Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

1984 का ख़ूनी वर्ष – अब भी जारी हैं योजनाबद्ध साम्प्रदायिक दंगे और औद्योगिक हत्याएँ

हर चीज़ की तरह यहाँ न्याय भी बिकता है। पुलिस थाने, कोर्ट-कचहरियाँ सब व्यापार की दुकानें हैं जो नौकरशाहों, अफ़सर, वकीलों और जजों के भेस में छिपे व्यापारियों और दलालों से भरी हुई हैं। आप क़ानून की देवी के तराजू में जितनी ज़्यादा दौलत डालोगे उतना ही वह आपके पक्ष में झुकेगी। इन दो मामलों के अलावा भी हज़ारों मामले इसी बात की गवाही देते हैं। बहुत से पूँजीपति और राजनीतिज्ञ बड़े-बड़े जुर्म करके भी खुले घूमते फिरते हैं, क़त्ल और बलात्कार जैसे गम्भीर अपराधों के दोषी संसद में बैठे सरकार चलाते हैं और करोड़ों लोगों की किस्मत का फ़ैसला करते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ ही केन्द्र और अलग-अलग राज्यों में करीब आधे राजनीतिज्ञ अपराधी हैं, असली संख्या तो कहीं और ज़्यादा होगी। कभी-कभार मुनाफ़े की हवस में पागल इन भेड़ियों की आपसी मुठभेड़ में ये अपने में से कुछ को नंगा करते भी हैं तो वह अपनी राजनैतिक ताक़त और पैसे के दम पर आलीशान महलों जैसी सहूलियतों वाली जेलों में कुछ समय गुज़ारने के बाद जल्दी ही बाहर आ जाते हैं। ए. राजा, कनीमोझी, लालू प्रसाद यादव, जयललिता, शिबू सोरेन, बीबी जागीर कौर, बादल जैसे इतने नाम गिनाये जा सकते हैं कि लिखने के लिए पन्ने कम पड़ जायें।

मुनाफ़े की व्यवस्था में हम मज़दूरों का कोई भविष्य नहीं

मज़दूर भाइयो, यह केवल मेरी कहानी नहीं है बल्कि देश के करोड़ों मज़दूरों की ऐसी ही कहानियाँ हैं। आज हम एकजुट होकर ही मुनाफ़े की इस व्यवस्था के खि़लाफ़ लड़ सकते हैं। हमें इस लड़ाई में मिठबोले मालिकों, धन्धेबाज वकीलों, और दलाल यूनियनों से भी सावधान रहना होगा।

वजीरपुर स्टील उद्योगः मौत और मायूसी के कारखाने

वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र जो कि भारत के सबसे बड़े स्टील उद्योगों में से एक है। जहाँ ‘स्टेनलेस स्टील’ के बर्तन बनाने का काम होता है। लेकिन इन

कारखानों में काम की परिस्थिति बेहद खतरनाक है, आये दिन मज़दूरों की मौत होना, बेहद उच्च ताप पर झुलसना तो रोज की घटना है। ऊपर से औद्योगिके कचरे की वजह से झुग्गियों की यह हालत है कि बजबजाती नालियों में मच्ठर भी पैदा होने से डरते हैं, क्योंकि वहाँ सिर्फ गन्दा पानी ही नहीं बहता, तेजाब भी बहता है।

हादसों के नाम पर कब तक होती रहेंगी ऐसी हत्याएँ?

स्थानीय अख़बारों में इसे एक हादसा बताया गया है। परन्तु यदि हम इस घटना का तार्किक विश्लेषण करें तो यह बिल्कुल साफ हो जायेगा कि यह हादसा नहीं “हत्या” है। आज भारत के असंगठित क्षेत्र में लगभग 48 करोड़ मज़दूर हैं। इनमें करीब 3 करोड़ निर्माण मज़दूर हैं। देशभर में बड़े-बड़े अपार्टमेंट, होटल, एअरपोर्ट, एक्सप्रेसवे, ऑफिस बिल्डिंग आदि का निर्माण अन्धाधुन्ध जारी है। लेकिन इनमें काम करने वाले मज़दूरों की हालत बेहद बुरी है। तमाम सरकारी घोषणाएँ सिर्फ कागज़ पर रह जाती हैं। बड़ी-बड़ी कंस्ट्रक्शन कम्पनियों से लेकर राजकीय निर्माण निगम जैसी सरकारी संस्थाओं तक हर जगह मज़दूरों के साथ एक ही जैसा सुलूक होता है। आये दिन मज़दूर मरते और घायल होते रहते हैं या फिर जानलेवा बीमारियों का शिकार होते रहते हैं। ऐसी घटनाओं पर न तो हमारी सरकार को कोई फ़र्क़ पड़ता है और न ही पूँजीपतियों को।

कनाडा की खनन कम्पनियों का लूटतन्त्र और पूँजीपतियों, सरकार तथा एनजीओ का गँठजोड़

कनाडा में पंजीकृत लगभग 1300 खदान कम्पनियों में से बहुत सी कम्पनियों का मालिकाना कनाडा के नागरिकों के पास नहीं है, लेकिन फिर भी ज़्यादातर खदान कम्पनियाँ कनाडा को अपना मुख्य ठिकाना बनाती हैं, इसका कोई कारण तो होगा ही। असल में कनाडा की सरकार खदान कम्पनियों पर कनाडा में पंजीकरण करवाने के लिए कोई सख्त शर्त नहीं लगाती। मसलन ये कम्पनियाँ विदेशों में अपने कारोबार के दौरान क्या करती हैं, इसमें कनाडा की सरकार बिल्कुल दख़ल नहीं देती। लेकिन अगर किसी देश की सरकार कनाडा में पंजीकृत किसी खदान कम्पनी को अपने यहाँ खनन करने से रोकती है, उस पर श्रम क़ानून लागू करने की कोशिश करती है तो कनाडा के राजदूत तथा कनाडा की सरकार उस देश की सरकार पर दबाव डालती है, उसे मजबूर करती है कि वह ऐसा न करे, या फिर स्थानीय सरकार तथा कम्पनी में समझौता करवाती है। इसके अलावा, जनविरोध से निपटने के लिए स्थानीय सरकार को कम्पनी को पुलिस तथा अर्धसैनिक बल मुहैया करवाने के लिए राजी करती है। कनाडा में पंजीकृत कम्पनी अन्य देशों में टैक्स देती है या नहीं, इससे भी कनाडा सरकार को कोई लेना-देना नहीं। कनाडा की सरकार ख़ुद भी खदान कम्पनियों को क़ानूनों के झंझट से मुक्त रखती है। अब अगर ऐसी सरकार मिले तो कोई पूँजीपति कनाडा क्यों नहीं जाना चाहेगा। अब जब कनाडा की खदान कम्पनियों के कुकर्मों की पोल खुलने लगी है (जिसका उनके बिज़नेस पर बुरा असर पड़ सकता है), तो कनाडा की सरकार उनकी छवि सँवारने तथा उनको “सामाजिक तौर पर ज़िम्मेदार कारपोरेट”” दिखाने के लिए जनता की जेबों से निकाले गये टैक्स के पैसों को कम्पनियों के हितों पर कुर्बान कर रही है।

तुर्की में कोयला खदान में सैकड़ों मज़दूरों की मौत

पूरी दुनिया में आज भी उद्योगों को चलाने के लिए सबसे अधिक फ़ॉसिल ईंधन यानी तेल, गैस और कोयला की खपत होती है। कोयला खदानों में मज़दूर बेहद असुरक्षित हालत में काम करते हैं। भूमण्डलीकरण की नीतियों के दौर में पूरी दुनिया में सुरक्षा के रहे-सहे इन्तज़ामों को भी ताक पर धरकर ठेका और कैजुअल मज़दूरों से अन्धाधुन्ध खनन कराया जा रहा है जिसके कारण दुनिया भर में खदान दुर्घटनाओं की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में चासनाला की कुख्यात कोयला खदान दुर्घटना को कौन भूल सकता है जिसमें 450 से अधिक मज़दूर मारे गये थे। उस वक़्त एक के बाद एक कई भयानक हादसों के बाद देशव्यापी विरोध के दबाव में सरकार ने निजी कोयला खदानों का राजकीयकरण कर दिया था। लेकिन अब एक बार फिर एक-एक करके खदानों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। भारी पैमाने पर अवैध ढंग से कोयला निकालने का काम सरकार की नाक के नीचे होता है जिसमें मज़दूर बिना किसी सुरक्षा के जान पर खेलकर काम करते हैं। कुछ ही साल पहले रानीगंज में अवैध खदानों में पानी भरने से दर्जनों मज़दूर मारे गये थे जिनकी ठीक-ठीक संख्या का कभी पता ही नहीं चल पाया। चीन में हर साल खदान दुर्घटनाओं में क़रीब 5000 मज़दूर मारे जाने हैं।

