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बढ़ते स्त्री विरोधी अपराध और प्रतिरोध का रास्ता

स्‍त्री उत्पीड़न के पीछे असल वज़ह पूँजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था है जिसमें महिलाएँ दोहरी गुलामी का शिकार हैं। जब तक यह व्यवस्था है तब तक हम चाहे जितना ‘सेफ़ स्पेस’ बना लें, कराटे सीख लें, ‘राजनीतिक रूप से सही भाषा’ में बात करना सीख लें, पढाई कर लें, हमारी मुक्ति सम्भव नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने के लिए सड़कों पर एक जुझारू आन्दोलन खड़ा किया जाये। इस व्यवस्था का पूर्ण रूप से ख़ात्मा ही स्‍त्री मुक्ति की पहली अनिवार्य शर्त है। मज़दूर सत्ता की स्‍थापना और समाजवाद का निर्माण ही एक लम्‍बी प्रक्रिया में क़दम-दर-क़दम मज़दूरों और उनके अंग की तौर पर स्त्रियों को भी मुक्‍त कर सकता है। पितृसत्ता वर्गों के साथ पैदा हुई थी और यह वर्गों के साथ ही ख़त्म हो सकती है। यह दूरगामी लक्ष्‍य है, यह लम्‍बी लड़ाई है, लेकिन इसकी शुरुआत हमें करनी ही होगी।

चुनाव आते ही मोदी के साम्प्रदायिक बयानों, झूठों और ग़लतबयानियों की अन्धाधुन्ध बमबारी के मायने

अपने दस साल के कार्यकाल में मोदी सरकार ने जनता की ज़िन्दगी को बद से बदतर बनाने का काम किया है। आम मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ लाद कर विजय माल्या, मेहुल चौकसी जैसे पूँजीपतियों का कर्ज़ा माफ़ करने का काम किया है। जनता से किये हुए वायदों को पूरा करने में ये सरकार पूरी तरह से विफल रही है। यही कारण है कि फ़ासीवादी मोदी सरकार चुनाव दर चुनाव जाति-धर्म, मन्दिर-मस्जिद का मुद्दा उठाकर अपनी चुनावी नैया पार करने की कोशिश करती रही है।

फ़ासिस्ट प्रोपेगैण्‍डा फैलाती दंगाई फ़िल्में

ये फ़ासिस्ट फ़िल्में और कुछ नहीं है बल्कि मेहनतकश जानता का ध्यान भटकाने का एक हथकण्डा मात्र है। पिछले 10 सालों से महँगाई और बेरोज़गारी का बुलडोज़र जिस तरीक़े से देश की जनता को रौंद रहा है उसके ख़िलाफ़ लोग एकजुट और संगठित ना हो जायें इसके लिए समय-समय पर कभी लव जिहाद, कभी धारा 370, कभी चीन-पाकिस्तान का हौवा उछाल दिया जाता है। और मोदी की गोदी में बैठे विवेक अग्निहोत्री और सुदिप्तो सेन जैसे “फ़िल्मकार” फ़िल्म बनाकर झूठा फासिस्‍ट प्रोपेगैण्‍डा फैलाने का काम शुरू कर देते हैं।

चुनाव नज़दीक आते ही मोदी सरकार द्वारा रसोई गैस की क़ीमत घटाने के मायने

मोदी सरकार के नौ सालों में जनता ने कमरतोड़ महँगाई का सामना किया है। बढ़ती क़ीमतों ने देश की मेहनतकश आबादी का जीना दूभर कर दिया है। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आ रहे हैं मोदी सरकार द्वारा जनता का “हितैषी” बनने का ढोंग शुरू हो गया है। पिछले नौ सालों में जनता के मुद्दों के हर मोर्चे पर बुरी तरह विफल रहने के बाद, फ़ासीवादी मोदी सरकार को 2024 के लोकसभा चुनाव में हार का भूत अभी से डराने लगा है। इसका ताज़ा उदाहरण अभी मोदी सरकार द्वारा 2024 के चुनाव से ठीक पहले रसोई गैस की क़ीमत में दो सौ रूपए की “कटौती” करना है।

लगातार बाधित संसद सत्र, जनता के टैक्स के पैसों की बर्बादी

यह किसी से छिपा नहीं है की कैसे 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही, इस फ़ासीवादी मोदी सरकार ने, जनता के पैसों पर चलने वाले संसद से, जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों को गायब किया है। इसका ताज़ा उदाहरण अभी मणिपुर घटना के रूप में सामने आया। मणिपुर में जो भी हुआ वह एक इन्साफपसन्द समाज के माथे पर कलंक से कम नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गुण्डा वाहिनियों तथा बीजेपी सरकार द्वारा दो समुदायों के बीच दंगे कराए गए,महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाया गया और सामूहिक बलात्कार किया गया। इस घटना पर प्रधानमन्त्री हमेशा की तरह चुप्पी मारकर बैठे रहे। चौतरफा आलोचना होने के बाद संसद में 2 घण्टे के अपने लम्बे चौड़े लफ़्फ़ाज़ी भरे भाषण में प्रधानमन्त्री मोदी ने मात्र 2 मिनट मणिपुर की घटना पर बात की। हालाँकि यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। 2014 के बाद से ही संसद मोदी जी के भाषणबाजी का अड्डा बना हुआ है। इसी क्रम में बीजेपी के नेता संसद में ऐसी तमाम हरकतें कर चुके हैं जिससे, इस पार्टी का फ़ासीवादी चरित्र उजागर हो चुका है। “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” की डींगे हाँकने वाली इसी सरकार के कर्नाटक के दो नेता और त्रिपुरा का एक नेता संसद में बैठकर अश्लील फिल्में देखते हुए पकड़े गये थे।