यूपीएस : एनडीए सरकार द्वारा कर्मचारियों के आन्दोलन को तोड़ने की साज़िशाना और धोखेबाज़ कोशिश

विवेक

24 अगस्त को बहुत शोर-शराबे के साथ केन्द्र सरकार ने यूपीएस यानी यूनीफ़ाइड पेंशन स्कीम को मंज़ूरी दी। केन्द्र सरकार की घोषणा के अनुसार यह स्कीम 1 अप्रैल, 2025 को लागू हो जायेगी। हालाँकि, यह स्कीम स्वैच्छिक होगी, अर्थात जो कर्मचारी अभी एनपीएस के माताहत है, वे चाहे तो यूपीएस का लाभ ले सकते है, यह उनकी इच्छा पर है। खै़र, इस स्कीम के मंज़ूर होते ही भाजपा और गठबन्धन में शामिल पार्टियों के प्रवक्ताओं से लेकर गोदी टीवी चैनलों के एंकर तक यूपीएस के फ़ायदे गिनाने में लग गये। वैसे मज़े की बात यह है कि यही लोग कुछ समय पहले तक एनपीएस के फ़ायदे गिनाते थे!

वैसे आख़िर क्या ज़रूरत आन पड़ी कि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को पेंशन स्कीम में बदलाव के लिए मजबूर होना पड़ा? इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी थी। इनकी जन-विरोधी नीतियों के कारण जनता के एक हिस्से ने तो इन्हें सिरे से ख़ारिज कर दिया था। साम्प्रदायिकता और ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ के नारे भी जनता के एक हिस्से ( जिसमें नौकरी पेशा वर्ग शामिल है) को रिझा पाने में असमर्थ साबित हो रहे थे। बहुत मुमकिन है कि जो सत्ता-विरोधी लहर (पढ़ें मोदी-विरोधी लहर) अभी देश में बनी हुई है, बहुत सम्भव है कि उसका प्रभाव आने वाले विधानसभा चुनावों में भी दिखे। इसके साथ ही देश भर में चल रहे ओपीएस आन्दोलन के प्रभाव में छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में ग़ैर भाजपा सरकारों द्वारा ओपीएस फिर से बहाल कर दी गयी थी, जिसका फ़ायदा एक हद तक इण्डिया गठबन्धन को इन लोकसभा चुनावों में पहुँचा था। इसलिए आने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी राजनीतिक ज़मीन को खिसकता हुआ देख एनडीए सरकार को पेंशन नीति की पूरी ओवरहॉलिंग करनी पड़ी। वैसे ऐसा नहीं है कि एनपीएस जबसे अस्तित्व में आयी है, तब से उसके प्रावधान स्थिर बने हुए है। समय-समय पर उसमें भी बदलाव हुए हैं। इसी साल के फ़रवरी माह में भी एनपीएस को लेकर समीक्षा बैठक भी की गयी थी। एनपीएस में सरकार द्वारा समय-समय पर किये गये परिवर्तनों के कारण एनपीएस को लेकर कर्मचारियों के बीच ऊहापोह कि स्थिति निरन्तर बनी रही। लेकिन केन्द्र सरकार द्वारा लायी गयी यूपीएस स्कीम से कर्मचारी नाखुश हैं। एनपीएस और यूपीएस में कोई बहुत विशेष अन्तर नहीं है। दोनों ही कर्मचारियों के वेतन में से अंशदान पर आधारित पेंशन योजना है, जबकि कर्मचारियों के आन्दोलन की मुख्य माँग ही यही थी कि पेंशन के लिए वेतन में से कटौती नहीं की जाये।

एक देश : तीन पेंशन स्कीम!

एक बार, देश में चल रही ‘नाना प्रकार’ की पेंशन स्कीमों की बारीकियों को समझना लेना ज़रूरी है। ओल्ड पेंशन स्कीम के तहत कर्मचारियों के वेतन से किसी भी तरह का अंशदान नहीं लिया जाता था, और पेंशन के रूप में कर्मचारी को अन्तिम आहरित वेतन और महँगाई भत्ता का 50% या सेवा के पिछले 10 महीनों में औसत कमाई, जो भी अधिक हो, वह राशि दी जाती थी। यह पेंशन स्कीम देश में मौजूद  मज़बूत कर्मचारी-मज़दूर आन्दोलन का नतीजा थी। 

