में फ़ासीवादी राजनीति की भूमिका को अपने लोकरंजकतावाद और वर्गसहयोगवाद के चलते जानबूझकर नज़रअन्दाज़ करते हैं।
आइए अब थोड़ी चर्चा जम्मू-कश्मीर के चुनावी नतीजों की भी कर लेते हैं। जम्मू कश्मीर में एक दशक बाद विधान सभा चुनाव सम्पन्न हुए। इन दस वर्षों के भीतर फ़ासीवादी मोदी सरकार ने भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीर के राष्ट्रीय दमन तथा कश्मीरियों के साथ की गयी भारतीय शासकों की ऐतिहासिक ग़द्दारी में तब नया कीर्तिमान स्थापित किया जब 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 हटा दिया गया और इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा भी ख़त्म कर दिया गया। इस बार भाजपा वैसे जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने के सपने देख रही थी और किसी हिन्दू मुख्यमन्त्री को शीर्ष पर बिठाने की आस लगाये बैठी थी। जम्मू-कश्मीर में 2022 में परिसीमन प्रक्रिया पूरी होने के बाद जम्मू के इलाक़े में सीटों का वितरण भाजपा ने स्पष्ट तौर पर अपने पक्ष में करवाया था। हालाँकि कश्मीर घाटी में मिली शिक़स्त के कारण भाजपा सरकार तक नहीं पहुँच पायी और वहाँ नेशनल कान्फ्रेंस की अगुवाई में उमर अब्दुल्ला की सरकार बन गयी है। लेकिन स्थानीय सरकार बनने का मतलब यह नहीं है कि मोदी सरकार का हस्तक्षेप जम्मू-कश्मीर में ख़त्म या कम हो जायेगा। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन क़ानून, 2019 उपराज्यपाल को विधान सभा में सदस्य नामांकित करने का अधिकार देता है और यह मोदी सरकार की दखलन्दाज़ी को बरक़रार रखने में अहम भूमिका अदा करेगा।
यह भी गौरतलब है कि चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य की स्थिति को बहाल करने का वायदा किया था, लेकिन अब वह इस वायदे से मुकरने के पूरे संकेत दे रही है। इसमें भी ताज्जुब की कोई बात नहीं होगी। पूँजीपति वर्ग से किये गए वायदों के अलावा वैसे भी भाजपा ने कौन-सा अन्य वायदा पूरा किया है? यह वायदा भी कश्मीर घाटी में वोट पाने की मंशा से ही किया गया था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि राज्य के दर्जे की बहाली अपने आप में कश्मीर के क़ौमी दमन को ख़त्म नहीं कर देगी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज एक आम कश्मीरी अनुच्छेद 370 के हटाये जाने और कश्मीर के राज्य के दर्जे को ख़त्म किये जाने के फ़ासीवादी मोदी सरकार के क़दम को न सिर्फ़ भारतीय हुक्मरानों द्वारा राष्ट्रीय दमन की ऐतिहासिक नीति की निरन्तरता के तौर पर देखता है बल्कि इसे भारतीय राज्यसत्ता द्वारा अबतक किये गये तमाम विश्वासघातों की पराकाष्ठा के तौर पर भी देखता है।
चुनावों में जहाँ तक पीडीपी और कांग्रेस के प्रदर्शन का सवाल है तो पीडीपी को केवल 3 सीटें मिली हैं, वहीं कांग्रेस को 6 सीटें हासिल हुई हैं। 2014 के विधान सभा चुनाव में पीडीपी को कश्मीर घाटी की 47 में से 26 सीटें हासिल हुई थीं। उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस का जम्मू में बेहतर प्रदर्शन हो सकता है हालाँकि ऐसा हुआ नहीं और वह 1 सीट पर सिमट कर रह गयी। इन मुख्य पार्टियों के अलावा जमात-ए-इस्लामी और इन्जिनियर राशिद की अवामी इत्तेहाद पार्टी भी चुनावी मैदान में मौजूद थीं। हालाँकि इन दोनों का ही प्रदर्शन दयनीय रहा।
ज़ाहिरा तौर पर कश्मीर घाटी में चुनाव की प्रक्रिया वहाँ मौजूद क़ौमी दमन की हक़ीक़त को दरकिनार नहीं कर देती है। इसलिए भारतीय मीडिया समेत तमाम विश्लेषकों द्वारा चुनावों में कश्मीरियों की भागीदारी के अतिउत्साहपूर्ण राष्ट्रवादी निष्कर्ष भयंकर रूप से भ्रामक हैं और कश्मीरी अवाम की आकांक्षाओं को कत्तई प्रतिबिम्बित नहीं करते हैं। कश्मीर का राष्ट्रीय दमन वहाँ चुनाव सम्पन्न करवाकर ख़त्म किया ही नहीं जा सकता है। आज कश्मीरी जनता विकल्पहीनता की स्थिति में अगर नेशनल कान्फ्रेंस को वोट दे रही है तो इसका कत्तई यह मतलब नहीं है कि उसने अपने साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय और विश्वासघात को भुला दिया है।
कुल मिलकर कहें तो हालिया चुनावी नतीजे एक बार फिर इसी बात की ताईद करते हैं कि फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार की फ़ासीवादी राजनीति को महज़ चुनावों में किसी जोड़-तोड़ या किसी भी प्रकार के चुनावी समीकरण के द्वारा नहीं हराया जा सकता है। भारत के मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता की क्रान्तिकारी लामबन्दी ही अन्तिम तौर पर फ़ासीवादी उभार को शिकस्त दे सकती है। आज यदि भाजपा कोई चुनाव हारकर सरकार से कुछ समय के लिए बाहर चली भी जाये तब भी समाज और राज्यसत्ता के ढाँचे पर अपने आन्तरिक नियन्त्रण और व्याप्ति के ज़रिये वह एक स्थायी परिघटना बनकर मौजूद रहेगी और अगली बार और अधिक आक्रामकता के साथ सत्ता में वापसी करेगी। भारत में फ़ासीवादी उभार का इतिहास इसी बात की बानगी है। इसलिए आज न केवल मज़दूर वर्ग, आम मेहनतकशों और मध्यम वर्ग के हिस्सों को यह बात समझने की ज़रूरत है बल्कि प्रगतिशील दायरे में मौजूद तमाम इन्साफ़पसन्द लोगों को भी यह समझना होगा कि फ़ासीवाद की मुकम्मल हार केवल और केवल पूँजीवाद के ख़ात्मे के साथ ही सम्भव है। किसी भी तरह का कोई भी पूँजीवादी जनवादी विभ्रम या ख़ाम-ख़याली हमारी प्रतिरोध की धार और रणनीति को ही कमज़ोर करने का काम करेंगे।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2024
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