Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

कम्पनी के लिए एक मज़दूर की जान की क़ीमत महज़ 50,000 रुपये

पैसे की हवस फिर एक मज़दूर की ज़िन्दगी को लील गयी। जिस उम्र में एक नौजवान को स्कूल कॉलेज में होना चाहिये था उस उम्र में वह नौजवान फ़ैक्ट्री में मालिकों के मुनाफ़े के लिए हाड़-माँस गलाते हुए असमय मौत का शिकार बन गया। मालिकों ने मज़दूर की एक ज़िन्दगी को 50,000 रुपये में तौल दिया। रात को जब चारों ओर सन्नाटा था तो सोनू की माँ की चीख-चीख कर रोने की आवाज़ अन्तरात्मा पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ रही थी। और सवाल कर रही थी कि हमारे मज़दूर साथी कब तक इस तरह मरते रहेंगे। कुछ लोगों के लिए हर घटना की तरह यह भी एक घटना थी उसके बाद वे अपने कमरे में जाकर सो गये। क्या वाकई 10-12 घण्टे के काम ने हमारी मानवीय भावनाओं को इस तरह कुचल दिया है कि ऐसी घटनाओं को सुनकर भी इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की आग नहीं सुलग उठती। एक बार अपनी आत्मा में झाँककर हमें ये सवाल ज़रूर पूछना चाहिए।

पंजाबी कहानी – नहीं, हमें कोई तकलीफ नहीं – अजीत कौर, अनुवाद – सुभाष नीरव

एक सुखद आश्चर्य का अहसास कराती पंजाबी लेखिका अजीत कौर की यह कहानी ‘कथादेश’ के मई 2004 के अंक में पढ़ने को मिली। कहानी में भारतीय समाज के जिस यथार्थ को उकेरा गया है वह कोई अपवाद नहीं वरन एक प्रतिनिधि यथार्थ है। भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में आज देश के तमाम औद्योगिक महानगरों में करोड़ों मजदूर जिस बर्बर पूँजीवादी शोषण–उत्पीड़न के शिकार हैं, यह कहानी उसकी एक प्रातिनिधिक तस्वीर पेश करती है। इसे एक विडम्बना के सिवा क्या कहा जाये कि तमाम दावेदारियों के बावजूद हिन्दी की प्रगतिशील कहानी के मानचित्र में भारतीय समाज का यह यथार्थ लगभग अनुपस्थित है, जबकि हिन्दी के कई कहानीकार औद्योगिक महानगरों में रहते हुए रचनारत हैं। हिन्दी की प्रगतिशील कहानी के मर्मज्ञ कहानी के इकहरेपन या सपाटबयानी के बारे में बड़ी विद्वतापूर्ण बातें बघार सकते हैं लेकिन इससे यह सवाल दब नहीं सकता कि आखिर हिन्दी कहानी इस प्रतिनिधि यथार्थ से अब तक क्यों नजरें चुराये हुए है? बहरहाल ‘बिगुल’ के पाठकों के लिये यह कहानी प्रस्तुत है। पाठक स्वयं कहानी में मौजूद यथार्थ के ताप को महसूस कर सकते हैं। – सम्पादक