फ़ासिस्ट प्रोपेगैण्डा फैलाती दंगाई फ़िल्में
नौरीन
प्रोपेगैण्डा फ़िल्में बनाने का जो सिलसिला बीसवीं सदी में हिटलर और मुसोलिनी के शासनकाल में शुरू हुआ था, मोदी सरकार के शासनकाल में अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुँचा है। हमें इस मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए कि ये सड़ चुकी पूँजीवादी व्यवस्था महज़ प्रतिरोध की आवाज़ों का दमन करके टिकी हुई है। ये लुटेरी व्यवस्था अपने विचारों और संस्कृति के दम पर भी लोगों को मानसिक रूप से अपंग बनाने पर भी टिकी हुई है। अपनी प्रोेपगैण्डा मशीनरी के ज़रिये मोदी सरकार ने जनता के दिलो-दिमाग़ पर चौतरफ़ा हमला बोला है। व्यापक मेहनतकश जनता अधूरी और ग़लत जानकारी की अँधेरी काल-कोठरी में क़ैद कर दी गयी है। आज सूचना के सभी तन्त्रों एवं संस्थानों पर फ़ासीवादी मोदी सरकार का एकाधिकार है। मनोरंजन और जानकारी के नाम पर लोगों को फ़ासिस्ट प्रोपेगैण्डा का प्रचार-प्रसार करने वाली फ़िल्में बिना किसी लाग-लपेट के परोसी जा रही हैं, जिसका एकमात्र मक़सद लोगों के बीच में नफ़रत और दंगे की राजनीति को बढ़ावा देना है।
2014 के बाद फ़ासिस्ट प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों की बाढ़
मोदी सरकार ने अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी विचारधारा को जनमानस तक फैलाने के लिए फ़िल्मों का इस्तेमाल औज़ार के रूप में किया है। ख़ास तौर पर 2014 के बाद से प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों की बाढ़-सी आयी है। उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक, द एक्सिडेन्टल प्राइम मिनिस्टर, केरला स्टोरी, द कश्मीर फाइल्स, आर.आर.आर., जेएनयू, बस्तर : द नक्सल स्टोरी, मैं अटल हूँ, स्वातन्त्रयवीर सावरकर , पी.एम. नरेन्द्र मोदी, द वैक्सीन वार, द साबरमती रिपोर्ट, आर्टिकल 370, रज़ाकार, द साइलेंट जेनोसाइड ऑफ़ हैदराबाद, आदि। इस तरीक़े की प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है जिनका एकमात्र मक़सद मोदी सरकार की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार है। इन फ़िल्मों ने बड़े सलीक़े से, तथ्यों और ऐतिहासिक सच्चाइयों को तोड़-मरोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नफ़रती विचारधारा को आम लोगों के बीच में बैठाने का काम किया है। सरकारी संस्थाओं का योजनाबद्ध तरीक़े से इस्तेमाल करके इन प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों द्वारा लोगों के दिमाग में मुसलमानों और दलितों के खिलाफ़ ज़हर घोला जा रहा है। एक उन्मादी भीड़ तैयार की जा रही है जिनका इस्तेमाल समय-समय पर संघ परिवार दंगों में करता है।
लेकिन यह भी सच है कि जैसे-जैसे मोदी सरकार रोज़गार, महँगाई को कम करने आदि के मोर्चे पर नाक़ामयाब हो रही है, वैसे-वैसे ये प्रोपेगैण्डा फ़िल्में भी असफल हो रही हैं। वजह स्पष्ट है : भूखे आदमी को फ़िल्मों के ज़रिये कितना भी बता दिया जाये कि वह भूखा नहीं है, वह जानता है कि भूख का मतलब क्या होता है। लेकिन फिर भी ये प्रोपेगैण्डा फ़िल्में समाज के एक हिस्से को प्रभावित करती हैं, झूठ का प्रचार करती हैं, इतिहास को विकृत करती हैं और पूरे समाज को राजनीतिक तौर पर अनपढ़ बनाने का प्रयास करती हैं और ठीक इसीलिए ये ख़तरनाक हैं और इनकी सच्चाई को समझने की आवश्यकता है।
