“सामाजिक न्याय” के अलमबरदारों का अवसरवादी गँठजोड़ फ़ासीवादी राजनीति का कोई विकल्प नहीं दे सकता
पिछले साल जब जनता पार्टी से छिटके कई दलों के नेता भाजपा के विरुद्ध गठबन्धन बनाने के मकसद से दिल्ली में जुटे थे तभी से इतना तो तय था कि बुनियादी तौर पर एक ही नस्ल का होने के बावजूद अलग-अलग रंगों वाले ये परिन्दे बहुत लम्बे समय तक साथ-साथ नहीं उड़ सकते। फिलहाल अस्तित्व का संकट उन्हें एक साथ आने के लिए भले ही प्रेरित कर रहा हो, लेकिन इनकी एकता बन पाना मुश्किल है। इन छोटे बुर्जुआ दलों की नियति है कि ये केन्द्र में कांग्रेसनीत या भाजपानीत गठबन्धनों के पुछल्ले बनकर सत्ता-सुख में थोड़ा हिस्सा पाते रहें और कुछ अलग-अलग राज्यों में जोड़-तोड़ कर सरकारें चलाते रहें। पुरानी जनता पार्टी फिर से बन नहीं सकती और बन भी जाये तो बहुत दिनों तक बनी नहीं रह सकती। काठ की हाँड़ी सिर्फ़ एक ही बार चढ़ सकती है। सबसे बड़ी बात यह कि नवउदारवादी नीतियों पर आम सहमति के साझीदार ये सभी दल भी हैं और इनका साम्प्रदायिकता-विरोध चुनावी शतरंज की बिसात पर चली गयी महज़ एक चाल से अधिक कुछ भी नहीं है।