Category Archives: कला-साहित्‍य

लघु कथा – रेल का सफर

इसी बीच उनके बीच कुछ नौजवान, हाथ में पर्चे और अख़बार लिये ट्रेन के डिब्बे में प्रवेश करते हैं। वे चलती ट्रेन में मेहनत की भट्टी में पके चेहरों के बीच नारे लगा रहे थे, ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे, उनकी गर्दन की नसें खिंची हुईं थीं, मुट्ठियाँ तनी हुईं थीं और क्रोध और आवेश उनके स्वर में भरा हुआ था। उनके नारे क्रान्तिकारियों को याद कर रहे थे, मज़दूरों और ग़रीबों को एकजुट होने का आह्वान कर रहे थे। उनके बीच एक नौजवान अख़बार के बारे में विस्तार से बता रहा था। उसने कहा कि यह मेहनतकश जनता का अख़बार है — उनका शिक्षक, उनका संगठनकर्ता।

‘केरला स्टोरी’ को राष्ट्रीय पुरस्कार, एक बेहूदा मज़ाक़

घोर स्त्री-विरोधी और मुसलमानों के प्रति नफ़रत और कुंठा से भरी यह फ़िल्म समाज को पीछे धकेलेने के सिवाय और कोई भूमिका नहीं अदा करती है। दर्शक के दिमाग में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत बिठाकर यह फ़िल्म यह साबित करने का प्रयास करती है कि सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं। इतना ही नहीं बीच-बीच मैं इस फ़िल्म में कम्युनिस्टों और कश्मीर में राजकीय फौजी दमन के विरुद्ध संघर्षरत वहाँ की आम जनता को भी आतंकवादी क़रार देने की पूरी कोशिश की जाती है। कम्युनिस्टों को यहाँ जिस तरह बुरी और विदेशी विचारधारा फैलने वाले लोग और पश्चिमी संस्कृति के वाहकों के तौर पर दर्शाया गया है। वाक़ई में जो विचारधारा मज़दूरों-मेहनतकशों की बात करती है और उनकी मेहनत की लूट के ख़िलाफ़ जंग छेड़ती है उसे “विदेशी” दर्शाने का असल मकसद ही यह है की दर्शक के दिमाग़ में मज़दूर-विरोधी, न्‍याय-विरोधी, समानता-विरोधी भावनाएँ और सोच बिठायी जा सके और उनमें साम्‍प्रदायिक ज़हर घोला जा सके और इस साम्‍प्रदायिक उन्‍माद को ही देशी या “राष्‍ट्रीय” विचारधारा घोषित कर दिया जाय।

देश के विकास में बारिश का योगदान!

बरसात के मौसम के साथ ही शुरूआत होती है सड़क में गढ्ढे बनने और उसके धँसने की। इसी मौसम में पुल गिरते हैं, पुरानी इमारतें गिरती हैं, पेड़-खम्भों से लेकर न जाने क्या-क्या गिर जाता है। आप सोच रहे होंगे बात तो ठीक है, पर इससे देश की अर्थव्यवस्था का आगे बढ़ने से क्या लेना-देना है! महोदय! देश की विकास को समझने में, यही तो आप चूक गये! अब देखिए, जब कोई सड़क टूटती है या उसमें गढ्ढे बन जाते हैं, तो इसके बाद क्या होता है? इसके बाद अगले साल सरकार सड़क की मरम्मत के लिए नया टेण्डर निकालती है। कोई बड़ी कम्पनी सबसे अधिक पैसा देकर टेण्डर ख़रीदती है। फिर कम्पनी ठेकेदार नियुक्त करती है। ठेकेदार मज़दूरों को काम पर रखता है। फिर दुबारा नयी सड़क बनकर तैयार होती है। इसके बाद मोदीजी या माननीय मुख्यमन्त्री सड़क का उद्घाटन करने आते हैं। यानी सड़क के टूटने के कारण ही कम्पनी को टेण्डर मिला, ठेकेदार को सड़क बनाने के लिए ठेका मिला, मुनाफ़ा मिला और इससे ही मज़दूरों को 2-3 महीने के लिए काम मिला और अपना शोषण करवाने का अधिकार प्राप्त हो पाया और अन्त में सरकार को भी जनता के हित में किये गये काम को दिखाने का मौक़ा मिला।

कहानी – टूटन / आशीष

जब अपनी अम्मी का ज़िक्र किया तो उसकी आँखें छलछला गयीं – बहुत छोटी-सी उम्र थी तब कैसे उसकी झुग्गी तोड़ दी गयी, मध्य-दिल्ली से काफ़ी सुदूर बवाना में एक जगह उसके बाप को मिली। यहाँ बसने के तीन महीने बाद उसके भाग्य पर ठनका गिरा, साँप के काटने से उसकी अम्मी गुज़र गयीं। दो साल बाद उसकी इकलौती बड़ी आपी रफ़त जहाँ ने एक ड्राइवर शमशाद के साथ भागकर निकाह कर लिया। अब घर में अब्बू और उसके सिवा कोई नहीं था।

बिगुल के लिए एक कविता

हम तो बस इसी बहाने निकले हैं
धरती की गोद में बैठकर आसमाँ को झुकाने निकले हैं
ज़ुल्मतों के दौर से, इन्साँ को बचाने निकले हैं
विज्ञान की ज्वाला जलाकर, अँधेरा मिटाने निकले हैं
हम इन्सान है, इन्सान बनाने निकले हैं

कविता – नयी सदी में भगतसिंह की स्मृति / शशि प्रकाश

हमें तुम्हारा नाम लेना है
एक बार फिर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख़्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूँढ़ते हुए
जहाँ रोटियों पर माँओं के दूध से अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारख़ानों में दिहाड़ी पर
खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और आधे आसमान की ओर से।

छावा : फ़ासीवादी भोंपू से निकली एक और प्रोपेगैण्डा फ़िल्म

पहला तथ्य तो यही है कि यह फ़िल्म किसी ऐतिहासिक घटना पर नहीं बल्कि यह शिवाजी सावन्त के एक उपन्यास पर बनी है। लेकिन इसे पेश ऐसे किया जा रहा है जैसे कि यह इतिहास को चित्रित कर रही है। दूसरा, अगर ऐतिहासिक तथ्यों पर ग़ौर करें, तो यह बात तो स्पष्ट तौर पर समझ में आ जाती है कि औरंगज़ेब और शिवाजी के बीच की लड़ाई कोई धर्म-रक्षा की लड़ाई नहीं थी बल्कि पूरी तरह से अपनी राजनीतिक सत्ता के विस्तार की लड़ाई थी। शिवाजी की सेना में कितने ही मुस्लिम सेनापति मौजूद थे, साथ ही औरंगज़ेब की सेना और दरबार में हिन्दू मन्त्री, सेनापति और सैनिक भारी संख्या में मौजूद थे। औरंगज़ेब का मकसद अगर सभी को मुसलमान बनाना होता, तो ज़ाहिरा तौर पर पहले वह अपने दरबार और अपनी सेना में अगुवाई और सरदारी की स्थिति में मौजूद हिन्दुओं को मुसलमान बनाता। धर्मान्तरण का जब कभी उसने इस्तेमाल किया तो वह भी राजनीतिक वर्चस्व और अहं की लड़ाई का हिस्सा था, न कि इस्लाम का राज भारत में क़ायम करने की मुहिम।

फ़िलिस्तीनी कविताएँ Palestinian Poems

और इस तरह उन्होंने मेरी तलाशी ली…
अन्त में, मुझे दोषी ठहराते हुए उन्होंने कहा :
हमें कुछ नहीं मिला
उसकी जेबों में अक्षरों के सिवाय।
कुछ नहीं मिला सिवाय एक कविता के।

मुक्तिबोध की कविताओं के कुछ अंश

अगर मेरी कविताएँ पसन्द नहीं
उन्हें जला दो,
अगर उसका लोहा पसन्द नहीं
उसे गला दो,
अगर उसकी आग बुरी लगती है
दबा डालो
इस तरह बला टालो!!

कविता  की  ज़रूरत

रोटी पेट की भूख मिटाती है, कविता हमारी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख मिटाती है। इनमें से पहली भूख तो जैविक है, आदिम है। दूसरी भूख सच्चे अर्थों में ‘मानवीय’ है, मनुष्य के सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास की देन है। समस्या यह है कि वर्ग विभाजित समाज के श्रम विभाजन जनित अलगाव, विसांस्कृतीकरण और विमानवीकरण की सार्विक परिघटना ने बहुसंख्यक आबादी से उसकी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख का अहसास ही छीन लिया है। दूसरे, जब पेट की भूख और बुनियादी ज़रूरतों के लिए ही हडि्डयाँ गलानी पड़ती हों तो सांस्कृतिक भूख या तो मर जाती है या विकृत हो जाती है। भूखे लोग रोटी के लिए आसानी से, स्वत: लड़ने को तैयार हो जायेंगे, पर वास्तविक अर्थों में सम्पूर्ण मानवीय व्यक्तित्वों से युक्त मानव समाज के निर्माण की लम्बी लड़ाई के लिए, मानवता के ‘आवश्यकता के राज्य’ से ‘स्वतंत्रता के राज्य’ में संक्रमण की लम्बी लड़ाई के लिए, व्यक्ति की सम्पूर्ण व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक वैयक्तिकता के लिए ज़रूरी शोषणमुक्त सामाजिक संरचना और सामूहिकता के सुदूर भविष्य तक की यात्रा के सतत् दीर्घकालिक संघर्ष के लिए, लोग तभी तैयार हो सकते हैं, जब उन्हें विस्मृति से मुक्त किया जायेगा, उन्हें स्वप्न और कल्पनाएँ दी जायेंगी, उनमें कविता की भी भूख पैदा की जायेगी और फिर उस भूख को मिटाने के ज़रूरी इन्तज़ाम किये जायेंगे।