अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार : पूँजीवाद के इतिहास से उपनिवेशवाद के ख़ूनी दाग़ साफ़ करने के प्रयासों का ईनाम
योगेश
साल 2024 के अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार 3 अमेरिकी अर्थशास्त्रियों को दिया गया है। नोबेल समिति के अनुसार, डैरोन ऐसमोग्लू, साइमन जॉनसन और जेम्स रॉबिन्सन को यह पुरस्कार इस विषय पर उनके शोध के लिए दिया गया है कि “विभिन्न देशों में आय के बीच अन्तर इतना बड़ा और इतना स्थायी क्यों है?”
ये और बात है कि उनके द्वारा विकसित सिद्धान्त और उसके परिणामस्वरूप उनके द्वारा दिये गये राजनीतिक नुस्खे, दोनों ही त्रुटिपूर्ण हैं। इसके बावजूद उन्हें अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार के इतिहास और उद्देश्य की निरन्तरता को जारी रखते हुए नवाज़ा गया है : उन लोगों को मान्यता देने के लिए जो जाने या अनजाने पूँजीवाद के अस्तित्व को उचित ठहराते हैं या इसे ‘कम बुरा’ बनाने के उपाय प्रदान करने का प्रयास करते हैं, कोई सुधार, कोई पैबन्दसाज़ी कर मौजूदा मानवद्रोही व्यवस्था में ही कुछ बेहतरी चाहते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आम तौर पर ऐसा ही हुआ है।
इस बार का पुरस्कार भी कुछ और नहीं बल्कि आज के समय में शासक वर्ग की शैक्षणिक और बौद्धिक आवश्यकताओं को दर्शाता है। यहाँ हम अपना ध्यान इन अकादमीशियनों द्वारा प्रस्तावित सिद्धान्त के दिवालियेपन पर केन्द्रित करेंगे और दिखलायेंगे कि न सिर्फ़ यह सिद्धान्त ऐतिहासिक तौर पर ग़लत ठहरता है बल्कि यह सचेतन तौर पर पूँजीवाद को उसके ऐतिहासिक अपराधों और करोड़ों लोगों के ख़ून से रंगे उसके हाथों को छिपाने का प्रयास मात्र है।
पुरस्कृत अकादमीशियन नव संस्थागत अर्थशास्त्र (New Institutional Economics) से आते हैं जिनका आर्थिक विकास की व्याख्या करने के लिए संस्थाओं के बीच, संस्थाओं और व्यक्तियों के बीच के परस्पर सम्बन्ध पर विशेष ज़ोर होता है। इसके अलावा इनके अनुसार आर्थिक विकास में राज्य की निष्क्रिय भूमिका नहीं होती है। यहां ‘संस्थाओं’ से तात्पर्य देश में उत्पादन के क़ायदे–क़ानूनों से है; इसमें उनका सूत्रीकरण करने वाली और उनको लागू करने वाली संस्थाएँ और सबसे महत्वपूर्ण स्वयं सरकार व उसके निकाय शामिल हैं। उदाहरण के लिए, निजी सम्पत्ति की सुरक्षा के क़ानून, अनुबन्धों की प्रवर्तनीयता, राज्य की प्रभावशीलता, आदि।
इनके अनुसार किसी भी राष्ट्र की समृद्धि उसके राजनीतिक संस्थानों का चरित्र और उनकी प्रभावशीलता पर निर्भर करती है और उस राष्ट्र की आर्थिक संस्थाएँ मूल रूप से इन राजनीतिक संस्थाओं पर निर्भर करती हैं। ये आर्थिक संस्थाएँ पलटकर उन राजनीतिक संस्थाओं को मज़बूत बनाती हैं। यानी यह एक “सुचक्र” (“virtuous cycle”) है। उनके अनुसार, यदि आर्थिक विकास का अध्ययन किया जाये तो भूगोल, तकनीक, आदि केवल एक निष्क्रिय भूमिका निभाते हैं।
