शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के 117वें जन्मदिवस के अवसर पर
भगतसिंह को पूजो नहीं, उनके विचारों को जानो, उनकी राह पर चलने का संकल्प लो!

अरविन्द

दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जो अपना जांगर खटाकर दुनिया का सब कुछ पैदा करते हैं। इन्हीं के खून-पसीने की चमक क़ायनात की हर शै में झलकती है। इस मेहनतकश वर्ग के पास उत्पादन का कोई साधन नहीं होता और केवल अपनी श्रमशक्ति बेचकर ही यह ज़िन्दा रहता है। हर तरह की नियामतें पैदा करने के बाद भी इन्हें नसीब होती है भूख, ग़रीबी, कुपोषण और बदहाली। लुब्बे-लुबाव यह कि इस मेहनतकश वर्ग की मेहनत को लूटा जाता है इसीलिए यह वर्ग शोषित वर्ग कहलाता है। दूसरी तरह के लोग वे होते हैं जो प्रत्यक्षतः किसी भी उत्पादक कार्रवाई में भागीदारी नहीं करते, कोई मेहनत नहीं करते और दूसरों की मेहनत पर ऐश करते हैं। समाज के इस छोटे हिस्से के पास उत्पादन के तमाम साधनों का मालिकाना होता है। इस मालिकाने के बूते ही यह वर्ग मेहनतकशों की श्रमशक्ति ख़रीदता है और बदले में उन्हें केवल इतना देता है कि वे किसी तरह से अपना बस पेट भरकर अगले दिन काम पर आ सकें और अपने जैसे उजरती गुलामों की जमात को भी बढ़ा सकें। दूसरों की श्रम शक्ति यानी मेहनत को लूटकर ही यह वर्ग लोगों के दुःखदर्द के सागर में अपनी अमीरी और अय्याशी के टापू खड़े करता है। यह वर्ग शोषक वर्ग कहलाता है। उत्पादन के सभी साधनों पर इस वर्ग के मालिकानें के कारण ही इसे मालिक वर्ग भी कहते हैं। अपने मालिकाना हक़ और मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था को क़ायम रखने के लिए राज्यसत्ता का पूरा ढाँचा – जिसमें कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और तमाम तरह के निकाय शामिल होते हैं – भी इसी वर्ग की सेवा करता है। अपनी राज्यसत्ता के द्वारा ही यह मेहनतकशों के वर्ग पर शासन करता है इसीलिए इस वर्ग को शासक वर्ग भी कहते हैं।

दुनिया में हर हमेशा समाज से ऐसे लोग सामने आते रहे हैं जो लूट-खसोट और अन्याय पर टिकी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज उठाते हैं, मेहनतकश जनता को एकजुट-संगठित करने की बात करते हैं, श्रम की लूट के ख़ात्मे की बात करते हैं, व्यवस्था के आमूल-चूल परिवर्तन की बात करते हैं, यानी समाज के क्रान्तिकारी बदलाव की बात करते हैं। कई बार मेहनतकशों के लिए अपनी आवाज़ को बुलन्द करने वालों के संघर्षों और शहादतों के बावजूद शोषण-उत्पीड़न पर टिकी मालिकों की व्यवस्था बनी रहती है। विभिन्न उतार-चढ़ावों के बीच मेहनतकाश जनता अपने क्रान्तिकारी शहीदों से प्रेरणा ग्रहण करती है, अपने रोज-रोज के संघर्षों से लड़ने के नये तरीके ईजाद करती है, अपने बीच से फिर नेतृत्वकारी लोगों को पैदा करती है और शोषणकारी व्यवस्था के खि़लाफ़ बार-बार लामबन्द होती है।

शासक वर्ग हमेशा इस जुगत में रहता है कि जनता अपने क्रान्तिकारियों के विचारों को जानने न पाये। इसलिए वह अपनी शिक्षा व्यवस्था से लेकर, अख़बार, पत्रिकाओं, टी.वी., इण्टरनेट, सिनेमा आदि के माध्यम से विचारों की धुन्ध फैलाता रहता है ताकि मेहनतकश लोग अपनी क्रान्तिकारी विरासत को जान ही न सकें। शासक वर्ग इस कोशिश में रहता है कि जननायकों को या तो बुत बनाकर पूजने की वस्तु बना दिया जाये ताकि लोग बस उन्हें फूलमाला चढ़ाकर भूल जायें या फिर शहीदों के क्रान्तिकारी विचारों के बारे में षड़यंत्राकारी चुप्पी साध ली जाये जिससे कि लोग अपने संघर्षों के इतिहास को ही भूल जायें।

भगतसिंह और उनके साथियों की विचारधरा और राजनीति के प्रति आज भी समाज के बड़े हिस्से की नाजानकारी इन्हीं बात को दर्शाती है। 140 करोड़ की आबादी वाले इस देश में कितने ऐसे लोग हैं जो भगतसिंह की क्रान्तिकारी राजनीति से परिचित हैं? क्या कारण है कि भगतसिंह की जेल डायरी तक उनकी शहादत के 63 साल बाद सामने आ सकी वह भी सरकारों के द्वारा नहीं बल्कि व्यक्तिगत प्रयासों से? क्या कारण है कि आज तक किसी भी सरकार ने भगतसिंह और उनके साथियों की क्रान्तिकारी राजनीतिक विचारधारा को एक जगह सम्पूर्ण रचनावली के रूप में छापने का प्रयास तक नहीं किया?

