Category Archives: कला-साहित्‍य

कविता – नयी सदी में भगतसिंह की स्मृति / शशि प्रकाश

हमें तुम्हारा नाम लेना है
एक बार फिर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख़्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूँढ़ते हुए
जहाँ रोटियों पर माँओं के दूध से अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारख़ानों में दिहाड़ी पर
खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और आधे आसमान की ओर से।

छावा : फ़ासीवादी भोंपू से निकली एक और प्रोपेगैण्डा फ़िल्म

पहला तथ्य तो यही है कि यह फ़िल्म किसी ऐतिहासिक घटना पर नहीं बल्कि यह शिवाजी सावन्त के एक उपन्यास पर बनी है। लेकिन इसे पेश ऐसे किया जा रहा है जैसे कि यह इतिहास को चित्रित कर रही है। दूसरा, अगर ऐतिहासिक तथ्यों पर ग़ौर करें, तो यह बात तो स्पष्ट तौर पर समझ में आ जाती है कि औरंगज़ेब और शिवाजी के बीच की लड़ाई कोई धर्म-रक्षा की लड़ाई नहीं थी बल्कि पूरी तरह से अपनी राजनीतिक सत्ता के विस्तार की लड़ाई थी। शिवाजी की सेना में कितने ही मुस्लिम सेनापति मौजूद थे, साथ ही औरंगज़ेब की सेना और दरबार में हिन्दू मन्त्री, सेनापति और सैनिक भारी संख्या में मौजूद थे। औरंगज़ेब का मकसद अगर सभी को मुसलमान बनाना होता, तो ज़ाहिरा तौर पर पहले वह अपने दरबार और अपनी सेना में अगुवाई और सरदारी की स्थिति में मौजूद हिन्दुओं को मुसलमान बनाता। धर्मान्तरण का जब कभी उसने इस्तेमाल किया तो वह भी राजनीतिक वर्चस्व और अहं की लड़ाई का हिस्सा था, न कि इस्लाम का राज भारत में क़ायम करने की मुहिम।

फ़िलिस्तीनी कविताएँ Palestinian Poems

और इस तरह उन्होंने मेरी तलाशी ली…
अन्त में, मुझे दोषी ठहराते हुए उन्होंने कहा :
हमें कुछ नहीं मिला
उसकी जेबों में अक्षरों के सिवाय।
कुछ नहीं मिला सिवाय एक कविता के।

मुक्तिबोध की कविताओं के कुछ अंश

अगर मेरी कविताएँ पसन्द नहीं
उन्हें जला दो,
अगर उसका लोहा पसन्द नहीं
उसे गला दो,
अगर उसकी आग बुरी लगती है
दबा डालो
इस तरह बला टालो!!

कविता  की  ज़रूरत

रोटी पेट की भूख मिटाती है, कविता हमारी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख मिटाती है। इनमें से पहली भूख तो जैविक है, आदिम है। दूसरी भूख सच्चे अर्थों में ‘मानवीय’ है, मनुष्य के सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास की देन है। समस्या यह है कि वर्ग विभाजित समाज के श्रम विभाजन जनित अलगाव, विसांस्कृतीकरण और विमानवीकरण की सार्विक परिघटना ने बहुसंख्यक आबादी से उसकी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख का अहसास ही छीन लिया है। दूसरे, जब पेट की भूख और बुनियादी ज़रूरतों के लिए ही हडि्डयाँ गलानी पड़ती हों तो सांस्कृतिक भूख या तो मर जाती है या विकृत हो जाती है। भूखे लोग रोटी के लिए आसानी से, स्वत: लड़ने को तैयार हो जायेंगे, पर वास्तविक अर्थों में सम्पूर्ण मानवीय व्यक्तित्वों से युक्त मानव समाज के निर्माण की लम्बी लड़ाई के लिए, मानवता के ‘आवश्यकता के राज्य’ से ‘स्वतंत्रता के राज्य’ में संक्रमण की लम्बी लड़ाई के लिए, व्यक्ति की सम्पूर्ण व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक वैयक्तिकता के लिए ज़रूरी शोषणमुक्त सामाजिक संरचना और सामूहिकता के सुदूर भविष्य तक की यात्रा के सतत् दीर्घकालिक संघर्ष के लिए, लोग तभी तैयार हो सकते हैं, जब उन्हें विस्मृति से मुक्त किया जायेगा, उन्हें स्वप्न और कल्पनाएँ दी जायेंगी, उनमें कविता की भी भूख पैदा की जायेगी और फिर उस भूख को मिटाने के ज़रूरी इन्तज़ाम किये जायेंगे।

अल सल्वाडोर के क्रान्तिकारी कवि रोखे दाल्तोन (1935 – 1975) की कुछ कविताएँ

तुम तय कर सकते हो
नैतिक चरित्र एक राजनीतिक सत्ता,
एक राजनीतिक संस्थान
या एक राजनीतिक व्यक्ति का,
इस बात से कि ख़तरे की किस हद के लिए
रज़ामन्द होते हैं
वे प्रेक्षण पर,
नज़रों में
एक व्यंग्य कवि की।

शाखा में साख

बहुत दिन हुए, मोहल्ले में विधर्मियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई। गहन मुद्रा में बैठे पाण्डेय जी सोच रहे थे। अन्य शाखा प्रान्त के लोग उनका कभी-कभी मज़ाक भी उड़ाने लगे थे। वे कहते “पाण्डेय जी आपके इलाक़े में तो इन मुल्लों की संख्या बढ़ती जा रही है। लगता है आपको पण्डिताईनी से फ़ुरसत नहीं मिल रही।” यही ख़्याल उन्हें बार-बार कुरेद रहा था। रविवार के दिन काम-धन्धें से फ़ारिग़ होकर कुर्सी पर बैठे वह इसी चिन्तन में मगन थे। पाण्डेय जी अब 50 के होने को आये हैं, बड़े से अपार्टमेण्ट में रह रहे हैं। बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत हैं। इनका एक बच्चा अभी विदेश में सेटल हो चुका है, दूसरा बैंगलोर की एक बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा है। बचपन में ही पाण्डेय जी शाखा से जुड़ गये थे। आज वह शाखा के उत्तर-पश्चिमी ज़िला के संघचालक हैं। जवानी में उन्होंने बाबरी मस्ज़िद के आन्दोलन में भी भाग लिया था।

कहानी – यंत्रणागृह / अर्न्स्ट टोलर

वह और चार घण्टे ज़िन्दा रहा। चार घण्टे में तो बहुत से सवाल किये जा सकते हैं। अगर तीन मिनट में एक पूछा जाये तो भी हुए अस्सी। अफ़सर अफ़सरी में कुशल था, अपना काम समझता था, इसके पहले वह बहुतों से सवाल कर चुका था। मरते हुए लोगों से भी। तुम्हें जानना चाहिए काम करने का ढंग, और बस। किसी से गला फाड़कर चिल्लाओ और किसी से धीमे, कान में बात करो, कुछ को सब्ज़बाग़ दिखाओ।

चीले  के  महाकवि  पाब्लो नेरूदा  की  कविता – मैं दण्ड की माँग करता हूँ I Demand Punishment / Pablo Neruda

मेरे भाइयो! संघर्ष जारी रहेगा
अपनी लड़ाई हम जारी रखेंगे
कल-कारख़ानों में, खेत-खलिहानों में
गली-गली में यह लड़ाई जारी रहेगी
नमक/शोरा की खदानों में
यह लड़ाई जारी रहेगी

फ़ासिस्ट प्रोपेगैण्‍डा फैलाती दंगाई फ़िल्में

ये फ़ासिस्ट फ़िल्में और कुछ नहीं है बल्कि मेहनतकश जानता का ध्यान भटकाने का एक हथकण्डा मात्र है। पिछले 10 सालों से महँगाई और बेरोज़गारी का बुलडोज़र जिस तरीक़े से देश की जनता को रौंद रहा है उसके ख़िलाफ़ लोग एकजुट और संगठित ना हो जायें इसके लिए समय-समय पर कभी लव जिहाद, कभी धारा 370, कभी चीन-पाकिस्तान का हौवा उछाल दिया जाता है। और मोदी की गोदी में बैठे विवेक अग्निहोत्री और सुदिप्तो सेन जैसे “फ़िल्मकार” फ़िल्म बनाकर झूठा फासिस्‍ट प्रोपेगैण्‍डा फैलाने का काम शुरू कर देते हैं।