देशभर में बाढ़, बादल फटने, भूस्खलन और जलभराव की मार झेलती मेहनतकश अवाम!
जनता पर पड़ी इस आपदा के लिए केन्द्र की मोदी सरकार, राज्य सरकारें और समूची पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है!
अरविन्द
मौजूदा मानसून सत्र भारत के विभिन्न इलाक़ों के लोगों पर पहले से भी कहीं बड़े कहर के रूप में टूटा है। देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जन-जीवन बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया है। उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, मिजोरम आदि के पहाड़ी क्षेत्रों में बादल फटने व भूस्खलन के कारण सड़कें-इमारतें व बस्तियाँ धराशायी हो गयीं। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, आन्ध्रप्रदेश, असम, मिजोरम आदि जैसे क्षेत्रों में नदियाँ-नहरें अपने तटबन्धों को तोड़कर रिहायशी क्षेत्रों में घुस गयी। जलनिकासी की दुर्व्यवस्था के चलते बारिश का पानी सीवरेज के पानी के साथ मिल गया और लोगों की रसोई तक घुस गया। आकाशीय बिजली और आँधी-तूफान भी जान-माल के नुकसान का कारण बने। कई इलाक़ों के शहर-गाँव, खेत-खलिहान बाढ़ और जलभराव से बुरी तरह ग्रसित हो गये।
‘डाउन टू अर्थ’ नामक संस्था के अनुसार मौजूदा मानसून सत्र में बाढ़, बारिश व बादल फटने और जलभराव जैसी स्थिति के कारण अब तक 3,500 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। लाखों लोगों के घर डूब गये और उन्हें विस्थापित होने को मज़बूर होना पड़ा। इस दौरान लाखों हेक्टेयर खड़ी फसल पानी में समा गयी और लोगों के पालतू पशु तक बाढ़ में बह गये। बहुतों की उम्र भर की कमाई कुछ ही क्षणों में ख़त्म हो गयी। अब अगर बाढ़ का पानी उतर भी जायेगा तो भी निचले इलाक़ों से इसके सूखने में ख़ासा वक़्त लगेगा। बारिश के मौसम में आम होने वाली डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, हैज़ा, टायफ़ाईड और पीलिया जैसी बीमारियाँ बाढ़ग्रस्त इलाक़ों में और भी ख़तरनाक ढंग से फ़ैलती हैं।
मोदी सरकार और राज्य सरकारें समय रहते चेत जातीं, बाँधों और नहरों के बीच सही सामंजस्य होता, जल निकासी और ‘सीवरेज सिस्टम’ की उचित व्यवस्था होती और पर्यावरण को इस क़दर तबाह न किया गया होता तो बिल्कुल मुमकिन था कि विनाश के मौजूदा ताण्डव को घटित होने से रोका जा सकता था या जान-माल के नुकसान को कई गुणा तक कम किया जा सकता था।
आज जब देश के करोड़ों लोग जान-माल का भारी नुकसान झेल रहे हैं तब प्रधानमन्त्री मोदी पूँजीपतियों के प्रतिनिधि के तौर पर अलग-अलग देशों में टहल रहे हैं और बिहार के अपने चुनावी प्रचार में मशगूल हैं। उदाहरण के लिए पंजाब में बाढ़ के भयंकर हालात के दौरान जब मोदी जी को अपनी फजीहत होती दिखी तो एक चक्कर यहाँ का लगा आये। और यहाँ भी उन्होंने आँकड़ों की बाजीगरी के अलावा कुछ भी नया नहीं किया। मुर्गी-बकरी तक के नुकसान की भरपाई के वायदे करने वाले पंजाब के लफ़्फ़ाज़ मुख्यमन्त्री भगवन्त मान और उनकी पार्टी के लोग ज़रूरत के समय लोगों को नज़र भी नहीं आये। पूरे देश में ही कमोबेश यही स्थिति रही। अब बाढ़ के बाद जारी हुई राशि की बन्दरबाँट कर ली जायेगी और बहुसंख्यक आम लोग मदद के लिए तरसते रह जायेंगे। फाइलों में बैठे बड़े अफसर और बड़े नौकरशाह नामक चूहे मोटे होते जा रहे हैं और जनता का हाल पूछने वाला कोई नहीं है।
शासन-सत्ता की प्राथमिकता में यदि आम लोगों की ज़िन्दगियाँ होती तो समय रहते स्थिति को सम्भाला जा सकता था। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों को आडम्बरों से ही फ़ुरसत नहीं है। फ़ासीवादी मोदी सरकार से तो जनता का ख़याल रखने की उम्मीद ही आकाश कुसुम की अभिलाषा के समान है। इसे अदानी-अम्बानी जैसे धनपशुओं की तिजोरियाँ भरने और जनता को जाति-धर्म के नाम पर लड़ाने की नयी-नयी तरकीबें भिड़ाने से ही फ़ुर्सत नहीं है। हर बार की तरह इस मानसून सत्र ने भी यह साफ़ कर दिया है कि देश में जल निकासी और सीवरेज व्यवस्था किस कदर ख़स्ताहाल हैं। देश में बाढ़-सूखा और बीमारी जनता के जीवन को लील जाते हैं और टैक्स के रूप में हमसे ही लूटे गये पैसे को भ्रष्टाचार, नेताओं-नौकरशाहों और धन्नासेठों की अय्याशियों में उड़ा दिया जाता है। ऐसे हाल में बेबस लोग अपने ही डूबते घरों, जलमग्न फसलों और बिछुड़ते परिजनों को डबडबायी आँखों से देखते रह जाते हैं। मौजूदा मानसून सत्र के दौरान मची तबाही के बीच पंजाब, हरियाणा सहित देश के तमाम क्षेत्रों के लोग यदि अपना कुछ बचा पाये हैं तो वह ज़्यादातर एक-दूसरे की मदद के दम पर ही सम्भव हो पाया है।
बाढ़, भूस्खलन और अत्यधिक बारिश के कारण मची वर्तमान त्रासदी का कारण जलवायु परिवर्तन है और स्वयं इसका कारण सरकारों की जनविरोधी नीतियाँ और मुनाफ़े पर आधारित पूरी पूँजीवादी व्यवस्था है। जलवायु परिवर्तन के पीछे सबसे बड़ा कारण कुदरत की भयंकर लूट और पर्यावरण का विनाश है। अनियोजन, अराजकता और असमान विकास पूँजीवादी व्यवस्था के चारित्र में ही निहित होते हैं। मुट्ठीभर धन्नासेठों के मुनाफ़े की ख़ातिर जंगलों की कटाई, पहाड़ों का विनाश, अनियोजित उत्पादन और प्रदूषण ने पर्यावरण के पूरे तानेबाने को बिगाड़ कर रख दिया है। बेमौसमी बारिश, सूखा, बाढ़, आदि इसी के लक्षण हैं। पेड़ों और पहाड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई के कारण बारिश का पानी भूस्खलन के साथ इमारतों और सड़कों को तहस-नहस करता हुआ बहुत तेज़ी के साथ नीचे आता है। सरकारी लापहरवाही और अफ़सरशाही के जनविरोधी चरित्र के कारण बाँधों और नहरों के बीच बिलकुल भी सामंजस्य नहीं है। पहाड़ों से उफ़नती नदियाँ बाँधों तक पहुँचकर उन्हें तोड़ डालती हैं या फिर बाँधों में एकत्रित हुए बेशुमार पानी को आनन-फ़ानन में नदियों और नहरों में छोड़ दिया जाता है। पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, कर्नाटक आदि राज्यों में बाढ़ का बड़ा कारण बाँधों और बैराजों से छोड़ा गया अतिरिक्त पानी भी रहा। बाँधों और बैराजों का निर्माण ही इसलिए किया गया था ताकि बारिश और नदियों के पानी को नियन्त्रित और नियोजित किया जा सके लेकिन पूँजीवादी अनियोजन व अराजकता और नौकरशाही के निकम्मेपन के कारण रक्षक ने ही भक्षक का रूप ले लिया है। मौसमी नदियों और जलस्रोतों के किनारे अनियोजित निर्माण और अत्यधिक खनन के चलते बहुत संकरे हो जाते हैं जिसके कारण वे ज़्यादा पानी सम्भाल नहीं पाते। परिणामस्वरूप बारिश के समय ये किनारों को तोड़कर बस्तियों को निगल जाते हैं। बाढ़ के दौरान कृषि भूमि पर जलभराव का एक बड़ा कारण पेड़ों और वनस्पतियों को नष्ट करके खेती पर अत्यधिक दबाव डालने के चलते मिट्टी की ऊपरी परत का सख़्त होना भी होता है जिसे मिट्टी का ‘कम्पेक्शन’ कहते हैं। इसके लिए भी पूँजीवादी मुनाफ़ा आधारित खेती ही ज़िम्मेदार है।
कैसी विडम्बना है कि देश के कुछ इलाक़ों के लोग तो सूखे से मरते हैं और कुछ इलाक़ों के लोग बाढ़ से तबाह हो रहे हैं। कौन सा ऐसा मौसम नहीं होता जो जनता पर कहर बनकर नहीं टूटता। बारिश के मौसम में बाढ़, गर्मी में लू और ठण्ड में शीत लहर के कारण लोग काल का ग्रास बनते हैं। विज्ञान-तकनीक और उत्पादन के विकास का फ़िलहाल जो स्तर है उसके चलते यह बिलकुल सम्भव है कि लोग हरेक मौसम का सुरक्षा के साथ आनन्द ले सकते हैं। लेकिन मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था ने मौसम का आनन्द भी पैसे वालों के लिए ही सीमित कर दिया है। मुट्ठीभर आबादी तो अपने फार्म हाउसों और साधन सम्पन्न घरों के लॉन और बालकनियों में बैठकर बारिश के मज़े लेती है लेकिन देश के करोड़ों मेहनतकश आम लोग बारिश में दुश्वारियाँ झेलने को मजबूर होते हैं। बारिश का पानी सीवरेज के गन्दे पानी के साथ मिलकर लोगों की रसोइयों तक पहुँच जाता है, पीने का पानी दूषित हो जाता है, कमर तक के बदबूदार पानी से होकर लोग काम पर जाते हैं, बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है, बीमारियाँ फैलती हैं और आम जनता का जीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाता है। एक ओर तो देश अन्तरिक्ष में चन्द्रयान भेज रहा है लेकिन दूसरी ओर ठीक इसी समय देश के करोड़ों लोग भोजन-पानी-आवास जैसे जीवन जीने के बुनियादी साधनों तक से वंचित हैं। क्या यह जनता के जीवन के अधिकार पर हमला नहीं है?
हमें यह बात समझनी होगी कि मौजूदा मानसून के दौरान पैदा हुई विभीषिका कुदरत का कोई कहर नहीं है बल्कि इसके लिए केन्द्र और राज्य सरकारों की घोर लापरवाही और इनकी पूँजीपरस्त जनविरोधी नीतियाँ सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं। पहली बात, पर्यावरण संरक्षण, नदी-नालों-बाँधों-बैराजों का सामंजस्य व उचित प्रबन्धन, बेहतर जल निकासी व्यवस्था आदि काम सरकारों के हैं। सरकारें यदि इन्हें करने में नाकाम रहती हैं तो हमें यह काम करवाने के लिए एकजुट होकर इन्हें घेरना चाहिए। वे देश जहाँ की जनता अपेक्षाकृत जागरूक है और पस्ती और निराशा के बजाय जो संघर्ष का रास्ता चुनती है वहाँ पर लोग सरकारों के घुटने टिकवाकर अपनी कुछ माँगे मनवाने में कामयाब भी हो जाते हैं। हम भी यदि जागरूक और संगठित होंगे तो कम से कम उन चीज़ों को तो हासिल कर ही सकते हैं जिन्हें इस पूँजीवादी व्यवस्था के रहते हुए भी हासिल किया जा सकता है।
निश्चय ही जनता को अपनी समस्याओं से पूरी तरह से मुक्ति तो मौजूदा मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था के ध्वंस और एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था के निर्माण के साथ ही मिल सकती है। विज्ञान की प्रगति आज जिस स्तर पर है (हालाँकि पूँजीवादी मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था हमेशा इस प्रगति को बाधित करती रहती है) वहाँ इन समस्याओं का सहज तरीके से समाधान किया जा सकता है, बशर्ते कि व्यवस्था के केन्द्र में मुनाफ़ा न हो और विज्ञान का प्रयोग बस अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने के उपकरण के रूप में न किया जाय। हमारा शोषण करके और हमारे टैक्स के पैसे पर गुलछर्रे उड़ाने वाले धनपशुओं-नेताओं और नौकरशाहों से हमें ज़रूर ही एक-एक पाई का हिसाब लेना चाहिए। सरकारों की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ़ संगठित होकर आवाज़ उठाना हमारे ज़िन्दा होने का सबूत है। दूसरी बात, हमें अपने रोज़-रोज़ के संघर्षों को संगठित करते हुए भी पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को भी समझना चाहिए। इन्सानी श्रम के शोषण और कुदरत की लूट पर टिकी मौजूदा मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था हमें अराजक व अनियोजित विकास यानी आम जनता के लिए विनाश, गैर-बराबरी, शोषण और बरबादी के अलावा और कुछ नहीं दे सकती है। इसलिए इसके विकल्प के बारे में भी हमें शिद्दत से विचार करना होगा। चन्द धन्नासेठों के मुनाफ़े की अन्धी हवस पूरी मानवता को मौत के मुँह में धकेल रही है। जब तक हम नहीं जागते मौत का यह ताण्डव तब तक जारी रहेगा। एक मानवकेन्द्रित, शोषणरहित और समानतामूलक व्यवस्था ही हमारी मौजूदा समस्याओं का समाधान कर सकती है।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2025














