Category Archives: निजीकरण

आज़ादी के 76 साल के बाद भी राजधानी के मेहनतकश पानी तक के लिए मोहताज

उपराज्यपाल और जल मन्त्री दोनों अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़कर दिल्ली में पानी की कमी का कारण जनसंख्या और झुग्गी-बस्तियों के विस्तार होने को बता रहे हैं। ज़ाहिरा तौर पर, अपनी नाकामी छिपाने के लिये ये दोनों ‘तू नंगा तू नंगा’ का खेल खेल रहे हैं और सारी समस्या का ठीकरा मेहनतकश जनता के सिर पर फोड़ रहे हैं, जो दिल्ली में सबकुछ चलाती है और सबकुछ बनाती है और जिसकी मेहनत की लूट के दम पर यहाँ के धन्नासेठों, नेताओं-मन्त्रियों और नौकरशाहों की कोठियाँ चमक रही हैं। भाजपा और आम आदमी पार्टी जनता की तकलीफ़ों के प्रति कितने सवेंदनशील हैं, ये तो साफ नज़र आ रहा है।

सामाजिक-आर्थिक विषमता दूर करने के कांग्रेस के ढपोरशंखी वायदे और मोदी की बौखलाहट

जनता से किये गये बड़े-बड़े ढपोरशंखी वायदे भारतीय बुर्जुआ चुनावी राजनीति और सम्‍भवत: किसी हद तक हर देश में पूँजीवादी राजनीति की चारित्रिक विशेषता है। लेकिन भारत में तो यह ग़ज़ब तरीके से होता है। पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक में हर प्रत्याशी अपने प्रतिद्वन्दी से बढ़कर ही वायदे करता है, चाहे उसका सत्य से कोई लेना-देना हो या न हो। 18वीं लोकसभा के चुनाव में भी इसी परिपाटी का पालन हो रहा है। मज़ेदार बात है कि ऐसे वायदे सत्तासीन पार्टी की तरफ़ से नहीं बल्कि विपक्ष की तरफ़ से ज़्यादा हो रहे हैं। सत्‍तासीन पार्टी के पास तो 10 साल के कुशासन के बाद किसी ठोस मुद्दे पर कोई ठोस वायदा करने की स्थिति ही नहीं बची है, तो मोदी सरकार बस साम्‍प्रदायिक उन्‍माद फैलाने वाले झूठ और ग़लतबयानियों का सहारा ले रही है। लेकिन ‘इण्डिया’ गठबन्‍धन ठोस मुद्दों पर बात अवश्‍य कर रहा है। लेकिन वायदे ऐसे कर रहा है, जो भारतीय पूँजीवाद की आर्थिक सेहत को देखते हुए व्‍यावहारिक नहीं लगते।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तीस वर्ष

देश में एक ओर बढ़ता धार्मिक उन्माद, नफ़रत और ख़ौफ़ का माहौल और दूसरी ओर आसमान छूती महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और बदहाली, ऐसा लगता है जैसे पूरे देश को क्षय रोग ने अपने शिकंजे में कस लिया है। सारी ऊर्जा, ताज़गी और रचनात्मकता पोर-पोर से निचोड़कर इसे पस्त और बेहाल कर दिया है। यह सच है कि भयंकर आर्थिक संकट के काल में जनता के आक्रोश को साम्प्रदायिकता की दिशा में मोड़ने और पूँजीपतियों का हित साधने के लिए फ़ासीवाद का उभार होता है लेकिन ऐसा नहीं है कि फ़ासीवादियों के सत्ता में आने से पहले सब कुछ भला-चंगा था।

बन्द होती सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनियाँ सरकार की मजबूरी या साज़िश?

किसी भी देश में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उस देश की जनता के पोषण, स्वास्थ्य और जीवन स्तर का ख़याल रखे। सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की सरकारें लोगों के स्वास्थ्य का ख़याल रखने का दिखावा करती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह दिखावा भी बन्द होने लगा है। ख़ासतौर पर 1990 के दशक के बाद से सरकारें बेशर्मी के साथ जनता के हितों को रद्दी की टोकरी में फेंकती जा रही हैं। पिछले 20 साल में तो इस बेशर्मी में सुरसा के मुँह की तरह इज़ाफ़ा हुआ है और यह इज़ाफ़ा लगातार अधिक होता जा रहा है।