वर्ष 1991 में निजीकरण व उदारीकरण की नीतियों का नतीजा था कि जो थोड़ी-बहुत जन कल्याणकारी नीतियाँ देश में मौजूद थीं, उनमें धीरे-धीरे कटौती की जाने लगी। उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के करीब डेढ़ दशक के बाद वर्ष 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने ओल्ड पेंशन स्कीम के बदले न्यू पेंशन स्कीम को मंज़ूरी दी। वर्ष 2004 के बाद सरकारी सेवा में आने के उपरान्त कर्मचारियों को इसी एनपीएस के तहत पेंशन देने की बात कही गयी। जहाँ ओपीएस में कर्मचारी को किसी तरह का अंशदान नहीं देना था, वही एनपीएस में कर्मचारी को अपने मूल वेतन का 10 फ़ीसदी इस स्कीम में देना पड़ता है, और सरकार द्वारा मूल वेतन का 14 फ़ीसदी योगदान दिया जाता है और इसकी सबसे ख़ास बात है कि यह बाज़ार से जुड़ी हुई स्कीम है! इस बिन्दु पर हम आगे आयेंगे। एनपीएस में किसी कर्मचारी को सेवा निवृत्ति के बाद कितना पेंशन मिलेगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं है।

अब सवाल यह है कि आख़िर एनपीएस के तहत पेंशन की गारण्टी क्यों नहीं है? एनपीएस के तहत कर्मचारियों से लिया गए अंशदान का बाज़ार में निवेश किये जाने का प्रावधान है। एनपीएस के तहत, कर्मचारियों को 11 सरकारी और निजी संस्थागत निवेशकों (एसबीआई, एलआईसी, यूटीआई, एचडीएफसी आदि) में से कुछ को अपनी अंशदान की गयी राशि के निवेश के लिए चुनना पड़ता है, जो पेंशन फ़ण्ड रेगुलेटरी एण्ड डेवलपमेण्ट ऑथोरिटी द्वारा नियन्त्रित होते है। ये संस्थागत निवेशक शेयर बाज़ार कॉर्पोरेट कम्पनियों में निवेश करते है या यूँ कहे सट्टा लगाते हैं। इस निवेश के ज़रिये कॉर्पोरेट के बड़े खिलाड़ी अपना मुनाफ़ा कमा सकते हैं, और इसके एवज़ में इसका एक हिस्सा संस्थागत निवेशकों (इस केस में निवेश करने वाले उपक्रमों) को लौटा सकते हैं, जो कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के उपरान्त पेंशन या एकमुश्त राशि के तौर पर मिलेगा। अगर इस क्रम में बाज़ार में मन्दी का दौर लम्बे समय तक चले तो बेशक इसका असर कर्मचारियों को दिये जाने वाले पेंशन पर पड़ेगा। यह बिल्कुल ही सम्भव है कि सेवानिवृत्ति के बाद कर्मचारी को गुज़ारे लायक पेंशन ही न मिले। कुल मिलाकर, एनपीएस स्कीम कर्मचारियों के लिए एक छलावा भर है एवं पूँजीपतियों को बड़ी मात्रा में वित्तीय पूँजी उपलब्ध कराने की ‘निन्जा टेकनीक’ है।

करीब 2 दशकों से देश भर के कर्मचारी पुरानी पेंशन स्कीम लागू करने की माँग उठा रहे थे। हालाँकि , पिछले 5 सालों में उनकी यह लड़ाई एक बार आन्दोलन का रूप ले चुकी है।  इसका मुख्य कारण देश के मौजूदा हालात हैं। महँगाई प्रतिदिन बढ़ रही है। इसके कारण एक औसत निम्न-मध्यमवर्गीय व मध्यमवर्गीय परिवार के लिए अपना ख़र्च चलाना मुश्किल हो रहा है। इसके साथ ही सरकारी और निजी क्षेत्र में घटते नौकरियों के अवसर के कारण बढ़ती बेरोज़गारी ने इस स्थिति को और विकराल बना दिया है। ज़्यादातर निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों में जिनमें कोई व्यक्ति सरकारी सेवा में था, उस व्यक्ति विशेष की सेवानिवृत्ति के उपरान्त परिवार के भरण पोषण के लिए स्थिर मासिक आय की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है, साथ ही इसकी कोई गारण्टी नहीं है कि परिवार में दूसरे व्यक्ति को पक्का रोज़गार मिल ही जायेगा। जिन व्यक्तियों ने एनपीएस का चुनाव किया है, उन्हें सेवानिवृत्ति के उपरान्त सन्तोषजनक पेंशन नहीं मिली है। ऐसे में परिवार का भरण-पोषण करना दूभर हो जायेगा। इसलिए ऐसे कर्मचारी बड़ी तादाद में इस आन्दोलन में शामिल हुए।

ओपीएस लागू करने की लड़ाई में मुख्यत: तीसरे और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारी ही शामिल थे, और यह ज़ाहिर भी था। ऊँचे दर्जे़ के कर्मचारी पहले ही कई तरह की निवेश स्कीमों व शेयर बाज़ार की सट्टेबाजी से इतना अर्जित कर चुके होते है कि पेंशन उनके लिए बहुत मायने नहीं रखती है। इसलिए यह लड़ाई मुख्यत: इन्हीं तीसरे और चतुर्थ वर्गीय कर्मचारियों की ही रही, यानी मूलत: मज़दूर वर्ग की रही। इन आन्दोलनों का ही असर था कि सरकार को मार्च, 2023 में वित्त सचिव टी वी सोमनाथन की अध्यक्षता में एक कमिटी बनानी पड़ी।  इसी कमिटी की रिपोर्ट के आधार पर यूपीएस लागू की गयी। हालाँकि ओपीएस आन्दोलन से जुड़े संगठनों  का कहना है कि सोमनाथन कमिटी ने पेंशन स्कीम में बदलाव के सम्बन्ध में कोई राय-मशविरा नहीं किया और एकतरफ़ा तरीके से यूपीएस लागू कर दी।

यूपीएस में फिक्सड पेंशन पाने के लिए किसी कर्मचारी के लिए न्यूनतम 10 साल की सेवा देना आवश्यक है, हालाँकि इस स्थिति में भी उसे केवल 10000 रु की ही पेंशन मिलेगी। वहीं अगर वह 25 साल की सेवा देगा तब वह अपने आख़िरी के 12 महीनों के वेतन के औसत का 50 फ़ीसदी पेंशन के तौर पर पाने का पात्र होगा। इस तरह तो अर्द्धसैनिक बल या अन्य सुरक्षा बलों के कर्मचारी सम्मानजनक पेंशन से महरुम हो जायेगें, चूँकि उनकी सेवा कई मामलों में 10 से 15 सालों की भी नही हो पाती है, 25 साल की नौकरी तो दूर की बात है। इसके साथ ही ऐसे कई कर्मचारी होते है, जो आरक्षित वर्ग से आते है, और जिनकी नौकरी शुरू होते-होते उनकी आयु 42 वर्ष हो होती है। ऐसे कर्मचारियों को भी यूपीएस के तहत पूरी पेंशन नहीं मिल पायेगी, क्योंकि इनकी नौकरी के 25 साल पूरे नहीं हो पायेंगे।

वैसे अभी भी यूपीएस के मसले पर और स्पष्टता आनी बाकी है, लेकिन अगर 25 अगस्त को दहिंदूबिजनेसलाइन.कॉम में प्रकाशित रिपोर्ट को आधार माना जाये तो यूपीएस योजना में पेंशन कॉर्पस को दो हिस्से में बाँटा जायेगा। पहले हिस्से में कर्मचारी का योगदान और उसके समान सरकारी योगदान जमा किया जायेगा और इस राशि को चुनिन्दा फण्डों में निवेश किया जायेगा। दूसरे हिस्से में सरकार द्वारा किये गए अतिरिक्त योगदान (मूल वेतन और डीए का 8.5 प्रतिशत) का अलग से निवेश किया जायेगा। यानी यह योजना भी बाज़ार से ही जुड़ी हुई होगी, फ़र्क सिर्फ़ इतना होगा कि इस बार एक न्यूनतम स्थिर पेंशन देने का वादा करेगी, हालाँकि इस पेंशन को पाने में भी कई पेच हैं, जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है।

क्या सरकार वाकई कर्मचारियों को सम्मानजनक स्थिर पेंशन दे पाने में अक्षम है?

वैसे जब भी आन्दोलनकारी भाजपा सरकार से ओपीएस की माँग करते थे, तब सरकार सरकारी ख़ज़ाने पर अत्याधिक बोझ की बात करती थी। केन्द्र सरकार के अनुसार पुरानी पेंशन स्कीम से सरकार के ख़ज़ाने पर दबाव पड़ता है। अन्य क्षेत्रों में विकास कार्य करने में मुश्किलें आती है। एकबारगी यह तर्क सतही तौर पर किसी को सही लग सकता है, लेकिन अगर सिर्फ़ पाँच सालों के दौरान पेश हुए केन्द्रीय बजट को देखा जाये, तो सत्य सामने आ जाता है कि सरकार जनता की गाढ़ी कमाई को कहाँ ख़र्च कर रही है?

वित्तीय वर्ष 2024 में पेंशन पर ख़र्च बजट का सिर्फ़ 5.3 फ़ीसदी रह गया है। अगले वित्तीय वर्ष 2025 के दौरान  पेंशन पर सरकारी ख़र्च बजट का केवल 5 फ़ीसदी रह जायेगा। जबकि वर्ष 2019 में पेंशन पर ख़र्च बजट का 6.9 फ़ीसदी था।जब सरकार के पास पेंशन पर ख़र्च करने को पैसे नहीं है तो फ़िर बजट में ख़र्च कहाँ हो रहा है?

बजट में चन्द पूँजीपतियों के फ़ायदे के लिए करों में छूट के लिए हर तरह के प्रावधान किए गए , वही दूसरी तरफ आम जनता पर करों का बोझ डाला गया ;

“….2022-23 और 2024-25 के बीच कर से प्राप्त होने वाली कुल आय यानी सरकार का कर राजस्व 30,54,192 करोड़ रुपये से बढ़कर 38,30,796 करोड़ रुपये पहुँच गया। कैसे? मुख्य रूप से आम मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों और मध्यवर्ग पर आयकर का बोझ बढ़ाकर। दूसरी ओर, पूँजीपतियों द्वारा दिये जाने वाले कारपोरेट कर को लगातार घटाया गया। इस बीच कारपोरेट कर कुल कर राजस्व के 29 प्रतिशत से घटकर 27 प्रतिशत रह गया। दूसरी ओर, आयकर का हिस्सा 26.8 प्रतिशत से बढ़कर 30.2 प्रतिशत और महज़ जीएसटी 27 प्रतिशत से बढ़कर 27.2 प्रतिशत हो गया। ज्ञात हो कि पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाला कर जीएसटी में शामिल नहीं है। 2022-23 में पेट्रोलियम उत्पादों से केन्द्र सरकार ने 4.28 लाख करोड़ रुपये जनता से वसूले जबकि राज्य सरकारों ने कुल 3.2 लाख करोड़ रुपये वसूले। अगर इन्हें भी जनता पर डाले गये कर बोझ में जोड़ा जाय, तो यह आँकड़ा कहीं ज़्यादा हो जाता है। वहीं दूसरी ओर, देशी और विदेशी पूँजी को लाभ पहुँचाने के लिए कुल कर राजस्व में कस्टम शुल्क से आने वाले हिस्से को भी पिछले दो वर्षों में 7 प्रतिशत से घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया गया है।…… ” (अगस्त 2024, सम्पादकीय, मज़दूर बिगुल)

जैसा कि स्पष्ट है सरकार के पास राजस्व में कोई कमी नहीं आयी है, उल्टे सरकार के राजस्व में 14.5 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है, लेकिन सरकार के ख़र्चे मे केवल 5.94 फ़ीसदी की ही वृद्धि हुई है। इस सरकारी ख़र्चे का भी अधिकांश भाग पूँजीपतियों को छूट देने में जाता है। भारत में कॉर्पोरेट टैक्स लगातार कम किये जा रहे है। वर्ष 2019 से विशेष रूप में यह नीति अपनाई जा रही है कि कॉर्पोरेट टैक्स मे कमी लाई जाये, हालाँकि यह प्रक्रिया नयी आर्थिक नीतियों के साथ 1990 के दशक में ही शुरू हो गयी थी जिसे उसके बाद आने वाली हर सरकार ने कम या ज़्यादा लागू किया। अकेले वर्ष 2021 मे कॉर्पोरेट टैक्स में कमी के कारण सरकार को क़रीब एक लाख करोड़ का बजट घाटा हुआ था। लेकिन इससे सरकारी कलमघसीट अर्थशास्त्रियों की त्यौरियाँ नहीं चढ़ीं।

कॉर्पोरेट कर में छूट देने की यह नीति आज भी अपनायी जा रही है। इसी परिपाटी को आगे बढ़ाते हुए इस बार के बजट में विदेशी कम्पनियों पर लगने वाले कर को 40 फीसदी से घटाकर 35 फ़ीसदी कर दिया गया है। साथ ही, इस बार के बजट में स्टार्ट अप कम्पनियों पर लगने वाले एंजेल टैक्स को भी ख़त्म कर दिया गया है। इन सारे तरह की कर माफ़ियों का वित्तीय बोझ अन्ततोगत्वा देश की आम जनता पर ही पड़ेगा। ये आँकड़े दर्शाते है कि मौजूदा फ़ासीवादी मोदी सरकार देशी और विदेशी पूँजीपतियों की सेवा के लिए कितनी तत्पर है।

