Category Archives: कला-साहित्‍य

शाखा में साख

बहुत दिन हुए, मोहल्ले में विधर्मियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई। गहन मुद्रा में बैठे पाण्डेय जी सोच रहे थे। अन्य शाखा प्रान्त के लोग उनका कभी-कभी मज़ाक भी उड़ाने लगे थे। वे कहते “पाण्डेय जी आपके इलाक़े में तो इन मुल्लों की संख्या बढ़ती जा रही है। लगता है आपको पण्डिताईनी से फ़ुरसत नहीं मिल रही।” यही ख़्याल उन्हें बार-बार कुरेद रहा था। रविवार के दिन काम-धन्धें से फ़ारिग़ होकर कुर्सी पर बैठे वह इसी चिन्तन में मगन थे। पाण्डेय जी अब 50 के होने को आये हैं, बड़े से अपार्टमेण्ट में रह रहे हैं। बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत हैं। इनका एक बच्चा अभी विदेश में सेटल हो चुका है, दूसरा बैंगलोर की एक बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा है। बचपन में ही पाण्डेय जी शाखा से जुड़ गये थे। आज वह शाखा के उत्तर-पश्चिमी ज़िला के संघचालक हैं। जवानी में उन्होंने बाबरी मस्ज़िद के आन्दोलन में भी भाग लिया था।

कहानी – यंत्रणागृह / अर्न्स्ट टोलर

वह और चार घण्टे ज़िन्दा रहा। चार घण्टे में तो बहुत से सवाल किये जा सकते हैं। अगर तीन मिनट में एक पूछा जाये तो भी हुए अस्सी। अफ़सर अफ़सरी में कुशल था, अपना काम समझता था, इसके पहले वह बहुतों से सवाल कर चुका था। मरते हुए लोगों से भी। तुम्हें जानना चाहिए काम करने का ढंग, और बस। किसी से गला फाड़कर चिल्लाओ और किसी से धीमे, कान में बात करो, कुछ को सब्ज़बाग़ दिखाओ।

चीले  के  महाकवि  पाब्लो नेरूदा  की  कविता – मैं दण्ड की माँग करता हूँ I Demand Punishment / Pablo Neruda

मेरे भाइयो! संघर्ष जारी रहेगा
अपनी लड़ाई हम जारी रखेंगे
कल-कारख़ानों में, खेत-खलिहानों में
गली-गली में यह लड़ाई जारी रहेगी
नमक/शोरा की खदानों में
यह लड़ाई जारी रहेगी

फ़ासिस्ट प्रोपेगैण्‍डा फैलाती दंगाई फ़िल्में

ये फ़ासिस्ट फ़िल्में और कुछ नहीं है बल्कि मेहनतकश जानता का ध्यान भटकाने का एक हथकण्डा मात्र है। पिछले 10 सालों से महँगाई और बेरोज़गारी का बुलडोज़र जिस तरीक़े से देश की जनता को रौंद रहा है उसके ख़िलाफ़ लोग एकजुट और संगठित ना हो जायें इसके लिए समय-समय पर कभी लव जिहाद, कभी धारा 370, कभी चीन-पाकिस्तान का हौवा उछाल दिया जाता है। और मोदी की गोदी में बैठे विवेक अग्निहोत्री और सुदिप्तो सेन जैसे “फ़िल्मकार” फ़िल्म बनाकर झूठा फासिस्‍ट प्रोपेगैण्‍डा फैलाने का काम शुरू कर देते हैं।

दो फ़िलिस्तीनी कविताएँ / समीह अल-कासिम. इब्राहीम तुकन

नौजवान थकेंगे नहीं
उनका लक्ष्य तेरी आज़ादी है
या फिर मौत
हम मौत का प्याला पी लेंगे
पर अपने दुश्मनों के ग़ुलाम नहीं बनेंगे
हम हमेशा के लिए
अपमान नहीं चाहते
और न अभावग्रस्त ज़िन्दगी
हम अपनी महानता
लौटायेंगे मेरे देश
ओ मेरे देश

गाज़ा : दो कविताएँ

स्कूल अब हज़ारों लोगों के लिए
घर और पनाहगाह है।
विद्यार्थी विस्थापित हैं या मर चुके हैं,
जख़्मी हैं या
अनाथ हो चुके हैं।
अध्यापिका बच्चों को छिपाने के लिए
लेट जाती है उन पर।
किताबें धुएँ और राख में तब्दील हो चुकी हैं।
गणित यह है
51 दिन, 2,200 मृत, 10,000 ज़ख़्मी

कविता – हमारा श्रम / आनन्द, गुड़गाँव

अगर हमें मौक़ा मिले तो
इस धरती को स्वर्ग बना सकते हैं
मगर बेड़ियाें से जकड़ रखा है हमारे
जिस्म व आत्मा को इस लूट की व्यवस्था ने
हम चाहते हैं अपने समाज को
बेहतर बनाना मगर
इस मुनाफ़े की व्यवस्था ने
हमारे पैरों को रोक रखा है

कहानी – देह भंग स्वप्न भंग / शकील सिद्दीक़ी

तुम चले गए थे बापू—हमें क्या पता था कि यह तुम्हारा जाना कभी न लौटकर आने में बदल जायेगा। वह दिन किशन की आँखों में भर आता है। फर्स्ट डिवीज़न पास होने की ख़ुशी से लबरेज़ जब वह घर लौटा था तो पाया था, सन्नाटा, उदासी और चीखों का अम्बार। बापू का फैक्ट्री में काम करते हुए एक्सीडेण्ट हो गया था। वह भागता हुआ अस्पताल गया था, वहाँ पायी थी उसने बापू की क्षत-विक्षप्त लाश। फ़ैक्ट्री का ब्यालर फट गया था। खौलते पानी और लोहे के टुकड़ों का एक साथ आक्रमण हुआ था उन पर।

कविता – फ़िलिस्तीन / कात्यायनी

जब संगीनों के साये और बारूदी धुएँ के बीच
“अरब वसन्त” की दिशाहीन उम्मीदें
बिखर चुकी होती हैं
तब चन्द दिनों के भीतर पाँच सौ छोटे-छोटे ताबूत
गाज़ा की धरती में बो दिये जाते हैं
और माँएँ दुआ करती हैं कि पुरहौल दिनों से दूर
अमन-चैन की थोड़ी-सी नींद मयस्सर हो बच्चों को
और ताज़ा दम होकर फिर से शोर मचाते
वे उमड़ आयें गलियों में, सड़कों पर
जत्थे बनाकर।

कहानी – सुकून की तलाश में एक दिन / अन्वेषक

आख़िर सूरज डूब गया, तेज़ हवाओं ने सब कुछ अपने आगोश में ले लिया। अँधेरा हर तरफ़ फैल चुका था। पूरे पार्क में सन्नाटा पसर गया, कहीं कोई नहीं दिखाई दे रहा था। लाउडस्पीकर का शोर अभी ख़त्म नहीं हुआ, बस अभी उसकी आवाज़ धीमी थी। सब लौट गये फिर अपने ठिकानों में जहाँ अगले दिन उन्हें सुबह से रात तक, अपने हाड मांस को गलाना था ताकि अपना व परिवार का पेट का गड्ढा भर सके। यही पहिया घूम रहा है दिन, रात, महीनों, सालों से। इसी में एक दिन निकाल कर आते हैं सभी सुकून की तलाश करते हुए, पर अन्त में रह जाता है तो सिर्फ़ अँधेरा जो सब कुछ अपने अन्दर समा लेना चाहता है।