बढ़ते स्त्री विरोधी अपराध और प्रतिरोध का रास्ता
नौरीन
पश्चिम बंगाल के आरजी कर मेडिकल कॉलेज मे हुई बलात्कार की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। हालाँकि हम अच्छे से जानते हैं कि यह न तो कोई पहली घटना है और, अफ़सोस है की मौजूदा व्यवस्था व समाज के रहते यह आखिरी भी नहीं साबित होगी। लेकिन मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम की इसमें ख़ास भूमिका है।
फ़ासीवादी मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही स्त्री-विरोधी अपराधों के मामलों में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। एक के बाद एक होते स्त्री-विरोधी अपराधों को देखकर सभी इन्साफ़पसन्द दिलों में गुस्से की आग सुलगती है। यही आग हमें ऐसी घटनाओं के बाद सड़कों पर लोगों के प्रदर्शन के रूप में देखने को मिलती है। बेशक़ यही होना भी चाहिए। अगर हम सच में ज़िन्दा हैं तो ऐसी घटनाएँ हमें प्रभावित करेंगी और हम उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएँगे। लेकिन समस्या तब आती है जब हम सिर्फ़ भावनाओं में बहकर ऐसी घटनाओं के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने तक ही अपने आप को सीमित रखते हैं।
ऐसी घटनाओं के ख़िलाफ़ किस तौर पर प्रतिक्रिया दी जाये, ऐसी घटनाओं को कैसे रोका जाये, इसके लिए संघर्ष का सही रास्ता क्या हो, इस पर बात होनी चाहिए। ऐसी घटनाओं के पीछे कौन-से कारक काम करते हैं, समाज में स्त्रीद्वेषी तत्वों के पैदा होने की ज़मीन कहाँ मौजूद है, ऐसे ढेर सारे सवालों पर विचार करने की आवश्यकता है। जब तक हम इस प्रकार के अपराधों की जड़ तक नहीं पहुँचेंगे, हम लाख़ ‘सेफ स्पेस’ बना लें, फास्ट ट्रैक कोर्ट बना लें, तमाम नियम-क़ानून बना ले, स्थिति वही ‘ढाक के तीन पात’ वाली रहेगी।
स्त्री विरोधी मानसिकता की जड़ें कहाँ हैं? आख़िर इस बढ़ते वहशीपन के कारण क्या हैं?
अगर आपको महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों से गुस्सा आता है और अगर आपका गुस्सा क्षणिक नहीं है तो ऐन मुमकिन है कि आप एक कदम आगे बढ़कर यह ज़रूर सोचेंगे और तलाश करने की कोशिश करेंगे की इस तरीके की मानसिकता की जड़ें कहाँ हैं। आज हम जिस समाज में जी रहे हैं वह सिर्फ़ पितृसत्तात्मक समाज ही नहीं है। यह मुनाफ़े पर टिकी मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था है जिसका मौजूदा पितृसत्ता के साथ गहरा सम्बन्ध है ।
हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तामक मानसिकता औरतों को पैर की जूती, उपभोग की वस्तु, पुरुष की दासी और बच्चा पैदा करने की मशीन समझती है। इसके साथ ही मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था ने हर चीज़ की तरह स्त्रियों को भी ख़रीदे-बेचे जा सकने वाले माल में तब्दील कर दिया है। विज्ञापनों व फ़िल्मी दुनिया ने औरतों को बिकाऊ वस्तु बनाने का काम बहुत तेज़ी से किया है। वहीं बेरोज़गारी, नशा, मूल्यहीन शिक्षा, आसानी से उपलब्ध अश्लील सामग्री आदि न केवल युवाओं को बल्कि पूरे समाज को बर्बाद कर रही है, स्त्री-विरोधी मानसिकता को खाद-पानी देने का काम कर रही है।
आज हमारे देश में एक ऐसी फ़ासीवादी सरकार सत्ता में बैठी है जो अपनी मूल प्रकृति से ही स्त्री-विरोधी मानसिकता से भरी हुई है। जब भी कोई फ़ासीवादी, प्रतिक्रियावादी सरकार सत्ता में होती है तो समाज के बर्बर, बीमार और आपराधिक तत्वों को ऐसी वारदातों को अंजाम देने की खुली छूट मिल जाती है क्योंकि ऐसे तत्व ही फ़ासीवादी शक्तियों का हिस्सा होते हैं। यही कारण है कि भाजपा के केन्द्र में आने के बाद से बलात्कार और हत्या की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का डाटा बताता है कि भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में भयानक वृद्धि हुई है। अकेले 2022 में 4,45,256 मामले दर्ज किए गए, जो हर घण्टे लगभग 51 एफ़आईआर के बराबर है। वहीं हर रोज़ 86 महिलाओं के साथ रेप की घटनाएँ दर्ज होती है । यह वह घटनाएँ हैं जो दर्ज हो पाती है। हम जानते हैं कि हजारों घटनाएँ पुलिस स्टेशन के चक्कर काटने में ही दफ़न हो जाती है।
उन्नाव से लेकर कठुआ तक की घटनाओं में हमने देखा कि बलात्कारियों को मोदी सरकार का संरक्षण प्राप्त है। भाजपा का विधायक कुलदीप सिंह सेंगर उन्नाव में एक युवती के साथ रेप करता है और उसके पूरे परिवार की हत्या करवा देता है। कठुआ में पाँच साल के बच्ची का रेप करने वाले बलात्कारियों के पक्ष में भाजपा के नेता तिरंगा यात्रा निकालते हैं। महिला पहलवानों का यौन उत्पीड़न करने वाले बृजभूषण शरण सिंह के साथ न सिर्फ़ फ़ासीवादी मोदी सरकार बेशर्मी के साथ खड़ी होती है बल्कि उसे बचाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाती है। ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का नारा देने वाले “प्रधानसेवक” कर्नाटक में जाकर प्रज्ज्वल रेवन्ना के लिए चुनाव प्रचार करते हैं जिसने न सिर्फ़ हज़ारों महिलाओं का बलात्कार किया है बल्कि उन्हें डराने-धमकाने के लिए उनका वीडियो रिकॉर्ड किया है। अभी हाल ही में आईआईटी बनारस में हुई बलात्कार की घटना के दोषी, जो सीधे-सीधे भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल से जुड़े थे, उन्हें ज़मानत मिल गयी और उनके बाहर निकलते ही उनका केक काटकर स्वागत किया गया। जब बिलकिस बानो के बलात्कारियों को जेल से छोड़ा गया था तब भी उनका फूल मालाओं से स्वागत किया गया और उन्हें संस्कारी तक बताया गया।
इसके अलावा बार-बार आसाराम, राम रहीम जैसे बलात्कारियों को पैरोल दिया जाता है। इनको न सिर्फ़ जेल से बाहर निकाला जाता है बल्कि चुनाव में इनका समर्थन हासिल करने के लिए भाजपा के नेता उनके दरबार में जाकर मत्था टेकते हैं। आप खुद सोचिए कि क्या इससे समाज के अन्य घृणित स्त्री-विरोधी मानसिकता वाले अमानवीय तत्वों का हौसला नहीं बढ़ता होगा?
क्या अन्य पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों से हम महिला सुरक्षा की उम्मीद कर सकते हैं?
बीजेपी के स्त्री विरोधी चाल-चेहरा-चरित्र तो सबके सामने है। आम मेहनतकश जनता को इनसे कोई उम्मीद भी नहीं है। लेकिन समस्या और गम्भीर तब हो जाती है जब हम इनके ख़िलाफ़ अन्य चुनावबाज़ पार्टियों से उम्मीद करने लगते हैं। ‘लड़की हूँ लड़ सकती हूँ’ का नारा लगाने वाली कांग्रेस जम्मू-कश्मीर में कठुआ के बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगा यात्रा निकालने वाले व्यक्ति को चुनाव में टिकट देती है। इन चुनावबाज़ पार्टियों का दोमुँहापन हम हाल ही में पश्चिम बंगाल में हुई आरजी कर की घटना में देख चुके हैं। कैसे महुआ मोइत्रा समेत अन्य नेताओं ने, जो महिलाओं की सबसे बड़ी हितैषी बनती हैं, अपनी सरकार पर बात आते ही चुप्पी साध ली, यह सभी ने देखा।
दूसरी तरफ़ तथाकथित वामपन्थी पार्टियों की अवसरवाद की राजनीति है जो और कुछ नहीं बल्कि आम मेहनतकश जनता और उनके संघर्षों के साथ गद्दारी है। ये बातें तो गरमा-गरम और “प्रगतिशील” करते हैं। लेकिन जब खुद की सरकार पर बात आती है तो इन्हें साँप सूँघ जाता है। अभी हाल ही में केरल में जहाँ सीपीएम की सरकार है वहाँ हेमा कमेटी की रिपोर्ट आई है। यह रिपोर्ट बताती है कि मलयालम फ़िल्म जगत में अभिनेत्रियों के साथ यौन उत्पीड़न की घटनाएँ होती रहती हैं। ‘नारी मुक्ति’ का हो-हल्ला मचाने वाली सीपीएम पाँच सालों तक इस रिपोर्ट को दबा कर रखती है और जब यह रिपोर्ट सामने आ गई है तो इस पर चुप्पी मारकर बैठी हुई है। कमोबेश यही हाल सीपीआई (एमएल) लिबरेशन का है। इसका छात्र मोर्चा यानी आइसा के बेंगलुरु की इकाई से 40 सदस्य यह कहकर इस्तीफ़ा दे देते हैं कि उनके संगठन में पितृसत्तात्मक, समलैंगिकद्वेषी लोग हैं। इस पर लिबरेशन और इसका छात्र मोर्चा चुप्पी साधे हुए है।
अभी हाल ही में आई एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में 543 जीतने वाले प्रत्याशियों में से 46 प्रतिशत (251) प्रत्याशियों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज है।इसके अलावा सभी जीतने वाले प्रत्याशियों में 31 प्रतिशत (170) ऐसे हैं जिनके ख़िलाफ़ बलात्कार, हत्या, अपहरण आदि जैसे गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बीजेपी के 240 विजयी प्रत्याशियों में से 39 प्रतिशत (94), कांग्रेस के 99 विजयी प्रत्याशियों में से 49 प्रतिशत (49), सपा के 37 में से 57 प्रतिशत (21), तृणमूल कांग्रेस के 29 में से 45 प्रतिशत (13), डीएमके के 22 में से 59 प्रतिशत (13), टीडीपी के 16 में से 50 प्रतिशत (आठ) और शिवसेना (शिंदे) के सात में से 71 प्रतिशत (पांच) प्रत्याशियों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। आरजेडी के 100 प्रतिशत (चारों) प्रत्याशियों के ख़िलाफ़ गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज है।
इन बातों के आधार पर आज हमें यह बात समझ लेने की ज़रूरत है कि स्त्री मुक्ति की लड़ाई किसी भी कीमत पर पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों के साथ मिलकर या उनके भरोसे रहकर नहीं लड़ा जा सकता। समूचा पूँजीपति वर्ग और उसके राजनीतिक नुमाइन्दे पितृसत्तात्मक विचारधारा से नाभिनालबद्ध हैं और उनकी राजनीति का चरित्र ही ऐसा है कि उनकी इच्छा से स्वतन्त्र उनके संगठनों व दलों का ऐसा ही स्त्री-विरोधी चरित्र हो सकता है। ये एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ‘तू नंगा तू नंगा’ का खेल चाहे जितना खेलें लेकिन असलियत यह है की इस सड़ी गली, बाजबजाती हुई व्यवस्था के हमाम में सभी पूँजीवादी चुनावबाज पार्टियाँ नंगी है।
क्या स्त्रीवाद स्त्री मुक्ति का रास्ता है?
सबसे पहले तो हमें यह समझने की ज़रूरत है कि महिलाएँ हमेशा से गुलाम नहीं रही है। इतिहास के एक ख़ास वक़्त में यानी की नवपाषाण काल में कृषि की शुरुआत होती है और समाज की बुनियादी ज़रूरतों के ऊपर कुछ बेशी उत्पादन होता है। बेशी उत्पादन के साथ ही निज़ी सम्पत्ति, वर्ग और पितृसत्तात्मक परिवार अस्तित्व में आते हैं। यही से स्त्रियों के प्रति ग़ैर-बराबरी और उनके उत्पीड़न की शुरुआत होती है। लेकिन स्त्रियों का उत्पीड़न पुरुष इसलिए नहीं करते कि वे पुरुष हैं। यदि ऐसा होता तो मानव जाति के आरम्भ से ही स्त्रियों का उत्पीड़न मौजूद होता। कुछ स्त्रीवादी ऐसा मानते भी हैं, लेकिन इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। सच्चाई यह है पितृसत्ता का जन्म वर्ग और निजी सम्पत्ति के जन्म के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है।
हक़ीकत यह है कि लैंगिक पहचान अपने आप में स्त्रियों के उत्पीड़न का कारण नहीं है। वह एक वर्गीय समाज में उत्पीड़न का आधार बनती है। उनके उत्पीड़न की जड़ वर्ग समाज के उद्भव और निजी सम्पत्ति की अवधारणा से जुड़ा हुआ है। अलग-अलग वर्ग समाजों के ताने-बाने को बनाये रखने के लिए औरतों के उत्पीड़न को अलग-अलग तरीक़े से बनाये रखना ज़रूरी रहा है। इस पूँजीवादी व्यवस्था में महिलाएँ दोहरी गुलामी का शिकार है। स्त्रियों के उत्पीड़न से भी मुख़्य फ़ायदा पूँजीपति वर्ग को होता है। एक ओर यह महिलाओं के सस्ते श्रम को निचोड़ कर अपना मुनाफ़ा पीटता है वहीं वह श्रमशक्ति के भौतिक और जैविक पुनरुत्पादन का ख़र्च स्त्रियों पर डाल देता है और इस प्रकार उसका निजीकरण करवा उस ख़र्च को कम भी कर देता है और उससे अपना प्रत्यक्ष सम्बन्ध भी तोड़ देता है। अगर औरतें श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन यानी बच्चों के प्रजनन व लालन-पालन, रसोई व घर के काम नहीं करती, तो श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन का ख़र्च कहीं ज़्यादा होता और उसे सीधे पूँजीपति वर्ग को ही प्रबन्धित करना पड़ता। लेकिन श्रमशक्ति की कीमत के तौर पर परिवार को गुज़ारा-भत्ता देकर पूँजीपति यह काम बेहद सस्ते में और बिना किसी सिरदर्द के स्त्रियों से करवा लेता है। इसीलिए पितृसत्ता परिवार का बने रहना पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग के लिए फ़ायदेमन्द होता है। नतीजतन, औरतें दोहरी ग़ुलामी का शिकार होती हैं: एक ओर पूँजीवाद के हाथों कारखानों व अन्य कार्यस्थलों में अपनी सस्ती श्रमशक्ति का दोहन करवाकर और दूसरी ओर परिवार के भीतर पितृसत्ता और पुरुष श्रेष्ठतावाद के हाथों उत्पीड़ित होकर।
लेकिन स्त्रीवाद इस सही दुश्मन की पहचान नहीं करता। वह या तो पुरुषों को ही शत्रु बना देता है, या फिर वह पूँजीवाद के विरुद्ध रैडिकल संघर्ष की जगह स्त्री-मुक्ति को कुछ सुधारों, हिमायत-वक़ालत की राजनीति, अर्जियाँ देने और कुछ नुमाइन्दगी हासिल कर लेने तक सीमित कर देता है। लेकिन मज़दूर औरत का दुश्मन मज़दूर पुरुष नहीं है, भले ही वह शासक वर्गों की विचारधारा यानी पितृसत्ता से प्रभावित है या उसकी जकड़ में है। पितृसत्ता की विचारधारा के कारण पुरुष मज़दूर से स्त्री मज़दूर का अन्तरविरोध जनता के बीच का अन्तरविरोध है, जनता और शत्रु के बीच का अन्तरविरोध नहीं। यह स्त्री मुक्ति के लिए वर्ग-आधारित साझा संघर्षों की प्रक्रिया में ही हल हो सकता है। लेकिन स्त्रीवाद अक्सर जनता के बीच के इसलिए अन्तरविरोध को शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध बना देता है। इस रूप में स्त्रीवाद स्त्री मुक्ति के संघर्ष को अन्दर से खोखला करने का काम करता है। इसे न तो औरतों की गुलामी के सही कारण और उसका समूचा इतिहास सही ढंग से पता है और न इनके पास इसे ख़त्म करने का कोई ठोस कार्यक्रम है। स्त्रीवाद और कुछ नहीं बल्कि स्त्री उत्पीडन के सवाल पर पूँजीवादी राजनीतिक लाइन का प्रतिनिधित्व करता है। यह शासक वर्ग का एक ऐसा हथियार है जो पहचान की राजनीति करके आम मेहनतकश जनता को बाँटने का काम करती है। इसीलिए स्त्रीवाद कभी स्त्री मुक्ति का रास्ता नहीं हो सकता।
स्त्री मुक्ति का रास्ता, इन्क़लाब का रास्ता!
सवाल यह उठता है कि क्या वाकई में इस मानवद्रोही पितृसत्तात्मक व्यवस्था से स्त्रियों की मुक्ति सम्भव है? और यदि सम्भव है तो फ़िर सही रास्ता क्या हो? जैसा कि हमने ऊपर बात की है, स्त्रियों की गुलामी हमेशा से नहीं रही है। यह एक ख़ास वक़्त में अस्तित्व में आयी। विज्ञान का नियम यह कहता है कि जो चीज़ अस्तित्व में आयी है उसे एक न एक दिन नष्ट भी होना ही है। विज्ञान का यही नियम स्त्री उत्पीड़न पर भी लागू होता है, बशर्ते कि हम सही दिशा में उसके लिए जुझारू संघर्ष करें। स्त्री उत्पीड़न के पीछे असल वज़ह पूँजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था है जिसमें महिलाएँ दोहरी गुलामी का शिकार हैं। जब तक यह व्यवस्था है तब तक हम चाहे जितना ‘सेफ़ स्पेस’ बना लें, कराटे सीख लें, ‘राजनीतिक रूप से सही भाषा’ में बात करना सीख लें, पढाई कर लें, हमारी मुक्ति सम्भव नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने के लिए सड़कों पर एक जुझारू आन्दोलन खड़ा किया जाये। इस व्यवस्था का पूर्ण रूप से ख़ात्मा ही स्त्री मुक्ति की पहली अनिवार्य शर्त है। मज़दूर सत्ता की स्थापना और समाजवाद का निर्माण ही एक लम्बी प्रक्रिया में क़दम-दर-क़दम मज़दूरों और उनके अंग की तौर पर स्त्रियों को भी मुक्त कर सकता है। पितृसत्ता वर्गों के साथ पैदा हुई थी और यह वर्गों के साथ ही ख़त्म हो सकती है। यह दूरगामी लक्ष्य है, यह लम्बी लड़ाई है, लेकिन इसकी शुरुआत हमें करनी ही होगी।
इसके लिए मज़दूर और मेहनतकश वर्गों की स्त्रियों को आगे आना होगा। उन्हें इन पूरी सोच को समझना और अपनाना होगा और इसके लिए काम करना होगा। इसके अलावा, कॉलेज-यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं को विशेष तौर पर इस लड़ाई में आगे आना होगा। अपने क्लासरूम और कॉलेज कैम्पस से बाहर निकल कर आम मेहनतकश जनता के बीच जाना होगा। कारखानों–घरों में काम करने वाली महिलाओं के बीच जाना होगा। उन्हें एकजुट और संगठित करना होगा। इसी के आधार पर हमें वर्ग आधारित पितृसत्तात्मक विरोधी आन्दोलन खड़ा करना होगा। और इस पूरी प्रक्रिया में हमें यह बात नहीं भूलनी होगी कि स्त्री मुक्ति की लड़ाई सिर्फ़ स्त्रियों की लड़ाई नहीं है। पितृसत्ता के गुलाम पुरुष भी होते हैं। इसीलिए स्त्री मुक्ति के संघर्ष को इस व्यवस्था को बदलने के संघर्ष के साथ जोड़कर आगे बढ़ना होगा और इसे समूची मेहनतकश जनता की लड़ाई बनाना होगा।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2024
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