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यूपीएस : एनडीए सरकार द्वारा कर्मचारियों के आन्दोलन को तोड़ने की साज़िशाना और धोखेबाज़ कोशिश

यूपीएस और एनपीएस में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है। दोनों बाज़ार से जुड़ी हुई और बाज़ार पर निर्भर योजनाएँ हैं और मज़दूरों और कर्मचारियों के सेवानिवृत्ति के बाद के भविष्य को पूँजीपतियों की जुआखोरी और सट्टेबाज़ी के भरोसे कर देती हैं। ये योजनाएँ अन्ततोगत्वा बड़े कोर्पोरेट घरानों को कर्मचारियों के वेतन में कटौती के ज़रिये वित्तीय पूँजी मुहैया कराती हैं। इन दोनों ही योजनाओं से सम्मानजनक पेंशन मिलने की उम्मीद करना बेमानी ही है। इसलिए जबतक बिना कर्मचारियों द्वारा वसूले गए अंशदान पर आधारित स्थिर पेंशन देने की माँग सरकार नहीं मानती है, तब तक पेंशन की माँग को लेकर हो रहा आन्दोलन जारी रहेगा। इस आन्दोलन के दूसरे क़दम के तौर पर देश के स्तर पर सार्विक पेंशन की माँग को जोड़ना भी आवश्यक है। यह माँग संविधान द्वारा प्रदत्त जीने के अधिकार के साथ भी जुड़ती है। आन्दोलन में इस माँग के जुड़ने से ज़ाहिरा तौर पर सामान्य नागरिक भी इस आन्दोलन में शामिल होंगें।

फ़ासिस्ट मोदी-शाह सरकार के तीसरे कार्यकाल में भीड़ द्वारा हत्या (मॉब लिंचिंग) के बढ़ते मामलों का क्या मतलब है

2014 में सत्ता में क़ाबिज़ होने के बाद से मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों के परिणामस्वरूप बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी एवं सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा बढ़ी है। इन समस्याओं से त्रस्त जनता के गुस्से को फ़ासिस्ट गिरोह द्वारा किसी काल्पनिक शत्रु के मत्थे मढ़ देने का काम कुशलतापूर्वक किया जा रहा है। इस काल्पनिक शत्रु के दायरे में धार्मिक अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमान आते हैं और बाद में इस काल्पनिक दुश्मन की छवि में दलित, आदिवासी, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता व कम्युनिस्ट सभी को समेट लिया जाता है। 2014 के बाद से ही इस काल्पनिक शत्रु के श्रेणी से आने वाले लोगों को अलग-अलग तरीके से निशाना बनाया जा रहा है और इनके ख़िलाफ़ मॉब लिंचिंग की असंख्य वारदातों को अंजाम दिया गया है। पहले से ही कमज़ोर और अब फ़ासीवाद द्वारा पंगु बना दिये गये भारतीय बुर्जुआ जनवाद और उसकी संवैधानिक संस्थाओं और गोदी मीडिया के भोंपू तन्त्र के भरपूर सहयोग के बावजूद जनता के एक हिस्से में फ़ासिस्ट गिरोह की कलई उजागर हो रही है। धाँधली और तीन-तिकड़म के बाद भी गठबन्धन की बैसाखी से तीसरी बार सत्ता में पहुँचने बाद फ़ासिस्ट गुण्डा गिरोह बुरी तरह बौखलाया हुआ है। मॉब लिंचिंग सरीखे नफ़रती खेल के ज़रिये विधानसभा चुनावों में सफलता हासिल करने के जुगत में है। मज़दूर व आम मेहनतकश लोग ही ज़्यादातर मामलों में इस खेल का शिकार हो रहे हैं, हमें इस खेल की असलियत का भण्डाफोड़ करना होगा। हिटलर और मुसोलिनी के इन वंशजों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना ही होगा! वरना काठ की हाँडी बार-बार चढ़ती रहेगी।

मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के सौ दिन : गठबन्धन की तनी रस्सी पर फ़ासीवाद के नटनृत्य और जनता की जारी तबाही और बदहाली के सौ दिन

आर्थिक और राजनीतिक, दोनों ही पैमानों पर, मोदी सरकार के 100 दिन जनता के लिए ‘फ़ासीवादी दण्ड’ के जारी रहने के 100 दिन ही साबित हुए हैं, चाहे उसके प्रतीतिगत रूपों में कुछ बदलाव क्यों न आये हों। यह ‘दण्ड’ जनता को तभी मिलता है, जब उसकी जनगोलबन्दी, उसके जन संगठन और उसका क्रान्तिकारी हिरावल तैयार नहीं हो पाता है और नतीजतन आर्थिक व राजनीतिक संकट क्रान्तिकारी मोड़ लेने के बजाय एक प्रतिक्रियावादी मोड़ लेता है। इससे देश के मेहनतकशों व मज़दूरों के लिए सबक वही है: एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण और गठन के कार्य को अधिकतम सम्भव तेज़ी से आगे बढ़ाना और जनता के विभिन्न हिस्सों और वर्गों के जुझारू क्रान्तिकारी जनान्दोलनों को जनता के ठोस मुद्दों ठोस नारों व ठोस कार्यक्रम के साथ खड़ा करना। ये ही आज के प्रमुख राजनीतिक कार्यभार हैं।

भगतसिंह को पूजो नहीं, उनके विचारों को जानो, उनकी राह पर चलने का संकल्प लो!

शासक वर्ग हमेशा इस जुगत में रहता है कि जनता अपने क्रान्तिकारियों के विचारों को जानने न पाये। इसलिए वह अपनी शिक्षा व्यवस्था से लेकर, अख़बार, पत्रिकाओं, टी.वी., इण्टरनेट, सिनेमा आदि के माध्यम से विचारों की धुन्ध फैलाता रहता है ताकि मेहनतकश लोग अपनी क्रान्तिकारी विरासत को जान ही न सकें। शासक वर्ग इस कोशिश में रहता है कि जननायकों को या तो बुत बनाकर पूजने की वस्तु बना दिया जाये ताकि लोग बस उन्हें फूलमाला चढ़ाकर भूल जायें या फिर शहीदों के क्रान्तिकारी विचारों के बारे में षड़यंत्राकारी चुप्पी साध ली जाये जिससे कि लोग अपने संघर्षों के इतिहास को ही भूल जायें।

मोदी-शाह की राजग गठबन्धन सरकार का पहला बजट – मेहनतकश-मज़दूरों के हितों पर हमले और पूँजीपतियों के हितों की हिमायत का दस्तावेज़

मौजूदा बजट का मक़सद साफ़ है : संकट के दौर में पूँजीपतियों को अधिक से अधिक सहूलियतें, राहतें और रियायतें देना, निजीकरण की आँधी को बदस्तूर जारी रखना, मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश अवाम की औसत मज़दूरी व औसत आय को नीचे गिराकर उन्हें पूँजीपतियों के समक्ष अधिकतम सम्भव ज़रूरतमन्द और ग़रज़मन्द बनाना, पूँजीपतियों को करों से अधिक से अधिक मुक्त करना, सरकारी ख़ज़ाने में इससे होने वाली कमी को पूरा करने के लिए करों के बोझ को आम मेहनतकश जनता व मध्यवर्ग के ऊपर अधिक से अधिक बढ़ाना, जनता की साझा सम्पत्ति व सार्वजनिक क्षेत्र को अधिक से अधिक पूँजीवादी लूट के लिए खोलना, रोज़गार सृजन के नाम पर ऐसी योजनाओं को लागू करना जो पूँजीपतियों के लिए बेहद सस्ते श्रम के अतिदोहन को सरल और सहज बनाये।

केन्द्रीय  बजट : जनता की जेब काटकर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने का काम बदस्तूर जारी

2014 में कुल कर राजस्व में कॉरपोरेट करों का हिस्सा 34.5 प्रतिशत था जो 2024 में घटकर 26.6 प्रतिशत रह गया है। अब विदेशी कम्पनियों को दी गयी राहत के बाद कॉरपोरेट करों का हिस्सा और भी कम होगा। कम्पनियों पर लगने वाले करों में कटौती का तर्क यह दिया जाता है कि इससे निवेश बढ़ेगा और रोज़गार के नये अवसर पैदा होंगे। परन्तु पिछले 10 सालों के मोदी सरकार के कार्यकाल में कई लाख करोड़ रुपयों की राहत देने के बाद भी रोज़गार की स्थिति बद से बदतर ही हुई है। कम्पनियों को करों में छूट देने का साफ़ मतलब है कि सरकार अपनी आमदनी के लिए जनता पर करों का बोझ बढ़ाती जाएगी। वैसे भी सरकार के कुल राजस्व में जीएसटी जैसे अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है जो आम जनता पर भारी पड़ता है क्योंकि वह सभी पर एकसमान दर से लगता है और लोगों की आय से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 22 : तथाकथित आदिम पूँजी संचय : पूँजीवादी उत्पादन के उद्भव की बुनियादी शर्त

ग़रीबी का पक्षपोषण करने के लिए हर रोज़ ऐसी नीरस बचकानी कहानियाँ हमें सुनायी जाती हैं…वास्तविक इतिहास को देखें तो यह एक कुख्यात तथ्य है कि इसमें विजय, ग़ुलामी, लूट, हत्या, संक्षेप में बल-प्रयोग ने सबसे प्रमुख भूमिका निभायी। राजनीतिक अर्थशास्त्र के कोमल पूर्ववृत्तान्तों में सबकुछ हमेशा से सुखद और शान्त ही रहा है…वास्तव में देखें तो आदिम संचय के तौर-तरीक़े सुखद और शान्त के अतिरिक्त सबकुछ थे।

बंगलादेश का जनउभार और मेहनतकशों की एक क्रान्तिकारी पार्टी की ज़रूरत

राजनीतिक उथल-पुथल और विकल्पहीनता की इस स्थिति में धार्मिक कट्टरपंथी और साम्प्रदायिक ताक़तें बंगलादेश में मौजूद अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर अपनी नफ़रती राजनीति को हवा देने का काम कर रही हैं हालाँकि आन्दोलनकारी छात्रों-युवाओं-मज़दूरों ने इस साम्प्रदायिक राजनीति का सक्रिय प्रतिकार किया है। उन्होंने अल्पसंख्यक इलाक़ों में अपनी टोलियाँ बनाकर साम्प्रदायिक ताक़तों को खदेड़ने की मुहिम भी चलायी है। यहाँ इस बात को ध्यान में रखना भी ज़रूरी है कि भारत की मोदी सरकार और उसका भोंपू मीडिया यहाँ पर साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने के अपने घिनौने एजेंडे के तहत बंगलादेश में हिन्दुओं पर हमलों की घटनाओं को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है।

एक धनपशु के बेटे की शादी का अश्लील तमाशा और देश के विकास की बुलन्द तस्वीर!

यही तो होता है देश का विकास। समूचे देश के राष्ट्रवादी व देशभक्त एकजुट होकर अभी इसी शादी में लगे हुए हैं। यह एक प्रकार से इस समय राष्ट्रवादी होने का सबसे अच्छा तरीका है। जब देश में विकास अपने चरम पर पहुँच जाता है तब छोटी-मोटी समस्याएँ दिखनी बन्द हो जाती है। भगदड़ में लोग मर जाते हैं, नौजवानों को नौकरी नहीं मिल रही, सभी समान महँगे हो रहे हैं, मॉब लिंचिंग हो रही है, धर्म के नाम पर क़त्ल हो रहे हैं, आदि-आदि। विकास के चरम पर पहुँच कर यह सब मोहमाया दिखने लगता है। अम्बानी और उनके जमात के लोग और उन सबके चहेते मोदी जी देश को इसी विकास की चरम अवस्था में ले जाना चाहते हैं। और भाई यही तो समानता होती है!

एनटीए में पेपर लीक के लिए मोदी सरकार, प्रशासन और शिक्षा माफ़िया का नापाक गठजोड़ ज़िम्मेदार है

एक अनुमान के मुताबिक़ पिछले सात सालों में पर्चा लीक और परीक्षाओं में धाँधली की वजह से 1 करोड़ 80 लाख से ज़्यादा छात्र प्रभावित हुए हैं और कई छात्र अवसाद और निराशा में आत्महत्या तक के क़दम उठा रहे हैं। इतने बड़े पैमाने पर हो रही धाँधली के बाद अब तक मोदी सरकार और इसकी तमाम एजेंसियों ने जाँच के नाम पर केवल लीपापोती ही की है। हर बार ऐसी घटनाओं के बाद बयानबाज़ी और लफ्फाज़ी का दौर शुरू होता है। कुछ छोटे-मोटे कर्मचारियों, कुछ छात्रों को इसका ज़िम्मेदार ठहराकर पूरे मामले को ठिकाने लगा दिया जाता है और बहुत सफ़ाई के साथ असली अपराधियों को बचा लिया जाता है। यही वजह है कि मोदी सरकार के शासनकाल में अब तक इस मामले में न तो कोई बड़ी गिरफ़्तारी हुई है और न ही कोई कार्रवाई हुई है।