उमर ख़ालिद आदि की दिल्ली हाई कोर्ट से ज़मानत रद्द किया जाना – न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण का जीता-जागता उदाहरण

प्रसेन

क़ानून की पवित्रता तभी तक रखी जा सकती है जब तक वह जनता के दिल यानी भावनाओं को प्रकट करता है। जब यह शोषणकारी समूह के हाथों में एक पुरज़ा बन जाता है तब अपनी पवित्रता और महत्व खो बैठता है।

भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा कमिशनर, विशेष ट्रिब्यूनल, लाहौर को लिखे पत्र से

किसी भी पूँजीवादी व्यवस्था में ‘क़ानून सबके लिए बराबर है’ या न्यायपालिका की निष्पक्षता का चाहे जितना ढिंढोरा पीटा जाये, लेकिन न्याय के तराज़ू का पलड़ा हमेशा शासक-शोषक वर्ग के पक्ष में झुका रहता है। लेकिन अगर सत्ता पर फ़ासीवादी हुक़ूमत क़ाबिज़ हो तो न्यायपालिका का असली चेहरा साफ़-साफ़ दिखने लगता है। फ़रवरी 2020 में दिल्ली दंगों में साज़िश के मामले के तहत पिछले पाँच सालों से जेल में बन्द उमर ख़ालिद, शरजील इमाम, खा़लिद सैफ़ी, गुलफिशा फ़ातिमा व अन्य आरोपियों के मामले में क़ानूनी प्रक्रिया भारत के न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण को चीख-चीख कर बयाँ कर रही है।

ग़ौरतलब है कि फ़रवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों (जोकि वास्तव में हर दंगे की ही तरह स्वतःस्फूर्त नहीं थे बल्कि मुसलमानों पर पूर्वनियोजित और राज्य द्वारा प्रायोजित फ़ासीवादी हमले थे) में पुलिस ने कुल 758 मामले दर्ज किये थे। इनमें से एफ़.आई.आर नम्बर 59 (साल 2020) को सबसे अहम माना जाता है। इसमें भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी), 1860 और ग़ैर क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए), 1967 की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाये गये हैं। इसके तहत ही शरजील इमाम, उमर ख़ालिद, ख़ालिद सैफ़ी सहित 18 लोगों पर 2020 के दंगों की “बड़ी साज़िश” रचने का आरोप है और उन्हें पिछले पाँच वर्षों से न्यायिक हिरासत में रखा गया है। अभी तक इस मामले में मुक़दमा भी शुरू नहीं हुआ है।

निचली अदालतों से ज़मानत की अर्ज़ी ख़ारिज होने के बाद उमर ख़ालिद व अन्य आरोपियों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में ज़मानत की अर्ज़ी दाखिल की। लेकिन 2 सितम्बर को दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली दंगों की साज़िश के मामले में उमर ख़ालिद, शरजील इमाम, खा़लिद सैफ़ी, गुलफिशा फ़ातिमा व अन्य आरोपियों की ज़मानत याचिका ख़ारिज कर दी। अन्य आरोपी जिनकी याचिका ख़ारिज हुई है, उनमें अतर ख़ान, मोहम्मद सलीम ख़ान, शिफ़ा उर रहमान, मीरान हैदर और शादाब अहमद शामिल हैं। अदालत ने अभियोजन पक्ष की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि दंगे एक “पूर्वनियोजित, सुनियोजित साज़िश” का परिणाम थे, न कि एक सहज घटना। उनके कथित भड़काऊ भाषणों को ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 की धारा 16 के तहत साज़िश के सबूत के रूप में उद्धृत किया गया। न्यायालय ने उमर ख़ालिद की इस दलील को ख़ारिज कर दिया कि लम्बे समय तक कारावास के कारण ज़मानत उचित है। न्यायमूर्ति कौर द्वारा दिये गये फ़ैसले में 3000 पन्नों के आरोपपत्र और 30,000 पन्नों के इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य का हवाला दिया गया। न्यायमूर्ति द्वारा कहा गया कि मुक़दमा “स्वाभाविक गति से आगे बढ़ रहा है” और “जल्दबाज़ी में की गयी सुनवाई” दोनों पक्षों को नुक़सान पहुँचायेगी।