मालिकों के मुनाफ़े की हवस में अपाहिज हो रहे हैं मज़दूर

ये कुछ ऐसी घटनाएँ हैं जो सामने आ गयी हैं। लेकिन अक्सर ही फ़ैक्टरियों में हादसे होते हैं, मौतों के अलावा अंग कटने की घटनाएँ आम घटती हैं। लेकिन किसी अख़बार या टी.वी. चैनल की सुर्खी नहीं बनती। यहाँ का श्रम विभाग और ई.एस.आई. विभाग अपाहिज, लाचार, मज़दूरों की सुनवाई करके ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की जगह उनको चक्कर लगवा-लगवाकर दुखी कर देता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि इनकी कोई जवाबदेही नहीं। मज़दूरों में संगठन की कमी है और फ़ैक्टरी मालिक ऊपर तक पहुँच वाले हैं।

मेट्रो मज़दूर उमाशंकर – हादसे का शिकार या मुनाफ़े की हवस का

ठेका कम्पनियों के प्रति डी.एम.आर.सी. की वफ़ादारी जगजाहिर है तभी इन कम्पनियों द्वारा खुलेआम श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के बावजूद इन पर कोई कार्रवाई नहीं होती है। वैसे भी ठेका कम्पनियों का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना है, सामाजिक ज़िम्मेदारी से इनका कोई सरोकार नहीं है। यही वजह है कि मेट्रो की कार्य संस्कृति भी सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर है। तभी तो मज़दूर के शरीर पर लांचर गिरे, पुल टूटकर मज़दूर को दफनाये या ज़िन्दा मजदूर मिट्टी में दफन हो जाये, लेकिन मेट्रो निर्माण में लगी कम्पनियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

चीन में मुनाफ़े की भेंट चढ़े 118 मज़दूर

वैसे आज नामधारी ‘‘कम्युनिस्ट’’ चीन के मज़दूरों के हालात भी विश्व भर के मज़दूरों से अलग नहीं। अभी हाल में बांगलादेश, पाकिस्तान से लेकर भारत तक में सैकड़ों मज़दूर जेलरूपी कारख़ानों में मौत के मुँह में समाये हुए हैं। अकेले भारत में सरकारी आँकड़े बताते हैं कि हर साल दो लाख मज़दूर औद्योगिक दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। वैसे भी माओ की मृत्यु (1976) के बाद से चीन में क़ाबिज़ कम्युनिस्ट पार्टी के शासक मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि नये पैदा हुये पूँजीपति वर्ग की चाकरी में लगे हुए हैं। तभी आज चीन में मज़दूरों के काम परिस्थितियों और सुरक्षा उपकरण के मानक की खुलेआम अनदेखी की जा रही। ऐसे में ये बात समझने के लिए जरूरी है कि आज चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के चोलों के पीछे खुली पूँजीवादी नीतियाँ लागू हो रही हैं जिसके कारण आज चीन के बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी का जीवन स्तर जो माओकालीन चीन में बेहतर था। लेकिन विगत 37 वर्ष में बदतर हालात में पहुँच गया।

बंगलादेश हो या भारत, मौत के साये में काम करते हैं मज़दूर

पूँजीपतियों की निगाह में मज़दूरों की जान की कोई कीमत नहीं है, लेकिन मज़दूर अपनी ज़िन्दगी को ऐसे ही गँवाने के लिए तैयार नहीं हैं। काम पर सुरक्षा का पूरा बन्दोबस्त हमारे जीने के बुनियादी अधिकार से जुड़ा है। हमें इसके लिए संगठित होकर लड़ना होगा और साथ ही इस आदमख़ेर पूँजीवादी ढाँचे को भी नेस्तनाबूद करने की तैयारी करनी होगी।