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भाजपा शासन में चुनाव पास आते ही सरहद पर घुसपैठ क्यों बढ़ जाती है?

ज़रा सोचिए, क्यों ऐसा होता है कि जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आता जाता है और विशेषकर भाजपा सरकार को हार का ख़तरा सताने लगता है, वैसे ही देश भर में दंगों का माहौल बनना क्यों शुरू हो जाता है? क्यों चुनाव के समय ही मन्दिर और मस्जिद के नाम पर लड़ाइयाँ शुरू हो जाती हैं? क्यों ख़बरों में ऐसा आना शुरू हो जाता है कि पाकिस्तान या चीन ने देश पर हमले शुरू कर दिये हैं? और आख़िर क्यों चुनाव आते ही देश की सीमाओं पर अचानक घुसपैठ तेज हो जाते हैं, सर्जिकल स्ट्राइक की ख़बरें आनी शुरू हो जाती हैं, जिनकी कभी कोई पुष्टि नहीं की जाती और सबूत माँगना ही देशद्रोह घोषित कर दिया जाता है?

हर मोर्चे पर नाकाम मोदी सरकार, चन्द्रयान पर चढ़कर कर रही चुनाव प्रचार!

वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक श्रमिकों ने अपना काम किया, पहले की असफलता से सीखा और आगे चलकर सफलता हासिल की। यह भी ग़ौरतलब है कि जिस एचईसी (हेवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन) के मज़दूरों ने चन्द्रयान-3 को बनाया था, उनको 17 माह से मोदी सरकार ने तनख्वाह तक नहीं दी है! लेकिन चन्द्रयान-3 की सफलता का क्रेडिट लेने के लिए मोदी जी तत्काल कैमरे के सामने प्रकट हो जाते हैं, माना चन्द्रयान-3 उन्होंने ही बनाया हो!

क्या है बजरंग दल और मज़दूरों को इससे क्यों सावधान रहना चाहिए?

फैक्ट्री मालिकों, ठेकेदारों के पैसों से चलने वाले ये धर्मध्वजाधारी वास्तव में मालिकों की ही सेवा करने के लिए खड़े हैं। आज हर क्षेत्र का पुलिस प्रशासन भी ऐसे हिंसक संगठित गिरोहों को इसलिए फलने-फूलने का मौका देता है ताकि भविष्य में जुझारू मज़दूर आन्दोलन पर हमले करवा सकें या उसको कुचलने के लिए प्रतिक्रियावादी ताक़तों का इस्तेमाल कर सकें। पहले भी मज़दूर आन्दोलनों व हड़तालों पर बजरंग दल, विहिप, शिवसेना जैसे साम्प्रदायिक संगठन अपने पूँजीपति आकाओं के इशारों पर हमले करते रहे हैं, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं की हत्याएँ करते रहे हैं।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला – 14 : बेशी मूल्य का उत्पादन

यह मज़दूर वर्ग के अन्दर राजनीतिक चेतना के विकास और समाज के सांस्कृतिक व सभ्यता-सम्बन्धी विकास पर निर्भर करता है कि मज़दूर वर्ग अपने इस अधिकार के लिए किस तरह और कब लड़ता है। निश्चित तौर पर, ये दोनों कारक स्वयं ऐतिहासिक वर्ग संघर्ष पर निर्भर करते हैं। मज़दूर वर्ग जिस हद तक अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के रूप में, यानी सर्वहारा वर्ग के रूप में तब्दील कर पाता है, वह जिस हद तक अपने वर्ग के साझा हितों के प्रति सचेत हो पाता है, वह जिस हद तक समूचे पूँजीपति वर्ग को अपने शत्रु के तौर पर पहचान पाता है और वह किस हद तक पूँजीवादी राज्यसत्ता को समूचे पूँजीपति वर्ग के नुमाइन्दे के तौर पर देख पाता है, इसी से तय होता है कि वह कार्यदिवस की लम्बाई को कम करने की माँग को कैसे सूत्रबद्ध कर पाता है और किस तरह से उसके लिए लड़ पाता है। मार्क्स स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि किसी भी समाज में संस्कृति और सभ्यता के स्तर और उसमें मज़दूर वर्ग की राजनीतिक वर्ग चेतना के स्तर के आधार पर ही मज़दूर वर्ग अपने वर्ग संघर्ष को संगठित करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसी प्रक्रिया में उसकी वर्ग चेतना भी उत्तरोत्तर उन्नत होती है।

दंगे करने का अधिकार, माँग रहा है संघ परिवार! शामिल है मोदी सरकार!