इसके बाद उमर ख़ालिद समेत अन्य लोगों ने 2 सितम्बर के दिल्ली उच्च न्यायालय के उस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसमें ख़ालिद और इमाम समेत नौ लोगों को ज़मानत देने से इनकार कर दिया गया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 12 सितम्बर को ज़मानत याचिकाओं पर सुनवाई 19 सितम्बर तक के लिए स्थगित कर दी। ‘न्यू इण्डियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के मुताबिक़, जस्टिस अरविन्द कुमार और जस्टिस एनवी अंजारिया की पीठ ने कहा कि उन्हें फाइलें बहुत देर से मिलीं और वे उन्हें देख नहीं पाये।

उमर ख़ालिद, शरजील इमाम और ख़ालिद सैफ़ी के वकीलों ने हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान दलीलें दीं कि केवल वॉट्सऐप ग्रुप्स में होना, लेकिन कोई सन्देश न भेजना, किसी अपराध के दायरे में नहीं आता। दूसरे, दिल्ली पुलिस जिस बैठक को “साज़िश” रचने के लिये गुप्त बैठक के रूप में पेश कर रही है, वह बिल्कुल भी गुप्त नहीं थी। ख़ालिद सैफ़ी के वकील ने कहा कि, “क्या सामान्य सन्देशों के आधार पर, या फिर अभियोजन पक्ष की गढ़ी कहानियों के आधार पर यूएपीए लगाया जा सकता है? क्या यह ज़मानत न देने का आधार हो सकता है, या यूएपीए के तहत मुक़दमा चलाने का?” उन्होंने यह भी दलील दी कि सैफ़ी को ज़मानत दी जानी चाहिए क्योंकि तीन सह-आरोपियों को जून 2021 में ज़मानत मिल चुकी है। शरजील इमाम के वकील ने कहा कि शरजील का बाक़ी सभी सह-आरोपियों से कोई सम्पर्क नहीं था और न ही वह किसी साज़िश या गुप्त बैठकों का हिस्सा थे। क्योंकि शरजील इमाम, जनवरी 2020 से – दंगों से कम से कम एक महीने पहले से – बिहार में दिये गये भाषण के एक अन्य मामले में जेल में थे।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, जो दिल्ली पुलिस की ओर से पेश हुए थे, उन्होंने ज़मानत याचिकाओं का विरोध करते हुए कहा, “अगर आप देश के ख़िलाफ़ कुछ कर रहे हैं तो फिर बेहतर है कि आप जेल में रहें, जब तक कि या तो बरी न हो जायें या सज़ा न पा लें। उन्होंने यह भी कहा कि आरोपियों का मक़सद था कि एक ख़ास दिन दंगे-आगज़नी कराकर देश को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम किया जाये। स्पेशल सेल का दावा है कि आरोपियों का इरादा था कि ‘जब पर्याप्त संख्या में लोग जुट जायें, तो प्रदर्शन को चक्का जाम में बदला जाये’ और यह सब उस समय की योजना का हिस्सा था जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 2020 में दिल्ली आये थे। सभी आरोपी छात्र या एक्टिविस्ट हैं, जो सीएए विरोधी प्रदर्शनों को संगठित करने में सबसे आगे थे। दिल्ली पुलिस के अनुसार, इन विरोध प्रदर्शनों को संगठित करना दिल्ली में साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की एक “बड़ी साज़िश” थी।

लेकिन ‘देश के ख़िलाफ़ साज़िश रचने या हिंसा भड़काने’ का प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है? यह ज़मानत रद्द करने के फ़ैसले से कहीं नहीं पता चलता। इसमें कहा गया है कि कई मौक़ों पर उमर ख़ालिद ने भड़काऊ भाषण दिये। लेकिन ख़ालिद का “भड़काऊ भाषण” वास्तव में क्या था? यह भी फैसले में स्पष्ट नहीं है। सार्वजनिक रिपोर्टों के अनुसार, उमर ख़ालिद के भाषणों में सीएए के ख़िलाफ़ अहिंसक विरोध के गाँधीवादी तरीक़े की अपील की गयी थी। ग़ौरतलब है कि  इसके पहले हाईकोर्ट ने ख़ालिद द्वारा “इंक़लाबी सलाम” और “क्रान्तिकारी इस्तकबाल” जैसे अभिवादनों को खूनी हिंसा के आह्वान के रूप में व्याख्यायित किया था, जो कि हास्यास्पद है और न्यायपालिका के वैचारिक रुझान को भी स्पष्ट करता है।