इन सभी सवालों का जवाब एक ही है कि भगतसिंह के विचार आज के शासक वर्ग के लिए भी उतने ही ख़तरनाक हैं जितने वे अंग्रेज़ों के लिए थे। कुल 23 साल की उम्र के दहकते हुए उल्कापिण्ड जैसे उनके सम्पूर्ण क्रान्तिकारी जीवन को लोगों के सामने लाना तो दूर की बात है उल्टे कई सरकारी पाठ्यक्रमों तक में भगतसिंह को महज़ एक आतंकवादी के तौर पर पेश किया जाता रहा है। संघियों ने अपने मुखपत्रों में अलग ही तान छेड़ते हुए ऐसे झूठ का प्रचार शुरू किया कि भगतसिंह और उनके साथियों के कोई क्रान्तिकारी विचार थे ही नहीं और उनके नाम पर फ़र्ज़ी दस्तावेज़ छापे जाते हैं। जो संघी ख़ुद कभी गोरो शासकों से लड़े ही नहीं और हमेशा उनके तलवे चाटते रहे वे भला और कर ही क्या सकते हैं। लेकिन इतिहास इनके हाथ की कठपुतली नहीं है, सच्चाई आख़िरकार लोगों तक पहुँच ही जाती है।

पूरा जोर लगाने पर भी शासक वर्ग देश की जनता के हृदय से भगतसिंह और उनके साथियों के प्रेम को निकालने में नाकाम रहा है। अपनी इसी नाकामी को छुपाने के लिए तमाम चुनावी धन्धेबाज़ भगतसिंह के नाम को अपनी वोट बैंक की राजनीति के लिए भुनाने की कोशिश भी करते रहते हैं लेकिन ये उनके विचारों को कभी अपनी ज़बान पर नहीं लाते। आज जब मेहनत की लूट नंगे रूप में जारी हो, जब मेहनतकशों के हक़-हुक़ूक़ को फ़ासिस्टी बूटों से कुचला जा रहा हो, जब साम्प्रदायिक दंगे करवाकर और नफ़रत भड़काकर मेहनतकश जनता की वर्गीय एकजुटता को तोड़ने के प्रयास खुलेआम हो रहे हों तो मेहनतकश जनता के लिए अपने इस महान क्रान्तिकारी के विचारों को जानना पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है। ज़ाहिरा तौर पर, हम क्रान्तिकारी विरासत को हूबहू नहीं अपना सकते बल्कि बदले हुए हालात के अनुसार क्रान्तिकारी सार को सुरक्षित रखते हुए आज संघर्ष के तरीक़ों में बदलाव करने पड़ सकते हैं। जैसाकि ख़ुद भगतसिंह ने कहा है, हर चीज़, हर विचार को आलोचनात्मक विवेक की कसौटी पर निरख-परखकर ही अपनाना चाहिए। देश की मेहनतकश जनता के लिए भगतसिंह के विचार केवल क्रान्तिकारी धरोहर ही नहीं हैं बल्कि ऊर्जा का अजस्र स्रोत भी हैं।

भगतसिंह असल में एक व्यक्ति का नहीं बल्कि रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खाँ, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, राजगुरु आदि क्रान्तिकारियों की पूरी धारा के प्रतीक हैं। आज के समय भगतसिंह और उनकी क्रान्तिकारी धारा के विचारों को जानना न केवल दिलचस्प होगा बल्कि यह हमारे लिए बेहद ज़रूरी भी है।

हम यहाँ भगतसिंह और उनके साथियों के लेखों-बयानों से चुने हुए कुछ हिस्से पेश कर रहे हैं। इनसे आपको उनके विचारों की दिशा और उनकी ताक़त का अन्दाज़ा हो जायेगा। 

धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पा लेना चाहिए। जो चीज आज़ाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए।”

– ‘नौजवान भारत सभा लाहौर का घोषणापत्र’ से

यह भयानक असमानता और ज़बरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिये जा रहा है। यह स्थिति ज़्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहा है।”

– ‘बम कांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ से

क्रान्ति मानव जाति का जन्मजात अध्किार है जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अन्तिम लक्ष्य है। इन आदर्शों के लिए और इस विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रान्ति की इस पूजा-वेदी पर हम अपना जीवन नैवेद्य के रूप में लाये हैं, क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है।”

– ‘बम कांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ से

नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फ़ैक्टरी-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।”

– ‘विद्यार्थियों के नाम पत्र’ से

भारतीय पूँजीपति भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूँजीपति से विश्वासघात की क़ीमत के रूप में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है। इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएँ समाजवाद पर टिकी हैं और सिर्फ़ यही पूर्ण स्वराज्य और सब भेदभाव ख़त्म करने में सहायक हो सकता है।”

– ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का घोषणापत्र’ से

क्रान्ति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है। इस शताब्दी में इसका केवल एक ही अर्थ हो सकता है – जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रान्ति’, बाकि सभी विद्रोह तो सिर्फ़ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूँजीवादी सड़ाँध को ही आगे बढ़ाते हैं….भारत में हम भारतीय श्रमिकों के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयाँ, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं।”

– ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ से

युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाध्किार कर रखा है – चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति हों या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।”

– ‘फांसी से तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर के नाम पत्र’ से

लोगों को आपस में लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की ज़रूरत होती है। ग़रीब मेहनतकशों किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुक़्सान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।”

– ‘साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ से

 

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2024


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments