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भगतसिंह को पूजो नहीं, उनके विचारों को जानो, उनकी राह पर चलने का संकल्प लो!

शासक वर्ग हमेशा इस जुगत में रहता है कि जनता अपने क्रान्तिकारियों के विचारों को जानने न पाये। इसलिए वह अपनी शिक्षा व्यवस्था से लेकर, अख़बार, पत्रिकाओं, टी.वी., इण्टरनेट, सिनेमा आदि के माध्यम से विचारों की धुन्ध फैलाता रहता है ताकि मेहनतकश लोग अपनी क्रान्तिकारी विरासत को जान ही न सकें। शासक वर्ग इस कोशिश में रहता है कि जननायकों को या तो बुत बनाकर पूजने की वस्तु बना दिया जाये ताकि लोग बस उन्हें फूलमाला चढ़ाकर भूल जायें या फिर शहीदों के क्रान्तिकारी विचारों के बारे में षड़यंत्राकारी चुप्पी साध ली जाये जिससे कि लोग अपने संघर्षों के इतिहास को ही भूल जायें।

भगतसिंह को याद करेंगे – फासिस्टों को नहीं सहेंगे!

तीन चरणों में चलने वाली इस यात्रा का पहला चरण गढ़वाल क्षेत्र की घाटी और तराई क्षेत्र में चला। दूसरा चरण गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्र में चलाया गया और तीसरे चरण में कुमाऊँ के पहाड़ी व तराई क्षेत्र में चलाने के बाद देहरादून में ‘स्मृति संकल्प सभा’ के साथ इस यात्रा का समापन किया गया। इस पूरी यात्रा के दौरान व्यापक पर्चा वितरण, नुक्कड़ सभा, गोष्ठी, पुस्तक-पोस्टर प्रदर्शनी व फि़ल्म स्कीनिंग आदि की गयी।

स्मृति में प्रेरणा, विचारों में दिशा : क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा

वर्तमान परिस्थिति पर हम कुछ हद तक विचार कर चुके हैं, लक्ष्य-सम्बन्धी भी कुछ चर्चा हुई है। हम समाजवादी क्रान्ति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी ज़रूरत राजनीतिक क्रान्ति की है। यही है जो हम चाहते हैं। राजनीतिक क्रान्ति का अर्थ राजसत्ता (यानी मोटे तौर पर ताक़त) का अंग्रेज़ी हाथों में से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अन्तिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो। और स्पष्टता से कहें तो — राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रान्तिकारी पार्टी के हाथों में आना। इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा।

क्रान्तिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रान्ति से ही स्वतन्त्रता मिलेगी

एक क्रान्तिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी माँग करता है, अपनी उस माँग के पक्ष में दलीलें देता है, समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है, उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है, इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल-प्रयोग भी करता है।

स्मृति में प्रेरणा, विचारों में दिशा : असेम्बली बम काण्ड पर सेशन कोर्ट में भगतसिंह के बयान का अंश

यह भयानक असमानता और ज़बरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिये जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक क़ायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल रहे हैं।

स्मृति में प्रेरणा, विचारों में दिशा : तीसरे इण्टरनेशनल, मास्को के अध्यक्ष को तार

“लेनिन-दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिए अपनी दिली मुबारक़बाद भेजते हैं। हम अपने को विश्व-क्रान्तिकारी आन्दोलन से जोड़ना चाहते हैं। मज़दूर-राज की जीत हो। सरमायादारी का नाश हो।

स्मृति में प्रेरणा, विचारों में दिशा : विद्यार्थियों के नाम सन्देश

इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी महत्त्वपूर्ण काम है। आने वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की आज़ादी के लिए ज़बरदस्त लड़ाई की उद्घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कन्धों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतन्त्रता के इस युद्ध में अग्रिम मोर्चों पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचायेंगे?

स्मृति में प्रेरणा, विचारों में दिशा : ‘मॉडर्न रिव्यू’ पत्रिका के सम्पादक के नाम पत्र

लाहौर के स्पेशल मजिस्ट्रेट की अदालत में “इंक़लाब ज़िन्दाबाद” नारा लगाने के जुर्म में छात्रों की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ गुजराँवाला में नौजवान भारत सभा ने एक प्रस्ताव पारित किया। ‘मॉडर्न रिव्यू’ के सम्पादक रामानन्द चट्टोपाध्याय ने इस ख़बर के आधार पर “इंक़लाब ज़िन्दाबाद” के नारे की आलोचना की। भगतसिंह और बी.के. दत्त ने जेल से ‘मॉडर्न रिव्यू’ के सम्पादक को उनके उस सम्पादकीय का निम्नलिखित उत्तर दिया था। – स.

यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर शक्तिशाली व्यक्तियों का एकाधिकार रहेगा…

एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों की इस बढ़ती समाजवादी चेतना के कारण वे विदेशी और देशी पूँजीवाद के रिश्तों को समझ सकते थे। वे विदेशी पूँजीपतियों के साथ भारतीय पूँजीपति वर्ग के समझौतावादी, दलाली के सम्बन्ध को साफ़ तौर पर देख रहे थे, जो दोनों मिलकर जनता से उसका हक़ छीन रहे थे। वे मानते थे कि हिन्दुस्तान को एक वर्ग ने गुलाम बनाया है – जिसमें भारतीय और विदेशी दोनों शोषक शामिल हैं। यह समझदारी अनेक नारों और पर्चों में झलकती है जिनमें कहा गया है कि आज़ादी और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के ख़ात्मे के बीच सीधा रिश्ता है। देशी शोषकों से भी उनका सामना हुआ और उन्होंने साफ़ कहा कि जनता के हितों के लिए वे भी उतने ही ख़तरनाक हैं जितने कि विदेशी पूँजीवादी शासक।

भगतसिंह की बात सुनो!

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ाता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतन्त्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतन्त्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमाग़ी ग़ुलामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि – ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है – बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताक़़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो भी हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है।