उमर ख़ालिद आदि की ज़मानत रद्द करने के फ़ैसले का यह पैराग्राफ़ काफ़ी कुछ कहता है, “इस स्तर पर, रिकॉर्ड में मौजूद साक्ष्यों और कथित साज़िश में घटित घटनाओं को देखते हुए, प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि अपीलकर्ता (उमर ख़ालिद और शरजील इमाम) दिसम्बर 2019 की शुरुआत में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित होने के बाद सबसे पहले कार्रवाई करने वाले व्यक्ति थे, जिन्होंने व्हाट्सएप ग्रुप बनाकर और मुस्लिम आबादी वाले इलाक़ों में पर्चे बाँटकर विरोध-प्रदर्शन और चक्का-जाम का आह्वान किया, जिसमें आवश्यक आपूर्ति बाधित करना भी शामिल था। अभियोजन पक्ष आगे आरोप लगाता है कि अपीलकर्ता लगातार जनता को गुमराह करके यह विश्वास दिला रहे थे कि सीएए/एनआरसी एक मुस्लिम-विरोधी क़ानून है।”

इस पैराग्राफ से ऐसा लगता है जैसे न्यायपालिका के मुँह से सरकार बोल रही है जिसके तहत सीएए जैसे जनविरोधी क़ानून की मुखालफ़त को आपराधिक बना दिया गया और विरोध प्रदर्शनों को देश को बदनाम करने की एक “बड़ी साज़िश” के रूप में पेश किया गया। अगर इसमें देश की जगह सरकार कर दिया जाय तो बात सच्चाई के बहुत क़रीब होगी। असल में न्यायपालिका यह कह रही है कि सरकार के ख़िलाफ़ बोलना, प्रदर्शन की योजना बनाना या प्रदर्शन करना अपराध है और ऐसा अपराध जिस पर यूएपीए बनता है।

हाईकोर्ट ने यह भी माना कि सीएए/एनआरसी को मुस्लिम-विरोधी क़ानून बताना “मुस्लिम समुदाय के सदस्यों को बड़े पैमाने पर लामबन्द करने के लिए साम्प्रदायिक आधार पर भड़काऊ भाषण” देने के समान है। इस दृष्टिकोण से तो अनगिनत अन्य एक्टिविस्ट, वकील और लेखक, जिन्होंने सीएए/एनआरसी के ख़िलाफ़ बोला, लिखा, अभियान चलाया और विरोध प्रदर्शन किया, वे ‘ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम’ के तहत आतंकवादी बन जायेंगे।

धरना-प्रदर्शन और चक्का-जाम जैसे सामूहिक विरोध प्रदर्शनों की योजना को यूएपीए की धारा 15/16 के तहत “आतंकवादी कृत्य” का अपराध कैसे माना जा सकता है? इस सन्दर्भ में यह ग़ौरतलब है कि दिल्ली हाईकोर्ट ने 2021 में इस मामले में तीन सह-आरोपियों को ज़मानत देते हुए कहा था, “भले ही हम तर्क के लिए, उस पर कोई विचार व्यक्त किए बिना, यह मान लें कि वर्तमान मामले में भड़काऊ भाषण, चक्काजाम, महिला प्रदर्शनकारियों को उकसाना और अन्य कार्रवाइयों, जिनमें अपीलकर्ता कथित रूप से पक्षकार था, ने हमारी संवैधानिक गारण्‍टी के तहत स्वीकार्य शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन की सीमा को पार कर लिया, फिर भी अभी तक यह यूएपीए के तहत समझे जाने वाले ‘आतंकवादी कृत्य’ या ‘षड्यन्त्र’ या ‘आतंकवादी कृत्य की तैयारी’ के बराबर नहीं है।” लेकिन उमर ख़ालिद, शरजील इमाम और अन्य की ज़मानत के मामले में हाई कोर्ट के लिए अपने ही निर्णय का कोई मतलब नहीं। यही नहीं, हाईकोर्ट ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक मामले में दिये गये फ़ैसले तक को दरकिनार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि यूएपीए की कठोरता के बावजूद, लम्बी क़ैद संवैधानिक न्यायालय द्वारा ज़मानत देने का आधार हो सकती है। इस पर हाईकोर्ट का कहना था कि ‘ट्रायल स्वाभाविक गति से आगे बढ़ रहा है’ और इसमें जल्दबाज़ी की कोई आवश्यकता नहीं है।’

इस मामले में कई उतार-चढ़ाव आये। कई न्यायाधीशों ने ख़ुद को सुनवाई से अलग कर लिया। दंगों से कुछ समय पहले कई अन्य व्यक्तियों द्वारा दिये गये सीधे भड़काऊ भाषणों के सार्वजनिक रिकॉर्ड उपलब्ध हैं, जिनके ख़िलाफ़ दिल्ली पुलिस ने आज तक एफ़आईआर भी दर्ज नहीं की है। वजह स्पष्ट है उनको भाजपा का राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश, जिन्होंने ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज न करने के लिए पुलिस की खिंचाई की थी, अगली सुबह ही उनका तबादला हो गया!

