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हिन्दुत्ववादी फासिस्टों द्वारा दंगा कराने के हथकण्डों का भण्डाफोड़

15 अगस्त की घटना का माहौल संघ परिवार द्वारा काफी पहले से ही बनाया जा रहा था। उस दिन वहाँ भीड़ जुटाने के लिए शाहाबाद डेरी, बवाना, नरेला आदि निकटवर्ती क्षेत्रों के संघ कार्यकर्ताओं को पहले से ही मुस्तैद कर दिया गया था। संघ परिवार द्वारा योजनाबद्ध ढंग से यह सबकुछ किये जाने के मुस्लिम समुदाय के आरोप के जवाब में संघ के प्रांत प्रचार-प्रमुख राजीव तुली ने मीडिया को बताया, ‘‘ये सभी आरोप आधारहीन हैं। स्थानीय मुस्लिम मस्जिद के सामने की जगह को क़ब्ज़ा करने की फ़ि‍राक में हैं। मस्जिद अनधिकृत है। दरअसल ये लोग हमारे राष्ट्रीय झण्डे का अनादर करते हैं।” बाहरी दिल्ली के डी.सी.पी. विक्रमजीत सिंह ने भी संघ के प्रांत प्रचार प्रमुख के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि मस्जिद सरकारी ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़ा करके बना है। सच्चाई तो यह है कि होलम्बी कलां फ़ेज-2 में मौजूद कुल 28 मन्दिर भी सरकारी ज़मीन पर बिना किसी अलॉटमेण्ट या अनुमति के ही बने हुए हैं और तीन और ऐसे मन्दिर निर्माणाधीन हैं, फिर इस एक मस्जिद को ही मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है।

एक गोभक्त से भेंट / हरिशंकर परसाई

बच्चा, लोगो की मुसीबतें तो तब तक खतम नही होंगी, जब तक लूट खत्म नही होगी, एक मुद्दा और भी बन सकता है बच्चा, हम जनता मे ये बात फैला सकते हैं कि हमारे धर्म के लोगो की सभी मुसीबतों का कारण दूसरे धर्मो के लोग हैं, हम किसी ना किसी तरह जनता को धर्म के नाम पर उलझये रखेगे बच्चा।

यह समय फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई को और व्‍यापक व धारदार बनाने का है

इन आधारों पर बिहार चुनाव के नतीजों के बाद यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मतदाताओं की बहुसंख्या ने भाजपा गठबन्धन को नकार दिया है। तो क्या उसने महागठबन्धन के दलों को वास्तविक समर्थन दिया है और उनसे उसे अपने जीवन में बदलाव आ जाने की उम्मीद है? नहीं, यह सोचना भी ग़लत होगा। दरअसल, यह विकल्पहीनता का चुनाव था। मतदाता इस बारे में किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं। आधी सदी से ज़्यादा समय के तजुर्बों ने उनके सामने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि कोई भी पूँजीवादी चुनावी पार्टी उनकी आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के ढाई दशक के शासन को भी लोग अच्छी तरह से जानते हैं। लेकिन फिर भी चुनाव के समय मतदाताओं की सोच यह होती है कि जब कोई ऐसा विकल्प सामने नहीं है जो उनकी आकांक्षाओं को सही मायने में पूरा करे तो क्यों न दो बुराइयों में से कम बुराई वाले को चुन लिया जाये। महागठबन्धन का चुनाव इसी तरह कम बुराई का चुनाव था। यह लालू-नीतीश-काँग्रेस में आस्था जताना या उनकी नीतियों का समर्थन नहीं है।