चुनाव नज़दीक आते ही मोदी सरकार द्वारा रसोई गैस की क़ीमत घटाने के मायने

नौरीन

मोदी सरकार के नौ सालों में जनता ने कमरतोड़ महँगाई का सामना किया है। बढ़ती क़ीमतों ने देश की मेहनतकश आबादी का जीना दूभर कर दिया है। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आ रहे हैं मोदी सरकार द्वारा जनता का “हितैषी” बनने का ढोंग शुरू हो गया है। पिछले नौ सालों में जनता के मुद्दों के हर मोर्चे पर बुरी तरह विफल रहने के बाद, फ़ासीवादी मोदी सरकार को 2024 के लोकसभा चुनाव में हार का भूत अभी से डराने लगा है। इसका ताज़ा उदाहरण अभी मोदी सरकार द्वारा 2024 के चुनाव से ठीक पहले रसोई गैस की क़ीमत में दो सौ रूपए की “कटौती” करना है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समय-समय पर इसी मोदी सरकार के मन्त्री महँगाई पर बेशर्मी भरे बयान देकर जनता के दुःख-तकलीफ़ों का मज़ाक बनाते रहे हैं। यह वही मेहनतकश-विरोधी मोदी सरकार है जो पिछले नौ सालों से आम मेहनतकश जनता का खून चूसकर अन्धाधुन्ध तरीके से महँगाई बढ़ाने में लगी हुई है ताकि अपने पूँजीपति मालिको की तिजोरियां भर सके।

लोग महँगाई पर सवाल न करें, इसके लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार ने लोगों के बीच साम्प्रदायिकता का जहर घोला, हिन्दू-मुस्लिम के बीच दंगे कराए, हर समस्या के लिए अल्पसंख्यक के रूप में एक नकली दुश्मन लोगों के सामने पेश किया, मीडिया और सरकारी प्रोपेगेण्डा के द्वारा लगातार माहौल बनाया गया कि उनकी हर समस्या के लिए अल्पसंख्यक ज़िम्मेदार है। लेकिन इस फ़ासिस्ट सरकार की असलियत अब लोगों के सामने आने लगी है। अब लोगों के बीच से सवाल उठने लगे हैं कि क्यों अडानी की सम्पत्ति में सौ गुना से भी ज़्यादा वृद्धि हो जाती है और क्यों आम मेहनतकश लोगों की ज़िन्दगी बद से बद्तर होती जा रही है। फ़ासीवादी मोदी सरकार को यह आशंका सताने लगी है की सिर्फ साम्प्रदायिकता के दम पर चुनाव में बहुमत नहीं हासिल किया जा सकता। यही कारण है कि अब वो कुछ चीज़ों के दामों में मामूली कटौती करके लोगों की “हितैषी” बनने का ढोंग कर रही है। यह जगज़ाहिर है कि यह पूरी फ़ासिस्ट सरकार मेहनतकश विरोधी है और इसे आम जनता से कोई लेना-देना नहीं है। 

रसोई गैस के दामों में “कटौती” की हक़ीक़त

रसोई गैस के दामों में किए गए दो सौ रूपए की “कटौती” को लेकर मोदी सरकार अपनी शेखी बघारते हुए जनता को बड़ी राहत देने का दावा कर रही है, जबकि सच्चाई तो यह है कि यह चुनाव में वोट बटोरने का एक हथकण्डा मात्र है। इस कटौती के बाद रसोई गैस की क़ीमत दिल्ली में रु.903, मुंबई में रु.902, कोलकाता में रु.929, चेन्नई में रु.918 तथा भोपाल में रु.908 होगी। इस मामूली कटौती से आम मेहनतकश आबादी के जीवन पर कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ने जा रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत चार राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। वैसे भी इस कटौती को कामर्शियल एलपीजी की क़ीमत में 1 अक्टूबर को र. 209 की वृद्धि करके मोदी सरकार ने सन्तुलित कर दिया। यानी एक हाथ से चवन्नी दी और दूसरे हाथ से अठन्नी ले ली! हम जानते हैं कि मेहनतकशों की एक अच्छी-ख़ासी आबादी बाहर ढाबों व ठेलों पर खाने को बाध्य होती है क्योंकि उनके काम की प्रकृति ही ऐसी होती है, या वे परिवार के साथ नहीं रहते, जिसके कारण वे स्वयं दोनों वक्त खाना नहीं बना पाते।