यह अनायास नहीं है कि दि कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी जैसी घटिया फ़िल्मों को न सिर्फ़ सरकार द्वारा टैक्स फ़्री किया जाता है बल्कि पूरे सरकारी तन्त्र को इसके प्रचार-प्रसार में लगा दिया जाता है। क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? इसका ज़वाब सीधा है, ये वे फ़िल्में है जो सीधे तौर पर मोदी सरकार के साम्प्रदायिक फ़ासीवादी एजेण्डे का प्रचार करती है। यह फ़िल्में लोगों को उनके जीवन की सभी समस्याओं के लिए एक नक़ली दुश्मन देती है जैसा कि आमतौर पर फ़ासीवादी शक्तियाँ करती हैं। ये फ़िल्में हमारी भावनाओं के साथ खेलती हुई ना जाने कब हमें एक दूसरे का दुश्मन बना देती हैं, और हमें पता भी नहीं चलता। आप खुद अपने अनुभव से बताइये कि क्या इन फ़िल्मों को देखते हुए कई बार आप थोड़ी देर के लिए ही सही, इसके झूठ को सच नहीं मान लेते? यही तो है फ़ासीवाद का चरित्र जो हमेशा लोगों को उनकी सारी समस्याओं के लिये एक नक़ली दुश्मन देता है। यह दुश्मन अलग-अलग परिस्थितियों के अनुसार कभी अल्पसंख्यक, कभी दलित तो कभी कम्युनिस्ट होते हैं।
इन प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों के ख़तरनाक चरित्र का अन्दाज़ा हम इसी से लगा सकते हैं कि ठीक इसी तरह की फ़िल्में जर्मनी में हिटलर के दौर में भी बनायी गयीं जिन्होंने यहूदियों को एक दुश्मन के रूप में पेश किया। आम यहूदियों के नरसंहार के लिए समाज में फ़िरकापरस्त किस्म का माहौल तैयार करने में इन फ़िल्मों की भी एक भूमिका थी।
प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों की असलियत
वैसे तो इन फ़िल्मों को पहली नज़र में ही देखकर समझ में आ जाता है इनकी पक्षधरता क्या है। क्योंकि इनके मुद्दे भी ठीक वही हैं जिन मुद्दों के दम पर भाजपा अपनी चुनावी रोटियाँ सेकती है। मसलन लव जिहाद, हिन्दू-मुसलमान, धारा 370, चीन, पाकिस्तान वग़ैरह-वग़ैरह।
ये प्रोपेगैण्डा फ़िल्में मिथकों को यथार्थ बनाकर, झूठ को सच की चाशनी में डुबोकर बड़े ही बारीक़ी से लोगों के सामने पेश करती है। इतिहास के वास्तविक तथ्य इनके लिए कोई मायने नहीं रखते। यह एक झूठी गल्पकथा को इतिहास के रूप में पेश करती हैं। कुछ उदाहरणों से समझते हैं।
द केरला स्टोरी जैसी फ़िल्मों को ध्यान से देखे तो पता चलेगा कि ये एक निहायत घटिया किस्म के झूठों पर आधारित फ़िल्म है, जिसका ऐतिहासिक तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है। इसमें औरतों को “बैल बुद्धि” के रूप में पेश किया गया है जिनके पास अपनी सोचने-समझने की क्षमता नहीं होती है, जो आसानी से किसी के बहकावे में आ जाती हैं। वास्तव में तो यही आरएसएस की विचारधारा है जो यह मानता है कि औरतें और कुछ नहीं महज़ बच्चा पैदा करने की मशीन और उपभोग की वस्तु है। उनको हमेशा एक स्वामी या मालिक की ज़रूरत होती है, जो उनकी देखभाल करे। इस फ़िल्म में ‘लव जिहाद’ के बारे में किये जा रहे झूठे प्रचार को आधार बनाया गया है, जिसके ज़रिये आम हिन्दू जनता के बीच में एक नक़ली डर फैलाया जाता है कि मुसलमान “उनकी औरतों” को भगा ले जायेंगे या उठा ले जायेंगे। अगर आप वास्तव में स्वयं सरकारी आँकड़े उठाकर देखेंगे तो पायेंगे कि ‘लव जिहाद’ का पूरा मसला ही फ़र्ज़ी है। जहाँ दो अलग धर्मों के वयस्क व्यक्ति अपनी इच्छा से प्यार या शादी करें, उसमें दख़ल देने का हक़ न तो किसी व्यक्ति को है, न संगठन को है, न सरकार को है और न ही समाज को। यह तो उनका व्यक्तिगत मसला है। मज़दूर हमेशा लोगों के जनवादी अधिकार का समर्थन करते हैं और इस मामले में भी वे समाज के सबसे उन्नत वर्ग होते हैं।
अब जरा भाजपा के ‘लव जिहाद’ की असलियत भी जान लेते हैं। इस पार्टी के नेता शाहनवाज़ हुसैन और मुख़्तार अब्बास नक़वी मुसलमान हैं जिन्होंने हिन्दू लड़की से शादी की है। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की बेटी की शादी एक मुस्लिम लड़के से हुई है। लेकिन विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल के गुण्डे उनके घरों पर कोई हमला नहीं करते। कोई हो-हल्ला नहीं मचाते। क्योंकि वे भी जानते हैं कि ‘लव जिहाद’ की नौटंकी केवल जनता को आपस में लड़वाने के लिए है।
ऐसी ही एक फ़िल्म आयी थी ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’। इसमें दावा किया गया कि यह कश्मीरी पण्डितों के दर्द को बयाँ करती है। लेकिन फ़िल्म देखने से पता चलता है कि कश्मीरी पण्डित तो महज़ बहाना है, असली निशाना तो देश की आम मेहनतकश जनता है जिसके बीच में हिन्दू-मुसलमान के झगड़े का ज़हर घोलकर उन्हें एक-दूसरे का दुश्मन बनाना है। यह फ़िल्म कश्मीरी पण्डितों का इस्तेमाल मोदी सरकार की नफ़रती, उन्मादी और साम्प्रदायिक नीति के लिए माहौल तैयार करने के लिये करती है। यह फ़िल्म भी झूठों से भरी हुई है, कश्मीरी पण्डितों के वहाँ से पलायन के आँकड़ों को, उनके प्रति (कश्मीरी जनता द्वारा नहीं!) कुछ इस्लामी कट्टरपन्थियों द्वारा की गयी ज़्यादतियों को भी बेहद बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है, जिनका असर ही कश्मीरी समाज में कुछ समय के लिए इसलिए बढ़ा था, क्योंकि भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी क़ौम के दमन के विरुद्ध चले आन्दोलन में इस्लामी फ़िरकापरस्त सोच का असर पैदा हो गया था। लेकिन वास्तव में कश्मीरी समाज में आज भी फ़िरकापरस्ती की भावना नगण्य है और जो भड़काई जा रही है, वह आज संघ परिवार द्वारा ही भड़कायी जा रही है। समूची कश्मीरी जनता के लिए, चाहे वे मुसलमान हों या हिन्दू, क़ौमी दमन का मसला सबसे अहम और साझा मसला है।
ये फ़ासिस्ट फ़िल्में और कुछ नहीं है बल्कि मेहनतकश जानता का ध्यान भटकाने का एक हथकण्डा मात्र है। पिछले 10 सालों से महँगाई और बेरोज़गारी का बुलडोज़र जिस तरीक़े से देश की जनता को रौंद रहा है उसके ख़िलाफ़ लोग एकजुट और संगठित ना हो जायें इसके लिए समय–समय पर कभी लव जिहाद, कभी धारा 370, कभी चीन–पाकिस्तान का हौवा उछाल दिया जाता है। और मोदी की गोदी में बैठे विवेक अग्निहोत्री और सुदिप्तो सेन जैसे “फ़िल्मकार” फ़िल्म बनाकर झूठा फासिस्ट प्रोपेगैण्डा फैलाने का काम शुरू कर देते हैं।
प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों को बढ़ावा: साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति का एक हिस्सा
आज कोई भी फ़िल्म देखने से पहले हमें दो बातों पर ग़ौर करना चाहिए। पहला इस फ़िल्म के आने का समय क्या है? और दूसरा इस फ़िल्म को बनाने के लिए करोड़ों रुपये कहाँ से आ रहा है और कौन दे रहा है?