नूंह में दंगे भड़काने की संघी फ़ासिस्टों की चाल को जनता की ओर से उस प्रकार का समर्थन नहीं मिला जिसकी वे उम्मीद कर रहे थे। नूंह और हरियाणा की हिन्दू मेहनतकश जनता की बहुसंख्या ने संघियों की दंगाई कोशिशों को बड़े पैमाने पर नकार दिया है। समाज का एक छोटा हिस्सा है जो केवल और केवल मुसलमानों से नफ़रत की वजह से मोदी-शाह सरकार और संघ परिवार की ऐसी चालों का समर्थन कर रहा है। यह कुल हिन्दू आबादी का भी एक बेहद छोटा हिस्सा है। स्वयं यह भी बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी से तंग है। लेकिन मुसलमानों से अतार्किक घृणा और राजनीतिक चेतना की कमी के कारण वह संघी फ़ासिस्ट प्रचार के प्रभाव में है। अभी हो रही सभी दंगाई पंचायतों में इस छोटी-सी अल्पसंख्या से आने वाले लोग ही शामिल हैं। व्यापक मेहनतकश आबादी ने ऐसी दंगाई साज़िशों को ख़ारिज किया है। इस आबादी में जो मुखर हैं और बोलते हैं, उन्होंने स्पष्ट तौर पर बोलकर हार के डर से बौखलायी मोदी-शाह सरकार की साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट चालों को नकारा है। लेकिन जो बहुसंख्यक आबादी मुखर नहीं भी है, वह मोदी सरकार और संघ परिवार की दंगाई चालों से बुरी तरह से चिढ़ी हुई और नाराज़ है।

अपराध-सम्बन्धी क़ानूनों में बदलाव के पीछे मोदी सरकार की असल मंशा क्या है?

इन नये क़ानूनों के ज़रिये मोदी सरकार अपनी फ़ासीवादी तानाशाही को एक क़ानूनी जामा पहनाने का काम कर रही है। जन प्रतिरोध के सभी रूपों को कुचल देने की मंशा से ही ये नये जनविरोधी क़ानून तैयार किये गये हैं। साथ ही, इन नये क़ानूनी बदलावों के ज़रिये पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाले अन्य निकायों जैसे कि न्यायपालिका, नौकरशाही, पुलिस, फ़ौज इत्यादि की भी क़ानूनी रास्ते से नकेल कसने की तैयारी की जा रही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय फ़ासीवादियों द्वारा लम्बे समय से इन सभी बुर्जुआ संस्थानों के भीतर घुसपैठ जारी थी और आज भी है, जिसके ज़रिये इनके द्वारा अपने लोग हर निकाय में व्यवस्थित तरीक़े से बैठाये भी गये हैं और इसलिए एक हद तक इन सभी निकायों का भीतर से फ़ासीवादीकरण करने में भारतीय फ़ासिस्ट सफल भी रहे हैं। हालाँकि अब क़ानूनी तौर पर भी इन संस्थानों का फ़ासीवादियों द्वारा अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किये जाने का रास्ते साफ़ किया जा रहा है। लेकिन इन नये बदलावों का सबसे गम्भीर और बुरा प्रभाव इस देश के मज़दूरों और आम मेहनतकाश आबादी पर पड़ने वाला है इसलिए मज़दूर वर्ग को इन बदलावों के निहितार्थ समझने होंगे और अपनी लामबन्दी इसके अनुसार करनी होगी।

दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष बुर्जुआ न्यायतन्त्र के चेहरे को भी कर रहा बेनक़ाब!

क़ानून की आँखों पर निष्पक्षता की नहीं बल्कि पूँजीपतियों-मालिकों के हितों की पट्टी बँधी हुई है। इस वर्ग-विभाजित समाज में क़ानून और न्यायपालिका का चरित्र और उसकी वचनबद्धता मज़दूरों-मेहनतकशों के पक्ष में हो भी नहीं सकती हैं। हमें इस गफ़लत से बाहर आ जाना चाहिए कि अदालतों में अन्ततोगत्वा न्याय मिलता ही है। न्याय व्यवस्था की आँख मज़दूरों के पक्ष में तभी थोड़ी खुलती है जब सड़कों पर कोई जुझारू संघर्ष लड़ा जा रहा हो। आँगनवाड़ी स्त्री-कामगारों ने अपने आन्दोलन से इस बात को चरितार्थ किया है। आँगनवाड़ीकर्मियों ने व अन्य कामगारों ने जो भी थोड़े-बहुत हक़-अधिकार हासिल किये हैं वो अपने संघर्ष के दम पर ही हासिल किये हैं। बहाली की माँग को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में चल रहे संघर्ष को भी गति देने के लिए अपने आन्दोलन को तेज़ करना ही आज एकमात्र रास्ता है।

मणिपुर में बर्बरता के लिए कौन है ज़िम्मेदार?

सबसे विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि जो मैतेयी जुझारू संगठन मणिपुर में भारतीय राज्यसत्ता द्वारा किये जा रहे राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़िलाफ़ संघर्षरत रहे हैं उनमें से भी कई कुकी आदिवासियों के ख़िलाफ़ की जा रही हिंसा में भी शामिल हैं और उसे जायज़ ठहरा रहे हैं। यह मणिपुरी क़ौम के राष्ट्रीय मुक्ति के आन्दोलन में प्रतिक्रियावाद और अन्धराष्ट्रवाद के असर को दिखा रहा है जोकि अच्छा संकेत नहीं है। सर्वहारा वर्ग उत्पीड़ित राष्ट्रों के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रगतिशील व जनवादी पहलू का समर्थन करता है और इसलिए हम मैतेयी, कुकी व नगा सहित उत्तर-पूर्व के सभी उत्पीड़ित क़ौमों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करते हैं। परन्तु हम उत्पीड़ित राष्ट्रों के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रतिक्रियावादी व अन्धराष्ट्रवादी पहलू की पुरज़ोर मुख़ालफ़त करते हैं।

हार की आशंका से घबरायी मोदी-शाह सरकार और भाजपा देश को दंगों की आग में झोंकने की तैयारी में

क्या आपने कभी सोचा है कि जब भी भाजपा चुनावों में हार की आशंका से त्रस्त होती है, उसी समय देश में जगह-जगह दंगे और साम्प्रदायिक तनाव क्यों भड़क जाते हैं? याद करें। राम मन्दिर आन्दोलन की शुरुआत और रथयात्रा की शुरुआत भी राज्यों या केन्द्र के चुनावों के ठीक पहले की गयी थी। कारगिल घुसपैठ और युद्ध भी चुनावों के ठीक पहले हुआ था। 2002 में गुजरात दंगे भी राज्य के चुनावों के ठीक पहले हुए थे। आज भी हर चुनाव के पहले धार्मिक त्योहारों को दंगे के त्योहारों में तब्दील करने के लिए आर.एस.एस. और उसकी गुण्डा-वाहिनियाँ लगी रहती हैं। इसी साल मार्च-अप्रैल में रामनवमी के मौके पर दंगे फैलाने के कारण भी लगभग एक दर्जन लोग मारे गये थे। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये मारे जाने वाले लोग कोई धन्नासेठों, मालिकों, ठेकेदारों और धनी दुकानदारों की औलादें नहीं थीं, बल्कि आपके और हमारे परिजन थे। वजह यह कि जब धर्म का उन्माद भड़काया जाता है, तो हम मज़दूरों-मेहनतकशों को उसमें प्यादों की तरह इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि हममें से कुछ लोग “धर्म की रक्षा”, “धर्म-ध्वजा रक्षा”, “धर्म का अपमान”, “राम का अपमान” जैसी बेवकूफ़ी की बातों में बह जाते हैं।

आम जनता की बदहाली और दमन के बीच जी-20 का हो-हल्ला

जी-20 शिखर सम्मेलन की आड़ में मोदी सरकार सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश क्यों कर रही है? इसका जवाब पूरी तरह तरह स्पष्ट है। अगले वर्ष 2024 में लोकसभा के चुनाव होने हैं और केन्द्र सरकार के जनता विरोधी रवैये के कारण नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता लगातार गिरती जा रही है। मोदी सरकार 2014 में “अच्छे दिन आने वाले हैं” की बात करते हुए आयी थी लेकिन अच्छे दिन मालिकों-पूँजीपतियों-अमीरों के आये, मज़दूरों के बुरे दिन चल रहे थे वह और बुरे हो गये।