एक बार फिर आग में झुलसी मज़दूरों की ज़िन्दगियाँ! दिल्ली के शाहाबाद दौलतपुर में आग से हज़ारों झुग्गियाँ तबाह, चार बच्चों की मौत

अदिति

27 अप्रैल को शाहाबाद दौलतपुर गाँव के श्रीनिकेतन अपार्टमेण्ट के पास की झुग्गियों में लगी भीषण आग से हज़ारों झुग्गियाँ तबाह हो गयी। इस घटना में चार बच्चों की मौत हो गयी और हज़ारों लोगों की ज़िन्दगियाँ तबाह-बर्बाद हो गयी। इन झुग्गियों में ज़्यादातर आबादी कूड़ा बीनने का काम करती है। झुग्गियों में आग उस समय लगी जब लोग काम पर गये हुए थे। एक घर में सिलेण्डर फटने की वजह से आग ने भयानक रूप ले लिया और हज़ार के करीब झुग्गियाँ आग की चपेट में आ गयी। स्थानीय प्रशासन ने इस घटना पर बहुत देरी से कार्रवाई की। साथ ही दमकल की गाड़ियों को भी पहुँचने में देरी हुई। प्रशासन द्वारा तुरन्त कार्रवाई न करने और घटना के प्रति लापरवाही दिखाने के कारण भी आग पूरे इलाक़े में फैल गयी और हज़ारों लोग सड़क पर आ गये। अब तक लोग दर-दर मारे फ़िर रहे है। सालों की मेहनत-मज़दूरी करके, एक-एक पायी जोड़कर अपना घर बनाते हैं और अचानक से सब बर्बाद हो जाता है। घटना के बाद अभी तक लोगों के लिए रहने की व्यवस्था नहीं की गयी है।

ये घटना कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी फ़रवरी में शाहाबाद डेरी निकट बंगाली कॉलोनी की झुग्गियों में भी आग लगी थी, जिसमें 80 के क़रीब झुग्गियाँ जल कर राख हो गयी थी। बंगाली कॉलोनी के निवासी आज भी मुआवज़े के लिए प्रशासन के चक्कर काट रहे हैं। शाहाबाद दौलतपुर गाँव और शाहाबाद डेरी के आस-पास अनेकों झुग्गियाँ हैं, जहाँ झुग्गियों में हर साल गर्मी के मौसम में आग लगती है। शाहाबाद डेरी के इर्द-गिर्द बसी झुग्गियों में आग लगना बहुत स्वाभाविक सी घटना बन गयी है। हर साल की तरह इस साल भी प्रशासन कुम्भकरण की नींद ही सोता ही रहा। ऐसी घटनाओं पर प्रशासन से लेकर आपदा प्रबन्धन तक के लोगों का रवैया बेहद शर्मनाक और ढीला रहता है।

मज़दूरों-मेहनतकशों की समस्याओं के प्रति सरकार से लेकर प्रशासन तक का रवैया हमेशा असंवेदनशील ही होता है। अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ पक्का आवास देने का हल्ला मचा रही थी। हर चुनाव से पहले झुग्गीवालों की उन्हीं बस्तियों में जाकर वोट माँगने वाले नेता-मन्त्रियों को चुनाव जीत जाने के बाद वह झुग्गियाँ नज़र ही नहीं आती। अगर वाक़ई सरकार को झुग्गीवालों की फ़िक्र होती तो झुग्गियों के जलने के बाद उनके लिए रहने का बन्दोबस्त करती, झुग्गी की जगह उन्हें पक्के मकान देती। पक्का आवास हमारा मूलभूत अधिकार है। मज़दूरों की झुग्गियों में कभी आग लगती है, तो कभी उनकी झुग्गियों को सरकार द्वारा तोड़ दिया जाता है। यह हालात पूरे देश के मेहनतकशों के हैं। आमतौर पर पूरे देश भर में अलग-अलग कारणों से ग़रीब-मेहनतकशों को उनके घरों से बेघर करने की घटनाएँ बार-बार हमें यह दिखाती है कि तमाम सरकारें चाहे जो भी वादा कर ले उसकी असलियत यही है कि किसी भी पार्टी की सरकार हो वे जनता के आवास के बुनियादी अधिकार के साथ ग़द्दारी ही करने का काम करती हैं। देश के प्रमुख शहर जिस मेहनतकश आबादी के दम पर चलते हैं, उनके लिए इन सरकारों के पास कोई योजना नहीं है। सुई से लेकर जहाज़ तक बनाने और चलाने वाली मेहनतकश अवाम को उसी शहर के लिए गन्दा समझा जाता है, जिस शहर को चमकाने का वह काम करते हैं। शहर के सौन्दर्यीकरण के नाम पर मेहनतकशों को बेघर तक कर दिया जाता है। तमाम सरकारें इस आबादी को शहर के लिए गन्दगी समझती है। ऐसी घटनाओं पर चुप्पी तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के चरित्र को उज़ागर कर देती है। इसलिए सभी मेहनतकशों को समझ जाना चाहिए कि मालिकों-धन्नासेठो की पार्टियाँ कभी भी आम मेहनतकश जनता के मुद्दों के लिए नहीं लड़ सकती हैं।

वैसे देखा जाये तो झुग्गियों में आग लगने जैसी घटनाओं की जड़ में भी पूँजीवादी व्यवस्था ही है, जो मेहनतकशों को इन हालातों में रहने के लिए मजबूर करती है। वास्तव में जिस पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर आज हम जी रहे हैं, उसमें मेहनतकशों का शोषण सिर्फ़ उनके काम करने की जगह पर ही नहीं होता बल्कि कारख़ानों, फैक्टरियों से निकल कर जिन दड़बेनुमा झुग्गियों में उन्हें जीने के लिए विवश किया जाता है, वहाँ भी लगातार उनकी मानवीय गरिमा पर चोट की जाती है। ये सरकारें मुनाफ़ाखोर पूँजीपति वर्ग की ही नुमाइन्दगी करती हैं और मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था की रक्षा का ही काम करती हैं। इस व्यवस्था से यह उम्मीद करना बेकार है कि वह आम मेहनतकश आबादी के बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित करके, उनकी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करे।

ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए आज ज़रूरत है मेहनतकशों को एक साथ मिलकर खड़े होने की और सबको पक्के आवास के अधिकार के लिए आन्दोलन करने की। किसी भी देश की सरकार की यह ज़िम्मेदारी है कि वह उस देश में रहने वाले हर नागरिक को रहने के लिए पक्के आवास की गारण्टी दें। यह हमारा हक़ है और इसे हासिल करने के लिए आज जाति-धर्म को छोड़कर अपने वर्ग के आधार पर एकजुट होने की ज़रूरत है।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2025

 

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