लेकिन सिर्फ़ इतना ही नहीं बैंको के ज़रिये भी सरकार अपने पूँजीपति मालिकों की हरसम्भव सेवा करती है! लगभग हर वर्ष ही लाखों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को ऋणमाफ़ी के तौर पर दिये जाते है। अकेले सिर्फ़ 2022 – 23 में, देश के वाणिज्यिक बैंकों द्वारा क़रीब 2.09 लाख करोड़ के लोन माफ़ किये हैं। इसमें 52.3 फ़ीसदी लोन या करीब 1.9 लाख करोड़ के ऋण बड़े पूँजीपतियों के थे। वाह! आम के आम गुठलियों के दाम; एक तरफ करों में छूट तो दूसरी तरफ बैंको द्वारा दी जा रही ऋणमाफ़ी! पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी सरकार के टुकड़ों पर पालने वाले अर्थशास्त्री बताते है कि पूँजीपति देश का विकास कर रहे हैं, देश में समृद्धि का निर्माण कर रहे हैं। लेकिन ऊपर दिये गए आँकड़ों के अनुसार तो ये पूँजीपति देश पर परजीवी की भाँति बोझ बने हुए हैं।

भारत में अगर कर के ज़रिये सरकार के राजस्व आय की बात की जाये तो आयकर के तहत सरकार को प्राप्त कुल राजस्व कॉर्पोरेट कर के तहत प्राप्त कुल राजस्व से ज़्यादा हो चुका है। आयकर का एक बड़ा हिस्सा सरकारी कर्मचारियों व निजी कर्मचारियों द्वारा दिया जाता है। लेकिन इसके बावजूद सरकार देश के विकास में अपना योगदान देने वाले, सरकारी दफ़्तरों और फैक्ट्रियों में खटने वाले कर्मचारियों व मज़दूरों के प्रति बेरुख़ी दिखाती है, इनकी ही गाढ़ी कमाई का एक हिस्सा पेंशन फ़ण्ड के नाम पर कॉर्पोरेट मुनाफ़ाखोरों के हवाले कर देती है,और वेतन का जो हिस्सा बच जाता है, उस पर आयकार भी वसूल लेती है। पेंशन फ़ण्ड और आयकर के रूप मिली धन राशि को विभिन्न तरीकों से इन चन्द थैलीशाहों पर ख़र्च कर देती है। और इन कर्मचारियों को सरकार बदले में देती है बेतहाशा बढ़ती महँगाई और असुक्षित भविष्य! सेवानिवृत्ति के बाद सम्मानजनक पेंशन देने से भी सरकार अपने हाथ खींचती है।

और अन्त में…

कुल मिलाकर यूपीएस और एनपीएस में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है। दोनों बाज़ार से जुड़ी हुई और बाज़ार पर निर्भर योजनाएँ हैं और मज़दूरों और कर्मचारियों के सेवानिवृत्ति के बाद के भविष्य को पूँजीपतियों की जुआखोरी और सट्टेबाज़ी के भरोसे कर देती हैं। ये योजनाएँ अन्ततोगत्वा बड़े कोर्पोरेट घरानों को कर्मचारियों के वेतन में कटौती के ज़रिये वित्तीय पूँजी मुहैया कराती हैं। इन दोनों ही योजनाओं से सम्मानजनक पेंशन मिलने की उम्मीद करना बेमानी ही है। इसलिए जबतक बिना कर्मचारियों द्वारा वसूले गए अंशदान पर आधारित स्थिर पेंशन देने की माँग सरकार नहीं मानती है, तब तक पेंशन की माँग को लेकर हो रहा आन्दोलन जारी रहेगा। इस आन्दोलन के दूसरे क़दम के तौर पर देश के स्तर पर सार्विक पेंशन की माँग को जोड़ना भी आवश्यक है। यह माँग संविधान द्वारा प्रदत्त जीने के अधिकार के साथ भी जुड़ती है। आन्दोलन में इस माँग के जुड़ने से ज़ाहिरा तौर पर सामान्य नागरिक भी इस आन्दोलन में शामिल होंगें।

 

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2024


 

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