वैसे तो आम तौर पर भी लेकिन विशेषकर फ़ासीवादी मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से न्यायपालिकाओं के अलग-अलग हिस्सों से विवादित फ़ैसले लगातार आते रहे हैं। पिछले 11 वर्षों में सामाजिक-राजनीतिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बिना किसी सबूत के वर्षों तक जेल में बन्द रखने का कीर्तिमान भारतीय न्यायपालिका द्वारा बनाया गया है। जी.एन.साईंबाबा और फ़ादर स्टैन स्वामी के मामले में भी न्यायपालिका ने अपना बेहद क्रूर चेहरा दिखाया था। अल्ज़ाइमर से पीड़ित 85 वर्ष के स्टैन स्वामी को बीमारी में बेहद बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित रखा गया था। साईंबाबा को बॉम्बे हाईकोर्ट के दो जजों द्वारा सभी आरोपों से बरी किये जाने के बाद जस्टिस एम.आर.शाह ने रातोंरात सुनवाई करके उन्हें वापस जेल भिजवा दिया था। एक ओर सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिना किसी सबूत के सालों-साल जेल में रखा जाता है, वहीं दूसरी ओर हत्यारों व बलात्कारियों को पैरोल पर पैरोल दी जाती है। बीते 5 अगस्त को ही डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को 40 दिन की पैरोल पर रिहा किया गया था। राम रहीम हत्या व बलात्कार के ज़ुर्म में उम्रक़ैद की सज़ा काट रहा है। लेकिन पिछले 8 सालों में वो सत्तरह बार जेल से बाहर आ चुका है और अब तक कुल मिलाकर 375 दिन जेल से बाहर रह चुका है।

उमर ख़ालिद, गुलफ़िशा फ़ातिमा, शरजील इमाम, आनन्द तेलतुम्बडे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता सालों से जेल में सड़ रहे हैं, लेकिन सत्ता पक्ष यानी फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार से जुड़े या संरक्षण प्राप्त दंगाइयों, बलात्कारियों-व्याभिचारियों, भ्रष्टाचारियों व हत्यारों को कोई सज़ा नहीं मिलती है। फ़र्ज़ी मुठभेड़ करवाने और करने वालों को, झूठे आरोप व साक्ष्य गढ़ने वालों को, फ़र्ज़ी मुक़दमे चलाने वालों के ख़िलाफ़ अदालतें और न्यायाधीश चूँ तक नहीं करते हैं। आडवाणी, अमित शाह, आदित्यनाथ से लेकर प्रज्ञा सिंह ठाकुर, संगीत सोम, असीमानन्द, नरसिंहानन्द, कुलदीप सिंह सेंगर “बाइज़्ज़त बरी” कर दिये जाते हैं और इनके ख़िलाफ़ दर्ज हत्याओं, दंगों, धार्मिक उन्माद फैलाने, नफ़रती भड़काऊ भाषणों के तमाम मामले रातोंरात काफ़ूर हो जाते हैं। धारा 370 हटने से लेकर तमाम सबूतों को दरकिनार करते हुए राम जन्मभूमि मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों द्वारा एकराय से लिए गये फ़ैसले ये बताते हैं कि आज भारतीय न्यायपालिका का चरित्र किस हद तक फ़ासीवादी राज्यसत्ता के वैचारिक-राजनीतिक प्रोजेक्ट के अनुसार ढलता जा रहा है। फ़ासीवाद के मौजूदा दौर में इस देश की न्यायिक व्यवस्था भी नहीं चाहती है कि उसके चरित्र को लेकर कोई भ्रम या मुग़ालता पाला जाये!