इस मेहनतकश विरोधी सरकार के पास जनता का कोई मुद्दा नहीं है, इसलिए यह कल्याणकारी सुधारों का भ्रम पैदा करके चुनावी  रोटियाँ सेंकने का प्रयास कर रही है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार का एक बड़ा कारण सिलेण्डर की क़ीमतों के चलते महिलाओं में नाराज़गी भी थी। इसके बाद मोदी सरकार समझ चुकी है कि आने वाले चुनाव में जीतने के लिए उसे कुछ ऐसे दिखावटी काम करने होंगे जिससे कि उसकी छवि जनता के बीच में एक कल्याणकारी सरकार की बने।

सिलेण्डर की क़ीमतों में कटौती के बाद मोदी सरकार के मन्त्री और सरकारी टुकड़ों पर पलने वाली गोदी मीडिया फ़ासिस्ट मोदी के वाहवाही का ढो़ल पीट रही है तथा यह दावा कर रही है कि इससे सबसे ज़्यादा फ़ायदा उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों को होगा क्योंकि इसके बाद उन्हें रु.400 की छूट मिलेगी यानी उनके लिए गैस की क़ीमत लगभग सात सौ के आसपास रहेगी। लेकिन आँकड़े कुछ और ही कहते हैं। मोदी सरकार के महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक यानी की उज्ज्वला योजना की हकीकत हम सबके सामने है। इस योजना की विफलता की गवाही स्वयं सरकारी आँकड़े ही चीख-चीख कर दे रहे हैं । सरकारी आँकड़े बताते हैं कि प्रधानमन्त्री उज्ज्वला योजना से जुड़े 9.58 करोड़ परिवारों में से 1.18 करोड़ परिवारों ने वर्ष 2022-23 में कोई रिफिल सिलेण्डर नहीं खरीदा और 1.51 करोड़ परिवारों ने केवल 1 ही बार सिलेण्डर को रिफिल कराया। प्राप्त डेटा से पता चलता है कि औसत लाभार्थियों ने वर्ष 2022-23 के दौरान चार से कम एलपीजी सिलेण्डर रिफिल कराए। संसद में पेश आँकड़ों के अनुसार 2018-19 के दौरान 1.24 करोड़, 2019-20 के दौरान 1.41 करोड़, 2020-21 के दौरान 0.10 करोड़ और 2021-22 के दौरान 0.92 करोड़ लाभार्थियों ने एक बार भी सिलेण्डर रिफिल नहीं कराया। इसके अलावा 2018-19 के दौरान 2.90 करोड़, 2019-20 के दौरान 1.83 करोड़, 2020-21 के दौरान 0.67 करोड़ और 2021-22 के दौरान 1.08 करोड़ लाभार्थियों ने केवल एक बार सिलेण्डर रिफिल कराया। सरकारी आँकड़ों से ही स्पष्ट है कि जब रसोई गैस की क़ीमत रु. 700 के आसपास थी तब भी एक बड़ी मेहनतकश आबादी इसे खरीदने में असमर्थ थी। आज जिस तरह से अन्य ज़रूरी वस्तुओं के दामों में बढ़ोतरी हो रही है उसके बाद से यह स्थिति और भी भयावह हुई है।

आज देश की एक बड़ी मेहनतकश आबादी जो सुई से लेकर जहाज़ तक बनाती है, वह कारख़ानों की वीभत्स और नरकीय स्थिति में काम करने को मज़बूर है। ऑक्सफैम की हालिया रिपोर्ट बताती है कि देश की ऊपर की एक प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल सम्पत्ति का 40 प्रतिशत है जबकि नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास मात्र तीन प्रतिशत है। देश की लगभग तीन चौथाई आबादी 30-40 रुपए रोज़ाना पर गुज़र बसर करती है। जहाँ देश की एक बड़ी आबादी भोजन और आवास जैसी अपनी बुनियादी ज़रूरतों से महरूम है वहाँ वह हजार रुपए का सिलेण्डर खरीदे, ऐसी उम्मीद करना भी उनकी स्थिति के साथ एक भद्दे मज़ाक से काम नहीं है ।‘थोथा चना बाजे घना’ मुहावरे को चरितार्थ करते हुए मेहनतकश विरोधी मोदी सरकार सिलेण्डर के दामों में कटौती को ऐसे पेश कर रही मानों इसके बाद देश से बेरोज़गारी ,महँगाई, कुपोषण इत्यादि ख़त्म हो जाएगा। सच्चाई तो यह है कि यह आम मेहनतकश जनता के साथ यह उसी छलावे में एक नई कड़ी है जो फ़ासीवादी मोदी सरकार पिछले नौ सालों से करती आ रही है।

यूँ बढ़े गैस                                        यूँ घटती गई

सिलेंडर के दाम                 सब्सिडी की रकम

1 दिसम्बर 2011 – रु.400            2018-19 – रु.37,209

1 दिसम्बर 2015 – रु.545             2019-20 – रु.23,464

1 मई 2020 –   रु.588      2020-21 – रु.24,172

29 अगस्त 2023- रु.1103            2021-22 – रु.11,892

30 अगस्त 2023 -रु.903              2022-23 – रु.242

                                      (रकम करोड़ रुपये में)

 

सब्सिडी कम करके अपने मालिकों का ख़ज़ाना भरती मोदी सरकार

पूँजीपरस्त आर्थिक नीतियों को लागू करने में फ़ासीवादी मोदी सरकार ने सभी कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया है। आज फ़ासीवादी मोदी सरकार नंगई के साथ धन्नासेठों की चाकरी में लगी हुई है । महँगाई- बेरोज़गारी की मार झेल रही जनता के दुःख-तकलीफ़ों से इसे रती भर भी फर्क नहीं पड़ता। आँकड़ों से स्पष्ट है कि एक तरफ तो फ़ासीवादी मोदी सरकार लगातार गैस सिलेण्डर के दाम बढ़ाकर आम मेहनतकश जनता को महँगाई के बोझ तले रौंद रही है वहीं दूसरी तरफ सब्सिडी घटकर आम मेहनतकश जनता के टैक्स के पैसों से पूँजीपति मालिकों की तिजोरियाँ भरने में मशगूल है। समय-समय पर मोदी सरकार महँगाई बढ़ने का कारण अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ारों में गैस की क़ीमतों में बढ़ोतरी तथा बढ़ती हुई आबादी जैसे झूठे और नकली कारणों का शगुफा छोड़ती रहती है जबकि महँगाई बढ़ने का असली कारण व्यापक मेहनतकश जनता की औसत आय में आने वाली भारी कमी, पूँजीपति वर्ग को भारी छूट और रियायतें,जमाखोरी,, भारी अप्रत्यक्ष कर, और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अराजकता है।

पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र ही ऐसा है की जब-जब उसे लगता है कि लोगों के बीच असन्तोष बढ़ता जा रहा है और आने वाले दिनों में उनका गुस्सा किसी आन्दोलन का रूप ले सकता है तब-तब यह व्यवस्था जनता को कुछ रियायत देकर उनके गुस्से के उबाल पर पानी के छींटें मारने का प्रयास करती है। महँगाई की मार से आम लोगों की कमर तोड़ने के बाद अब अपनी चुनावी रोटियाँ सेंकने के लिए ये फ़ासीवादी मोदी सरकार तरह-तरह की तिकड़में अपना रही है। रसोई गैस की क़ीमत में ‘ऊँट के मुँह में जीरा’के समान कटौती भी इसी तिकड़म का एक हिस्सा मात्र है।  यह बात गाँठ बांध लेने की ज़रूरत है कि महँगाई कोई प्राकृतिक आपदा नहीं जिस पर नियन्त्रण सम्भव नहीं है बल्कि या मौज़ूदा मुनाफा- केन्द्रित व्यवस्था की नैसर्गिक पैदावार है।  इस पूँजीवादी-शोषणकारी व्यवस्था में आम मेहनतकश जनता की भलाई सम्भव ही नहीं है। आज एक ऐसी व्यवस्था के लिए हमें अपने आप को संगठित और एकजुट करने की ज़रूरत है जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा किसी व्यक्ति का शोषण ना हो अमीर – ग़रीब की ख़ाई ना हो। सबको शिक्षा और रोजगार का हक़ हो । हमें इस फ़ासीवादी मोदी सरकार के चुनावी झाँसों में ना आकर आने वाले चुनाव में अपनी जनएकजुटता क़ायम करके इस सड़े-गले पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए जनआन्दोलन खड़ा करना होगा।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2023


 

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