इसके अलावा, वे कहते हैं कि उपनिवेशवादियों द्वारा स्थापित संस्थाएँ किस तरह की थीं, यह बात उस देश की समृद्धि में निर्णायक भूमिका निभाती है। यानी कि यदि उपनिवेशवादियों ने किसी देश या महाद्वीप में बसने की योजना बनायी तो वे वहाँ ‘समावेशी’ संस्थाएँ स्थापित करते हैं जो मुक्त प्रतिस्पर्धा, आविष्कार और निवेश सुनिश्चित करती हैं, और इनके परिणामस्वरूप आर्थिक विकास होता है। इसका उल्टा भी सच है। यदि उपनिवेशवादियों का मक़सद बसना नहीं है तो वे उपनिवेश को केवल निचोड़ने वाली संस्थाएँ स्थापित करते हैं जो अनिवार्य रूप से शोषक होती हैं और मुक्त प्रतिस्पर्धा, नवाचारों में बाधा डालती हैं और निवेश को हतोत्साहित करती हैं, इसलिए आर्थिक प्रगति बाधित होती है। यानी जहाँ कहीं यूरोपीय साम्राज्यवादी बस गये और वहाँ की मूल आबादी का उन्होंने जनसंहार करके एक ‘नया इंग्लैण्ड’, ‘नया फ्रांस’ आदि बसा लिया, वहाँ उन्होंने समावेशी संस्थाएँ बनायीं, उदार पूँजीवादी लोकतन्त्र खड़ा किया और नतीजतन वहाँ आर्थिक विकास हुआ! जबकि जिन देशों में उपनिवेशवादी स्थायी तौर पर बसे नहीं, ‘सेटल’ नहीं हुए, वहाँ बस उन्होंने उन देशों को लूटा और निचोड़ा और इस प्रकार वहाँ उसी के अनुसार निचोड़ने वाली संस्थाएँ बनायीं, नतीजतन, विकास को अवरुद्ध किया। अब आइए इस सिद्धान्त के दिवालियेपन को समझते हैं।
सबसे पहले तो उनका सिद्धान्त उपनिवेशवाद के रक्तरंजित इतिहास को साफ़ करने की कोशिश करता है। वे एक भी जगह उपनिवेशवाद द्वारा ग़ुलाम देशों के लोगों पर की गयी लूट, हत्या और अत्याचारों को ध्यान में नहीं रखते हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि पुरस्कार प्राप्त करने के बाद जीतने वाले एक अर्थशास्त्री ऐसमोग्लू ने कहा कि उपनिवेशवाद के कुकर्मों पर विचार करने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी। उपनिवेशीकरण की रणनीतियों के जो निहितार्थ थे बस उन्हीं में उनकी दिलचस्पी थी। हालाँकि अगर इस स्पष्ट स्वीकारोक्ति को छोड़ भी दिया जाये तो वैज्ञानिक व ऐतिहासिक रूप में उनका सिद्धान्त अन्य जगहों पर भी बुरी तरह विफल होता है। मसलन, उपनिवेशवाद के परिणाम उपनिवेशवादी देशों और उपनिवेशों के लिए समान या सीधे समानुपाती नहीं होते हैं। सच्चाई तो यह है कि उपनिवेशवादी देश ग़ुलाम देशों की भूमि से कच्चा माल व अन्य प्राकृतिक संसाधन लूटते हैं, वहाँ की जनता का सस्ता श्रम निचोड़ते हैं और ग़ुलाम देशों की क़ीमत पर अपने देश को समृद्ध बनाते है। इसलिए, पश्चिमी उदार लोकतंत्र वाले साम्राज्यवादी देश, जिनकी ये नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रशंसा करते नहीं थकते, उपनिवेशवाद की सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद, यानी दुनिया के तमाम देशों को गुलाम बनाकर और उन्हें लूटकर आर्थिक समृद्धि के वर्तमान स्तर पर पहुँचे हैं।
इन अर्थशास्त्रियों का शोध उत्पीड़ित और उत्पीड़क देश के लिए उपनिवेशवाद के परिणामों में अन्तर को ध्यान में नहीं रखता है। मसलन, इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि बंगाल के अकाल का ब्रिटेन और भारत पर समान प्रभाव नहीं पड़ा था। उल्टे बंगाल में अंग्रेज़ी राज के दौरान हुआ अकाल ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की उन नीतियों का परिणाम था, जिनका मकसद था भारत के श्रम व प्रकृति को लूटना और ब्रिटेन के पूँजीपति वर्ग को समृद्ध बनाना।
दूसरा, इस शोध से प्रतीत होता है मानो शोधकर्ता उपनिवेशवाद के ‘सकारात्मक’ और ‘नकारात्मक’ तत्वों की पड़ताल कर रहे हैं और ये बताने का प्रयास कर रहे हैं कि ‘अच्छे वाले उपनिवेशवाद’ के कुछ सकारात्मक भी थे! यहाँ उनका इशारा सेटलर उपनिवेशों की ओर है। यदि उपनिवेशवादियों ने बसने की योजना बनायी, जैसाकि न्यूज़ीलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया या अमेरिका जैसे सेटलर उपनिवेशों (जहाँ पश्चिमी यूरोपीय आबादी आकर बसी) में हुआ, तो उपनिवेश बनाये गये देश में आर्थिक समृद्धि होगी क्योंकि तब उपनिवेशवादी उपनिवेशित भूमि पर ‘समावेशी’ संस्थाएँ स्थापित करेंगे। दूसरी ओर, उपनिवेशवादी उन जगहों पर महज़ उस देश को निचोड़ने वाली संस्थाएँ स्थापित करते हैं जहाँ वे बसने की योजना नहीं बनाते हैं, जैसा कि भारत में या मोटे तौर पर अफ्रीका के अधिकांश हिस्सों में हुआ है। यहां ‘समावेशी’ और ‘सारवत’ का उपयोग मुक्त बाज़ार प्रतिस्पर्धा, निजी सम्पत्ति की सुरक्षा, सरकारी संरचना आदि के चरित्र व उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति को परिभाषित करने के लिए किया गया है। सेटलर उपनिवेशों की ‘समावेशी’ संस्थाएँ इन नोबेल विजेता अर्थशास्त्रियों के अनुसार, मुक्त बाज़ार प्रतिस्पर्धा, सुरक्षित निजी सम्पत्ति अधिकार, एक कारगर उदार लोकतंत्र, नवोन्मेष, आविष्कार और निवेश को बढ़ावा देती हैं, जिससे आर्थिक समृद्धि होती है। जबकि ‘सारवत’ संस्थाएँ एकाधिकारवाद, सर्वसत्तावादी सरकारें, जवाबदेही के अभाव और मनमानेपन, आदि को जन्म देती हैं जो आर्थिक विकास में बाधा डालती हैं। ये झूठे और दरिद्र सिद्धान्त न सिर्फ अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों/महाद्वीपों की मूल आबादी के भयंकर जनसंहार की सच्चाई को छिपाते हैं, बल्कि ये इज़रायल जैसे आज के हत्यारे व निरंकुश नस्लवादी शासन को भी सही ठहराती है।
यह पूरा विश्लेषण किसी देश के ऐतिहासिक विकास पर उपनिवेशवाद के असर को ध्यान में नहीं रखता है। मिसाल के तौर पर, सबसे पहली बात तो यह है कि सेटलर उपनिवेशवाद ने जहाँ कहीं भी बसावट की वहाँ की स्थानीय आबादी को लगभग मिटा दिया और अगर कुछ आबादी बच गयी तो उसे भयंकर अत्याचार और दासत्व की स्थिति में रखा। इसलिए, जो ‘समावेशी’ संस्थाएँ नये सिरे से बनायी भी गयी होंगी, वे पश्चिमी उपनिवेशवादियों द्वारा लायी गयी थीं, उन्हीं के लिए थीं और वे स्थानीय आबादी के लिए तो कम से कम ‘समावेशी’ नहीं थीं, जिनके अस्तित्व को ही समाप्त किया जा रहा था। दूसरा, इस विश्लेषण में किसी देश भी की आन्तरिक गतिशीलता को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है और बाहरी हस्तक्षेप (उपनिवेशवाद) को ग़ुलाम देश के आर्थिक विकास के लिए एक प्रेरक शक्ति के रूप में दिखाया गया है। यह न केवल आर्थिक प्रगति के लिए ग़ुलाम देशों द्वारा उपनिवेशित होने की आवश्यकता और सकारात्मकता स्थापित करने की कोशिश करता है, बल्कि उपनिवेशवादियों द्वारा उपनिवेशों पर अत्याचारों के इतिहास को मिटने का प्रयास करता है। इतिहास के सन्दर्भ में भी विश्लेषण निहायत कमज़ोर और ग़लत है क्योंकि, उदाहरण के लिए, भारत में पहले से ही पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के बीज जन्म ले चुके थे, जो कालान्तर में विकसित होते और भारत अपने रास्ते से सामन्तवाद से मुक्ति पाता, पूँजीवाद और पूँजीवादी लोकतन्त्र की ओर जाता। लेकिन जब यह प्रक्रिया शुरू ही हुई थी ठीक उसी समय ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने आक्रमण करना शुरू किया था। मुख्य रूप से किसी देश का विकास स्वयं उसकी उत्पादक शक्तियों (यानी मनुष्य, प्रकृति के बारे में उसकी जानकारी और प्रकृति को अपने उपयोग के अनुसार बदलने की उसकी क्षमता व उपकरण) और उत्पादन सम्बन्धों (इस प्रकार उत्पादन करने की प्रक्रिया में मनुष्यों के बीच बनने वाले सम्बन्ध) के अपने आन्तरिक संघर्ष से प्रेरित होते हैं। इसके अलावा, किसी देश में कौन सी संस्थाएँ हैं, यह विभिन्न दूसरे कारकों पर निर्भर करता है। ये कारक हैं किसी देश में उत्पादक शक्तियों व उत्पादन सम्बन्धों के बीच अन्तरविरोध की प्रकृति व चरण, उसके आधार पर पैदा होने वाला वर्ग संघर्ष, राजनीति, विचारधारा, संस्कृति, आदि। संस्थाएँ हवा में नहीं पैदा होती हैं। यह केवल “सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग” या बाहरी हस्तक्षेपकर्ताओं द्वारा थोपी गयी उदारता या मजबूरियों की बात नहीं है। नतीजतन, इन अर्थशास्त्रियों का समूचा विश्लेषण ही अनैतिहासिक नज़रिये से ग्रस्त है।
इसके अलावा, प्रस्तावित सिद्धान्त समाज के आर्थिक आधार और उसकी अधिरचना के बीच द्वन्द्व को समझने में विफल रहता है। यानी समाज में मौजूद उत्पादन पद्धति, उत्पादन सम्बन्ध व उत्पादक शक्तियों के बीच अन्तरविरोध और दूसरी ओर समाज में इस आर्थिक आधार पर खड़ी राजनीति, विचारधारा, कानून, संस्कृति आदि की खड़ी समूची अट्टालिका के बीच के रिश्ते के बारे में इन अर्थशास्त्रियों का सिद्धान्त उल्टा रिश्ता बिठा देता है। राजनीतिक संस्थाओं को आर्थिक संस्थाओं के मूलभूत निर्धारक के रूप में मानना न केवल सिर के बल खड़े होने के समान है, बल्कि यह इन संस्थाओं की उत्पत्ति, कारण और परिवर्तन की गति को भी तार्किक रूप में स्पष्ट नहीं कर सकता है। दूसरा, पश्चिमी उदार लोकतंत्रों के साथ हर देश की प्रगति की अनैतिहासिक तुलना करने और यह दिखलाने का उनका प्रयास कि उदार पूँजीवादी लोकतंत्र आर्थिक विकास के लिए सबसे उपयुक्त है, पूँजीवाद के भाड़े के कलमघसीट फ्रांसिस फुकोयामा के इस दावे को सिद्ध करने का एक दरिद्र प्रयास है कि पूँजीवाद मानवता के इतिहास का उच्चतम स्तर है। उनका यह तर्क कि उदार लोकतंत्र आर्थिक विकास के लिए एक पूर्वशर्त है, न सिर्फ़ सोवियत संघ (जिसमें उदार पूँजीवादी लोकतंत्र नहीं था बल्कि सर्वहारा लोकतन्त्र था) में 1917 से 1953 के बीच मज़दूर वर्ग