वास्तविकता यही है कि पूँजीवादी न्याय व्यवस्था का एक स्पष्ट वर्ग चरित्र है। व्यवस्था की उत्तरजीविता बढ़ाने और पूँजीपतियों, पूँजीवादी दलों, सरकारों की नंगी लूट और तानाशाही पर पर्दा डालने के लिए बीच-बीच में न्यायपालिका कुछेक आभासी और औपचारिक तौर पर जनपक्षधर फ़ैसले देती है, जिसके कारण इसके वास्तविक चरित्र को लेकर आम लोगों में भी विभ्रम बना रहता है। लेकिन आज के दौर में तो यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ हो चुकी है कि न्यायपालिका न सिर्फ़ पूँजी के हितों की सेवा कर रही है, जोकि वह आम तौर पर भी करती है बल्कि फ़ासीवादी संघ परिवार, भाजपा और मोदी-शाह के इशारों पर भी काम कर रही है। क्या कारण है कि फ़ासिस्टों के ख़िलाफ़ हर क़िस्म के राजनीतिक प्रतिरोध की ताक़तों व व्यक्तियों को क़ानूनी-संवैधानिक दायरे में औपचारिक तौर पर भी कोई राहत नहीं मिल पा रही है? स्पष्ट है कि न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण की दीर्घकालिक लम्बी प्रक्रिया अपने मुक़ाम पर पहुँच चुकी है। फ़ासीवाद के भारतीय संस्करण के उभार के लम्बे ऊष्मायन काल में भारतीय फ़ासिस्टों ने न्यायपालिका समेत तमाम बुर्जुआ संस्थानों में तफ़सील के साथ व्यवस्थित तौर पर घुसपैठ की है, जिसके परिणाम आज सभी के सामने हैं। “महान” भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र का ऐसा कोई भी निकाय आज बचा नहीं है जो फ़ासीवादीकरण की प्रक्रिया से अछूता रहा हो और यह काम भारतीय फ़ासिस्टों ने “महान” भारतीय संविधान से बिना किसी प्रत्यक्ष छेड़छाड़ के अंजाम दिया है।

वकील और पत्रकार सुशोवन पटनायक ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट में तथ्यों सहित इस बात को साबित किया कि किस प्रकार 1992 से ही संघ परिवार ने न्यायालय में घुसपैठ की योजना को अमल में लाना शुरू किया था। 7 सितम्बर 1992 को आरएसएस के प्रचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने ‘एबीएपी’ (अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद) की स्थापना की थी। 15000 सदस्य संख्या वाले इस परिषद के सदस्य बार एसोसिएशनों का नेतृत्व करते हैं, इसके संरक्षक बेंचों पर बैठते हैं और उनके बच्चे सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही की अगुवाई करते हैं। सुप्रीम कोर्ट के 33 मौजूदा जजों में से कम से कम 9 ने परिषद के एक से ज़्यादा कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में भाग लिया है। फ़ासिस्टों ने बहुत योजनाबद्ध तरीक़े से न्यायपालिका में संस्थाबद्ध घुसपैठ, लाभ/पद/प्रलोभन, और भय (तबादला/पदावनति/ जस्टिस लोया जैसा हश्र) के ज़रिये देश की अन्य संस्थाओं की तरह न्यायपालिका पर भी अपनी मज़बूत पकड़ बना ली है।

ऐसे हालात में आज इस देश के मज़दूरों-मेहनतकशों और हर इन्साफ़पसन्द नागरिक को न्यायिक व्यवस्था, क़ानून-संविधान के जन-विरोधी चरित्र को समझना होगा। न्यायपालिका से लेकर पूरी पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए नहीं है। यह भ्रम जितनी जल्दी टूटेगा उतनी ही जल्दी सच्चे न्याय और सच्ची समानता पर आधारित व्यवस्था स्थापित और बहाल करने की लड़ाई शुरू की जा सकेगी और फ़ासीवाद के विरुद्ध भी कोई कारगर जुझारू मोर्चा खुल पायेगा। अन्यथा न्यायपालिका व पूँजीवाद से न्याय की “उम्मीद” हमें हताशा और निराशा के गड्डे में धकेल देगी। साथ ही जेल में बन्द सभी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए भी पुरज़ोर आवाज़ उठानी होगी और अपने जनवादी अधिकारों को बचाने के लिए जन-आन्दोलन खड़ा करना होगा।

भगत सिंह और उनके साथियों के शब्दों में कहें तो

हम वर्तमान ढाँचे के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के पक्ष में हैं। हम वर्तमान समाज को पूरे तौर पर एक नये सुगठित समाज में बदलना चाहते हैं। इस तरह मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण असम्भव बनाकर सभी के लिए सब क्षेत्रों में पूरी स्वतन्त्रता विश्वसनीय बनायी जाये। जब तक सारा सामाजिक ढाँचा बदला नहीं जाता और उसके स्थान पर समाजवादी समाज स्थापित नहीं होता, हम महसूस करते हैं कि सारी दुनिया एक तबाह कर देने वाले प्रलयसंकट में है।

(‘अदालत एक ढकोसला हैसे)

 

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2025

 

 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन