Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

वाराणसी में फ्लाईओवर गिरने से कम से कम 20 लोगों की मौत

वस्तुतः इन घटनाओं की आम वजह सरकार, अफ़सरों और ठेकेदार की लूट की हवस है। तमाम सूत्रों से पता चला कि सेतु निगम ने इस पुल का काम मन्त्रियों के क़रीबियों को बाँटा जिस पर 14% कमीशन लिया गया। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि सेतु निगम (यही संस्था इस पुल का निर्माण कर रही है) के प्रबन्ध निदेशक राजन मित्तल का इस हादसे के बाद बयान आया कि पुल आँधी की वजह से गिरा। यह वही व्यक्ति है जिस पर पहले भी भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं, और इसके खि़लाफ़ जाँच के आदेश भी हुए हैं। लेकिन भाजपा सरकार ने न सिर्फ़ इस आदमी को सेतु निगम का अध्यक्ष बनाया, बल्कि इसे उत्तर प्रदेश निर्माण निगम का अतिरिक्त भार भी सौंप दिया। इतना ही नहीं, हादसे के बाद गिरे हुए कंक्रीट के बीम को उठाने के लिए सेतु निगम ने कम्प्रेशर क्रेन तक उपलब्ध नहीं करवायी, जिस वजह से बचाव का काम बहुत देर से शुरू हो पाया और इसी वजह से कई जानें जो बच सकती थी, वे नहीं बचायी जा सकीं।

”गुजरात मॉडल” का ख़ूनी चेहरा: सूरत का टेक्सटाइल उद्योग या मज़दूरों का क़त्लगाह!

रिपोर्ट के अनुसार ये आँकड़े सूरत के टेक्सटाइल कारखानों में पेशागत स्वास्थ्य और सुरक्षा के हालात की बेहद चिन्ताजनक तस्वीर पेश करते हैं। दुर्घटनाओं के कारणाों पर नज़र डालें तो 2012 और 2015 के बीच हुई 121 घातक दुर्घटनाओं में से 30 जलने के कारण हुईं जबकि 27 बिजली का करण्ट लगने से हुईं। 23 दुर्घटनाओं का कारण ‘’दो सतहों के बीच कुचलना’’ बताया गया है। कारखानों की भीतरी तस्वीर से वाकिफ़ कोई भी व्यक्ति इसका मतलब समझ सकता है। इसके अलावा बहुत सी मौतें दम घुटने, ऊँचाई से गिरने, आग और विस्फोट, मशीन में फँसने, गैस आदि कारणों से हुई हैं। ज़्यादातर दुर्घटनाएँ जानलेवा क्यों बन जाती हैं इसका कारण कारखानों की हालत से जुड़ा हुआ है। रिपोर्ट में दिये गये एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। सूरत के सूर्यपुर इंडस्ट्रियल एस्टेट में अश्विनी कुमार रोड पर एक पावरलूम यूनिट में 3 अक्टूबर 2015 को सुबह 11.45 बजे आग लगी।

दिल्‍ली के मौत के कारख़ानों का कहर जारी : अब नवादा की क्रॉकरी फैक्ट्री में आग लगने से कम से कम 3 मज़दूरों की मौत

दिल्ली के तमाम औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों के हालात बेहद खराब है। सभी श्रम क़ानूनों को ताक पर रख कर मज़दूरों से अमानवीय परिस्तिथियों में काम करवाया जाता है और उन्हें जानभूझ कर मौत के मुँह में धकेला जाता है। बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ता नवादा के मज़दूरों की इस हड़ताल में शुरू से शिरकत कर रहे हैं। बिगुल के साथी अनंत ने बताया कि अब तक इस आग में जल कर मरने वाले मज़दूरों के फैक्ट्री मालिक को गिरफ़्तार तक नहीं किया गया है उल्टा जब से मज़दूर फैक्टरियों के बाहर इकठ्ठा हो रहे हैं तब से वहाँ अधिक संख्या में पुलिसबल तैनात किया जा रहा है और मज़दूरों की हड़ताल को तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। ज़्यादातर मज़दूरों के पास कोई पहचान पत्र तक नहीं है और न ही इलाके की किसी भी फैक्ट्री में न्यूनतम वेतन दिया जाता है। लगभग 500 मज़दूर अभी भी फैक्टरियों के बाहर है और अपने अधिकारों के लिए लड़ रहें हैं।

दिल्ली के बवाना औद्योगिक क्षेत्र में फ़ैक्ट्री की अाग में मज़दूरों की मौत

कहने के लिए तो दिल्ली में पटाखा प्रतिबन्धित है, पर इस प्रकार के अवैध कारख़ाने पूरी दिल्ली में चल रहे हैं। बवाना की बात करें तो पूरे बवाना में ही 80% कारख़ाने बिना पंजीकरण के चल रहे हैं। सब अवैध काम दिल्ली सरकार व श्रम विभाग के अधिकारियों की नाक के नीचे होते हैं। इससे ही जुड़ी दूसरी बात है कि आज जहाँ मज़दूर काम करते हैं, वहाँ सुरक्षा के उपकरणों की क्या स्थिति है, इसकी जाँच-पड़ताल का काम श्रम विभाग का है पर श्रम विभाग के इंस्पेक्टर व अधिकारी फ़ैक्टरियों में आते ही नहीं, वहीं कभी-कभी आते भी हैं तो सीधा मालिक के मुनाफ़े का एक हिस्सा अपनी जेब में डालकर चले जाते हैं।

फैक्ट्रियों के अनुभव और मज़दूर बिगुल से मिली समझ ने मुझे सही रास्ता दिखाया है

यह साफ़ था कि हमारे हाथ में कुछ नहीं था और हम लोग मानसिक रूप से परेशान रहने लगे। इस प्रकार अपना हुनर चमकाने और इसे निखारने का भूत जल्द ही मेरे सिर से उतर गया। मेरा वेतन 8,000 रुपये था किन्तु काट-पीटकर मात्र 6,800 रुपये मुझे थमा दिये जाते थे। मानेसर जैसे शहर में इतनी कम तनख़्वाह से घर पर पैसे भेजने की तो कोई सोच भी नहीं सकता, अपना ही गुज़ारा चल जायेे तो गनीमत समझिए, बल्कि कई बार तो उल्टा घर से पैसे मँगाने भी पड़ जाते थे।

कानपुर में निर्माणाधीन इमारत गिरने से कम से कम 10 मजदूरों की मौत

आये दिन निर्माण कार्य में होने वाली दुर्धटनाओं में मजदूरों की मौतें होती रहती हैं। कभी कांट्रैक्टर की लापरवाही के कारण तो कभी मालिक द्वारा हड़बड़ी में और अवैध तरीके से काम करवाए जाने के कारण। लेकिन मज़दूरों को मुआवजे के नाम पर मिलती है केवल प्रशासन और राजनेताओं के झूठे वादे और दर-दर की ठोकरें। ज़रा सोचिये, अगर कोई हवाई जहाज दुर्घटना हुई होती तो यह मामला कई दिनों तक राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहता और सभी मरने वालों और घायलों के लिए लाखों रुपयों के मुआवजे का ऐलान हो चुका होता। लेकिन इस व्यवस्था में ग़रीबों और मज़दूरों की जान सबसे सस्ती है।

अधिक से अधिक मुनाफ़़ेे के लालच में मज़दूरों की ज़िन्दगियों के साथ खिलवाड़ करते कारख़ाना मालिक

पिछले दिनों कुछ औद्योगिक मज़दूरों के साथ मुलाक़ात हुई जिनके काम करते समय हाथों की उँगलियाँ कट गयीं या पूरे-पूरे हाथ ही कट गये। लुधियाना के औद्योगिक इलाक़े में अक्सर ही मज़दूरों के साथ हादसे होते रहते हैं। शरीर के अंग कटने से लेकर मौत तक होना आम बात बन चुकी है। मज़दूर के साथ हादसा होने पर कारख़ाना मालिकों का व्यवहार मामले को रफ़ा-दफ़ा करने वाला ही होता है। बहुत सारे मसलों में तो मालिक मज़दूरों का इलाज तक नहीं करवाते, मुआवज़ा देना तो दूर की बात है।

नये साल के ठीक पहले झारखण्ड की कोयला खदान में दर्दनाक हादसा

जो मज़दूर ज़मीन के भीतर से कोयला निकालने के लिए अपनी जान जोि‍ख़‍म में डालकर 300 फ़ीट गहरी खान खोदकर बेहद ख़तरनाक परिस्थितियों में दिन-रात काम कर सकते हैं, वे मानवता पर बोझ बन चुकी इस बर्बर पूँजीवादी व्यवस्था की क़ब्र खोदकर उसे मौत की नींद भी सुला सकते हैं। ज़रूरत इस बात की है कि ज़मीन के भीतर काम करने वाले खनन मज़दूरों और ज़मीन के ऊपर काम करने वाले औद्योगिक व कृषि मज़दूरों के बीच वर्गीय आधार पर जुझारू एकजुटता स्थापित हो।

कारख़ाने में हादसे में मारे गये मज़दूर को मुआवज़ा दिलाने के लिए टेक्सटाईल-हौज़री कामगार यूनियन के नेतृत्व में संघर्ष

कई कारखानों के मज़दूर हड़ताल करके धरने-प्रदर्शन में शामिल हुए। लुधियाना में किसी कारखाने में हादसा होने पर मज़दूर के मारे जाने पर आम तौर पर मालिक पुलिस व श्रम विभाग के अफसरों से मिलीभगत से, दलालों की मदद से पीड़ित परिवारों को 20-25 हज़ार देकर मामला रफा दफा करने में कामयाब हो जाते हैं। लेकिन जब मज़दूर एकजुट होकर लड़ते हैं तो उन्हें अधिक मुआवजा देना पड़ता है। इस मामले में भी मालिक ने यही कोशिश की। लेकिन टेक्सटाईल हौज़री कामगार यूनियन के नेतृत्व में एकजुट हुए मज़दूरों ने पुलिस और मालिक को एक हद तक झुकने के लिए मज़बूर कर दिया। पुलिस को मालिक को हिरासत में लेने पर मज़बूर होना पड़ा। मालिक को पीड़ित परिवार को दो लाख रुपये मुआवजा देना पड़ा।

श्रम-विभाग, पुलिस-प्रशासन और ठेकेदारों की लालच ने ली 15 मज़दूरों की जान

इस इलाके में जैकेट बनाने वाले करीब 150-200 वर्कशाप हैं। इसके साथ ही यहाँ बड़े पैमाने पर जूते भी बनाए जाते है ओर कुछ जगह जीन्स रंगाई का भी काम होता है। यह सभी वर्कशाप अवैध हैं और पुलिस तथा श्रम‍-विभाग की मिलीभगत के बिना नहीं चल सकते। इन वर्कशापों में तैयार किया गया माल दिल्ली के स्थानीय बाज़ारों और फुटपाथों पर लगने वाली दुकानों में सप्लाई किया जाता है। मज़दूरों ने बताया कि एक जैकेट बनाने के पीछे एक मज़दूर को करीब 30-40 रुपये तक पीसरेट मिलता है। यदि मज़दूर को प्रतिदिन 400-500 रुपये की दिहाड़ी बनानी हो तो उसे 14-16 घंटे काम करना पड़ता है। मज़दूरों ने बताया कि इन वर्कशापों में कोई भी श्रम क़ानून लागू नहीं होता और पुलिस वाले इन अवैध कारखानों को चलते रहने की एवज़ में हर महीने अपना हिस्‍सा लेकर चले जाते है। इन वर्कशापों के मालिक छोटी पूँजी के मालिक हैं जिन्हें मज़दूर ठेकेदार कहते हैं। यह ठेकेदार 10 से 50 मशीनें डालकर इलाके में जगह-जगह अपने वर्कशाप चला रहे हैं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों से मज़दूरों को बुलाकर अपने यहाँ काम करवाते हैं। यह मज़दूर अपने गाँव, जि़ला या इलाका के आधार पर छोटे-छोटे गुटों में बंटे हुए हैं और इनके बीच वर्ग एकता का अभाव है।