सरकारी उपक्रमों को कौड़ियों के मोल पूँजीपतियों को बेचने की अन्‍धाधुन्‍ध मुहिम

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने वर्ष 2021-22 के बजट में सार्वजनिक संसाधनों की अन्धाधुन्‍ध नीलामी की योजना पेश की है। महँगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त आम जनता को राहत देने के लिए बजट में कुछ भी ठोस नहीं है। बदहाल अर्थव्यवस्था और ऊपर से कोरोना की मार झेल रही जनता को राहत देने वाली कुछ बची-खुची सरकारी योजनाओं के लिए बजट बढ़ाने के बजाय इनके लिए आवंटित राशि में पिछले वर्ष की तुलना में भारी कटौती की गयी है।

उत्तर प्रदेश में रोडवेज़ कर्मचारी भी अब निजीकरण के ख़ि‍लाफ़ आन्‍दोलन की राह पर

उत्‍तर प्रदेश में योगी आदित्‍यनाथ की सरकार जहाँ एक ओर प्रदेश को हिन्‍दुत्‍व की साम्प्रदायिक-फ़ासीवादी प्रयोगशाला बनाने पर उतारू है वहीं दूसरी ओर वह सार्वजनिक उपक्रमों का धड़ल्‍ले से निजीकरण करने की योजना को तेज़ रफ़्तार से लागू करने की बेशर्म कोशिशें भी कर रही है। प्रदेश में बिजली के निजीकरण की उसकी योजना भले ही कर्मचारियों की जुझारू एकजुटता की वजह से खटाई में पड़ गयी है, लेकिन अन्‍य विभागों में निजीकरण की प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है।

आगरा में विद्युत वितरण के निजीकरण का अनुभव

उत्तर प्रदेश में मई 2009 में तत्कालीन मायावती सरकार के कार्यकाल में कानपुर और आगरा में बिजली के वितरण के निजीकरण का निर्णय लिया गया था। बिजली कर्मचारियों के विरोध के चलते कानपुर की बिजली वितरण की व्यवस्था निजी हाथों में नहीं सौंपी जा सकी। लेकिन आगरा में यह व्यवस्था लागू कर दी गयी।

उत्तर प्रदेश में बिजली के निजीकरण पर आमादा सरकार

उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारियों की जुझारू एकजुटता के आगे आख़िरकार योगी सरकार को झुकना पड़ा। गत 6 अक्टूबर को विद्युत कर्मचारी संघर्ष समिति के साथ हुए समझौते में प्रदेश सरकार को पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड का निजीकरण करने की अपनी योजना को तीन महीने के लिए टालने मजबूर होना पड़ा। निश्चित रूप से यह प्रदेश के 15 लाख कर्मचारियों की एकजुटता की शानदार जीत है। लेकिन इस जीत से संतुष्ट होकर सरकार पर दबाव कम करने से बिजली के वितरण प्रक्रिया का निजीकरण करके निजी वितरण कम्पनियों को मुनाफ़े की सौग़ात देने के मंसूबे को पूरा करने में कामयाब हो जायेगी।

‘नयी शिक्षा नीति 2020’ : लफ़्फ़ाज़ि‍यों की आड़ में शिक्षा को आम जन से दूर करने की परियोजना

छात्रों-युवाओं और बुद्धिजीवियों के तमाम विरोध को दरकिनार करते हुए दिनांक 29 जुलाई के दिन ‘नयी शिक्षा नीति 2020’ को मोदी सरकार के कैबिनेट ने मंज़ूरी दे दी है। यह शिक्षा नीति शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी निवेश को घटायेगी और देशी-विदेशी बड़ी पूँजी के लिए शिक्षा क्षेत्र के दरवाज़े खोलेगी। व्यापक मेहनतकश जनता के बेटे-बेटियों के लिए शिक्षा प्राप्त करने के रास्ते और भी संकरे हो जायेंगे।

रेलवे की बढ़ती बदहाली और निजीकरण के नये हथकण्डे

एक तरफ़ जहाँ मोदी सरकार देश में बुलेट ट्रेन लाने के शिगूफ़ छोड़ रही है, है वहीं दूसरी तरफ़ भारतीय रेल बीते 10 सालों में सबसे बुरे दौर में पहुँच गयी है। इस बात की तस्दीक नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने की है। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारतीय रेलवे की कमाई बीते दस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है।