की सत्ता की अभूतपूर्व आर्थिक सफलता की व्याख्या कर पाता है, न चीन में मज़दूर वर्ग की समाजवादी सत्ता की 1949 से 1976 के बीच भारी आर्थिक तरक्की की व्याख्या कर पाता है। बल्कि यह स्वयं उन देशों में पूँजीवादी खुली तानाशाही या सामाजिक-साम्राज्यवादी या सामाजिक फ़ासीवादी बुर्जुआ सत्ता के मातहत पूँजीवादी आर्थिक विकास की भी व्याख्या नहीं कर पाता है, जहाँ पूँजीपति वर्ग ने कोई उदार पूँजीवादी लोकतन्त्र नहीं क़ायम किया था। मसलन, 1976 के बाद का चीन (जो 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से सामाजिक-फ़ासीवादी बनने के बावजूद तेज़ी से आर्थिक विकास कर रहा था), 1930 के दशक का नात्सी जर्मनी (जिसमें फ़ासीवादी तानाशाही थी), 1960 व 1970 के दशक से ताइवान और दक्षिण कोरिया (दोनों के आर्थिक विकास की ज़मीन सैन्य तानाशाही के दौरान विकसित हुई थी)। न ही यह सिद्धान्त इस बात की व्याख्या कर सकता है कि भारत एक पूँजीवादी लोकतंत्र होने के बावजूद (चाहे इसमें कितनी भी खामियाँ क्यों न हों) आर्थिक रूप से समृद्ध चीन से पीछे क्यों है, जो एक सामाजिक-फ़ासीवादी शासन है। यहाँ तक कि अरविन्द सुब्रमण्यम् जैसे बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों ने भी भारत और चीन के आर्थिक विकास के इतिहास की व्याख्या करने में असमर्थता के लिए इस सिद्धान्त की आलोचना की है, जहाँ दुनिया की आबादी का लगभग 35% हिस्सा बसता है। साथ ही, यह सिद्धान्त तमाम देशों में उन उदार पूँजीवादी संस्थाओं के ह्रास के कारणों की व्याख्या करने में असमर्थ है जिनकी वह इतने लगाव से सराहना करता है।
अगर इसी सिद्धान्त के तर्क को आगे बढ़ाया जाये और इतिहास पर लागू किया जाये तो हम देख सकते हैं कि इस सिद्धान्त में कोई निरन्तरता नहीं है। इन अर्थशास्त्रियों का दावा है कि पर्यावरण और प्रौद्योगिकी की आर्थिक विकास में सक्रिय भूमिका नहीं होती है और उपनिवेशवादियों की बसाहट योजना एक उपनिवेशित देश में संस्थाओं के विकास और चरित्र को निर्धारित करती है। लेकिन क्या यूरोपीय उपनिवेशवादी वहीं नहीं बसे जहाँ पर्यावरण उनके अनुकूल था? और अगर, इन तीनों के अनुसार, उपनिवेशवादियों की बसाहट ही संस्थाओं की ‘समावेशिकता’ को निर्धारित करती है तो अन्ततः यह किसी देश के प्राकृतिक संसाधन, अनुकूलनीयता व श्रम संसाधन ही वे कारक हैं जो ये निर्धारित करते हैं कि देश में उदार पूँजीवाद की तथाकथित ‘समावेशी’ संस्थाएँ होंगी या नहीं, और इसके आधार पर आर्थिक विकास होगा या नहीं!
व्यापक रूप से कहें तो यह सिद्धान्त पूँजीवाद के इतिहास पर उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद के ख़ूनी धब्बों को हटाने और पूँजीवाद को उत्पादन के सबसे उपयुक्त तरीक़े के रूप में दिखलाने का प्रयास करता है। इसे साम्राज्यवादी देशों व बैंकों द्वारा वित्तपोषित अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला है, तो यह अकारण नहीं है और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
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