क्या यह महज़ इत्तेफ़ाक है कि इस तरीक़े की प्रोपेगैण्डा फ़िल्में ज़्यादातर ऐसे समय पर आती हैं जब देश में चुनाव का माहौल होता है? या फिर ऐसे समय में आती हैं जब देश में सरकार के खिलाफ़ गुस्सा बढ़ रहा हो और लोग अपने जीवन के वास्तविक मुद्दों को लेकर एकजुट और संगठित हो रहे हों? ऐसी स्थिति में उनका ध्यान से भटकाने के लिए दि कश्मीर फ़ाइल्स, उरी दि सर्जिकल स्ट्राइक, दि एक्सीडेण्टल प्राइम मिनिस्टर जैसी प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों को ले आया जाता है।
मोदी सरकार द्वारा धड़ल्ले से ऐसी फ़िल्मों को बढ़ावा दिया जा रहा है बल्कि अमित शाह फ़िल्मकारों की हाज़िरी लगवाकर ऐसी फ़िल्में बनवा रहा है, जो संघ परिवार और मोदी सरकार की साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की विचारधारा से मेल खाती हों।
ऐसी फ़िल्मों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है जिसे या तो भाजपा से जुड़े लोगों ने फ़ण्ड किया है या फिर उसके नेताओं ने प्रमोट किया है। कुछ उदाहरण देखें।
भारतीय चित्र साधना (बीसीएस) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा संगठन है। इसने 23 से 25 फ़रवरी 2024 तक भाजपा–शासित हरियाणा में फ़िल्म महोत्सव आयोजित किया। महोत्सव का उद्घाटन हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खट्टर ने किया था और केन्द्रीय मन्त्री अनुराग ठाकुर पुरस्कार समारोह के अध्यक्ष थे। इसमें कई फ़िल्म निर्माताओं ने हिस्सा लिया जिन्होंने हाल ही में मोदी सरकार की फ़ासिस्ट विचारधारा समर्थित फ़िल्में बनायी थीं, जैसे विवेक अग्निहोत्री (दि कश्मीर फ़ाइल्स के निर्देशक), विपुल शाह (केरला स्टोरी और बस्तर दि नक्सल स्टोरी के निर्माता) और सुदीप्तो सेन (केरला स्टोरी और बस्तर द नक्सल स्टोरी के निर्देशक)।
अभी हाल ही में एक फ़िल्म आयी थी जिसका नाम था स्वातन्त्र्यवीर सावरकर। यह फ़िल्म सावरकर को एक “हीरो” की तरह पेश करती है जबकि हम जानते हैं कि सावरकर वही व्यक्ति है जिसने अंग्रेज़ों की सज़ा से बचने के वास्ते कई बार माफ़ीनामे लिखे थे और आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के बजाय हिन्दू-मुसलमान को आपस में लड़ाने के विचारों को फैलाया था। इसी सेवा के बदले आज़ादी तक सावरकर को अंग्रेज़ों ने पेंशन दी थी। इस फ़िल्म के निर्माताओं में से एक आनन्द पण्डित है जो खुद कह चुका है कि वह 30 वर्षों से भाजपा का सदस्य है । आनन्द पण्डित नरेन्द्र मोदी पर बनी फ़िल्म का भी निर्माता था जो 2019 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले रिलीज़ हुई थी।
रज़ाकार तेलुगू भाषा में बनी एक प्रोपेगैण्डा फ़िल्म है, जिसका निर्माण गुड्डू नारायण रेड्डी ने किया है। रेड्डी तेलंगाना में भाजपा की कार्यकारी समिति का हिस्सा है। यह फ़िल्म तेलंगाना में निज़ाम के रज़ाकारों द्वारा हिन्दू-मुसलमान दोनों ही किसानों के सामन्ती शोषण की वर्गीय सच्चाई को साम्प्रदायिक रंग देती है, क्योंकि यहाँ पर सामन्तों के वर्ग की अगुवाई मुसलमान निज़ाम कर रहा था! जबकि सच्चाई यह है कि इस सामन्ती उत्पीड़न के ख़िलाफ़ हिन्दू और मुसलमान दोनों ही किसानों ने संघर्ष किया था और धर्म उनके लिए कोई मसला था ही नहीं।
जहाँगीर नेशनल यूनिवर्सिटी (जेएनयू) जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों को, विशेष तौर पर, जो जनवादी, सेक्युलर और प्रगतिशील हैं, देशद्रोही के तौर पर दिखलाने के लिए बनायी गयी एक झूठे प्रोपेगैण्डा की फ़िल्म है। इस फ़िल्म को बनाने वाली कम्पनी के निर्देशकों में से एक विष्णु डाण्डिया है जो गोपाल गोयल के व्यापारिक सहयोगियों में से है। गोपाल गोयल हरियाणा में भाजपा के गठबन्धन वाला नेता है।
एक्सीडेण्ट ऑर कांस्पिरेसी: गोधरा के निदेशक एम.के. शिवाक्ष को उत्तर प्रदेश सरकार ने 2022 के विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ के लिये प्रचार गीत बनाने का काम सौंपा था। यह फ़िल्म भी सीधे-सीधे साम्प्रदायिक प्रचार करने वाली एक दंगाई फ़िल्म है।
जब कोई सरकार इतने बड़े पैमाने पर झूठे प्रचार पर आधारित प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों को प्रश्रय देने लगे, अपने सारे काम-धन्धों को छोड़कर अपनी सारी संस्थाओं का इस्तेमाल किसी फ़िल्म के प्रमोशन में लगा दें तो हमें यह समझने में तनिक भी देर नहीं करनी चाहिए कि यह कोई मनोरंजन के लिए बनायी गयी फ़िल्म नहीं बल्कि एक फ़ासीवादी साम्प्रदायिक रणनीति के तहत बनायी गयी फ़िल्म है जिसका असली मक़सद आम मेहनतकश जनता की वर्ग चेतना को कुन्द करना है। लोगों को एक साम्प्रदायिक भीड़ के रूप में तैयार करना है जिसका इस्तेमाल यह सरकार जब चाहे अपनी फ़ासीवादी राजनीति के लिए कर सकें।
प्रोपेगैण्डा फ़िल्में मोदी सरकार की ‘बाँटो और राज करो’ की पूरी नीति का हिस्सा है। समाज के फ़ासिस्टीकरण में इन फ़िल्मों की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज खुल्लम-खुल्ला ऐसी कला संस्थाओं को तहस-नहस किया जा रहा है जो जनपक्षधर हैं, जो इस सरकार के खिलाफ़ प्रतिरोध की आवाज़ उठाती हैं। जनपक्षधर कविताओं, कहानियों, नाटकों आदि को पाठ्यक्रमों से हटाया जा रहा है। इनके मंचन पर प्रतिबन्ध लगाने का खुला खेल चल रहा है। जनपक्षधर कलाकारों, पत्रकारों, प्रोफेसरों, बुद्धिजीवियों को जेलों में भरा जा रहा है। ये सरकार कला को साम्प्रदायिक रंग में रंगने पर आमादा है।
ऐसे में, जनता का पक्ष चुनने वाले कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों को निडर होकर आगे आना होगा और व्यापक मेहनतकश जनता के बीच अपनी कला और विचारों के ज़रिये जागृति लाने का काम करना होगा, उन्हें समाज की सच्चाइयों से अवगत कराना होगा, उन्हें दिखलाना होगा कि उनके दुश्मन कौन हैं और दोस्त कौन हैं। ऐसे कलाकार आगे आ भी रहे हैं, लेकिन उन्हें और बड़ी तादाद में आगे आना होगा। उनकी कला भी अपना सामाजिक उत्तरदायित्व तभी निभा पायेगी और कला के रूप में बची भी तभी रह पायेगी।
आम मेहनतकश जनता का पक्ष क्या हो?
हमारे देश के इतिहास में यह एक अँधेरा का दौर है। फ़ासीवादी मोदी सरकार विनाश का नंगा नाच कर रही है। इसमें कोई शक़ नहीं है कि देश ज्वालामुखी के दहाने पर है। ऐसे में सवाल हमारे सामने भी है कि क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे या “सकारात्मक होने” का राग अलापें और शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर रेत में धँसाकर मोदी सरकार की नंगई से नज़रें चुरा लें? आज समय का यही तकाज़ा है कि जो ज़मीन मौज़ूद है वहीं से मेहनत और लगन के साथ इन फ़ासिस्ट प्रोपेगैण्डा वाली फ़िल्मों के बरक्स वैज्ञानिक जीवन–दृष्टि और सही इतिहास बोध का प्रचार–प्रसार करने के लिये वैकल्पिक मीडिया का ताना–बाना खड़ा करना होगा। जनपक्षधर कलाकारों को गाँवों–मोहल्लों, कल–कारखानों, बस्तियों, आदिवासी इलाक़ों में सांस्कृतिक टोलियाँ लेकर जाना होगा। जनपक्षधर फ़िल्में बनानी होंगी, अपने अख़बार निकालने होंगे, पुस्तकालय–वाचनालय खोलने, जनता को सच्चाई बताने वाली फ़िल्में दिखानी होंगी, तथा आम मेहनतकश जनता के बीच वैचारिक सांस्कृतिक रूपान्तरण का काम करना होगा। सिर्फ़ सोशल मीडिया पर फ़ासिस्टों का विरोध करके काम नहीं चलेगा। हमें इनको सड़कों पर जवाब देना होगा। उनके सभी प्रोपेगैण्डा को लोगों के बीच जाकर जड़ से उख़ाड़ फेंकने का काम करना होगा।
बेशक आज की परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं। लेकिन इस प्रतिकूल परिस्थिति में भी देश के छात्र-नौजवान और मज़दूर इस फ़ासीवादी शक्ति के सामने डटकर खड़े हैं। इसका एक छोटा सा उदाहरण ‘हैदराबाद सिनेफ़ाइल्स’ नामक समूह है। जब 22 जनवरी को राम मन्दिर का पूरा राजनीतिक कार्यक्रम चल रहा था, ऐसे में ‘हैदराबाद सिनेफाइल्स’ के लोगों ने भाजपा और आरएसएस की धर्म की राजनीति को उजागर करते हुए आनन्द पटवर्धन की फ़िल्म ‘राम के नाम’ दिखायी। इन्हें जेल जाना पड़ा। बावज़ूद इसके, ये अभी भी फ़िल्मों के माध्यम से लोगों के बीच मोदी सरकार की फ़ासीवादी नीतियों और उसके द्वारा बनायी गयी प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों की असलियत को जनता के सामने लाने के काम में डटे हुए हैं। आज की ज़रूरत यही है कि इन फ़ासिस्टों के ख़िलाफ़ हमें अपनी जुझारू जनएकजुटता क़ायम करनी होगी, अपनी क्रान्तिकारी विरासत पर भरोसा करते हुए अपने जन संगठन खड़े करने होंगे। तभी फ़ासीवादियों का मुकाबला हर जगह किया जा सकता है, चाहे वह राजनीति हो या समाज हो या फिर संस्कृति।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2024
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन