Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

हादसों के नाम पर कब तक होती रहेंगी ऐसी हत्याएँ?

स्थानीय अख़बारों में इसे एक हादसा बताया गया है। परन्तु यदि हम इस घटना का तार्किक विश्लेषण करें तो यह बिल्कुल साफ हो जायेगा कि यह हादसा नहीं “हत्या” है। आज भारत के असंगठित क्षेत्र में लगभग 48 करोड़ मज़दूर हैं। इनमें करीब 3 करोड़ निर्माण मज़दूर हैं। देशभर में बड़े-बड़े अपार्टमेंट, होटल, एअरपोर्ट, एक्सप्रेसवे, ऑफिस बिल्डिंग आदि का निर्माण अन्धाधुन्ध जारी है। लेकिन इनमें काम करने वाले मज़दूरों की हालत बेहद बुरी है। तमाम सरकारी घोषणाएँ सिर्फ कागज़ पर रह जाती हैं। बड़ी-बड़ी कंस्ट्रक्शन कम्पनियों से लेकर राजकीय निर्माण निगम जैसी सरकारी संस्थाओं तक हर जगह मज़दूरों के साथ एक ही जैसा सुलूक होता है। आये दिन मज़दूर मरते और घायल होते रहते हैं या फिर जानलेवा बीमारियों का शिकार होते रहते हैं। ऐसी घटनाओं पर न तो हमारी सरकार को कोई फ़र्क़ पड़ता है और न ही पूँजीपतियों को।

कनाडा की खनन कम्पनियों का लूटतन्त्र और पूँजीपतियों, सरकार तथा एनजीओ का गँठजोड़

कनाडा में पंजीकृत लगभग 1300 खदान कम्पनियों में से बहुत सी कम्पनियों का मालिकाना कनाडा के नागरिकों के पास नहीं है, लेकिन फिर भी ज़्यादातर खदान कम्पनियाँ कनाडा को अपना मुख्य ठिकाना बनाती हैं, इसका कोई कारण तो होगा ही। असल में कनाडा की सरकार खदान कम्पनियों पर कनाडा में पंजीकरण करवाने के लिए कोई सख्त शर्त नहीं लगाती। मसलन ये कम्पनियाँ विदेशों में अपने कारोबार के दौरान क्या करती हैं, इसमें कनाडा की सरकार बिल्कुल दख़ल नहीं देती। लेकिन अगर किसी देश की सरकार कनाडा में पंजीकृत किसी खदान कम्पनी को अपने यहाँ खनन करने से रोकती है, उस पर श्रम क़ानून लागू करने की कोशिश करती है तो कनाडा के राजदूत तथा कनाडा की सरकार उस देश की सरकार पर दबाव डालती है, उसे मजबूर करती है कि वह ऐसा न करे, या फिर स्थानीय सरकार तथा कम्पनी में समझौता करवाती है। इसके अलावा, जनविरोध से निपटने के लिए स्थानीय सरकार को कम्पनी को पुलिस तथा अर्धसैनिक बल मुहैया करवाने के लिए राजी करती है। कनाडा में पंजीकृत कम्पनी अन्य देशों में टैक्स देती है या नहीं, इससे भी कनाडा सरकार को कोई लेना-देना नहीं। कनाडा की सरकार ख़ुद भी खदान कम्पनियों को क़ानूनों के झंझट से मुक्त रखती है। अब अगर ऐसी सरकार मिले तो कोई पूँजीपति कनाडा क्यों नहीं जाना चाहेगा। अब जब कनाडा की खदान कम्पनियों के कुकर्मों की पोल खुलने लगी है (जिसका उनके बिज़नेस पर बुरा असर पड़ सकता है), तो कनाडा की सरकार उनकी छवि सँवारने तथा उनको “सामाजिक तौर पर ज़िम्मेदार कारपोरेट”” दिखाने के लिए जनता की जेबों से निकाले गये टैक्स के पैसों को कम्पनियों के हितों पर कुर्बान कर रही है।

तुर्की में कोयला खदान में सैकड़ों मज़दूरों की मौत

पूरी दुनिया में आज भी उद्योगों को चलाने के लिए सबसे अधिक फ़ॉसिल ईंधन यानी तेल, गैस और कोयला की खपत होती है। कोयला खदानों में मज़दूर बेहद असुरक्षित हालत में काम करते हैं। भूमण्डलीकरण की नीतियों के दौर में पूरी दुनिया में सुरक्षा के रहे-सहे इन्तज़ामों को भी ताक पर धरकर ठेका और कैजुअल मज़दूरों से अन्धाधुन्ध खनन कराया जा रहा है जिसके कारण दुनिया भर में खदान दुर्घटनाओं की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में चासनाला की कुख्यात कोयला खदान दुर्घटना को कौन भूल सकता है जिसमें 450 से अधिक मज़दूर मारे गये थे। उस वक़्त एक के बाद एक कई भयानक हादसों के बाद देशव्यापी विरोध के दबाव में सरकार ने निजी कोयला खदानों का राजकीयकरण कर दिया था। लेकिन अब एक बार फिर एक-एक करके खदानों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। भारी पैमाने पर अवैध ढंग से कोयला निकालने का काम सरकार की नाक के नीचे होता है जिसमें मज़दूर बिना किसी सुरक्षा के जान पर खेलकर काम करते हैं। कुछ ही साल पहले रानीगंज में अवैध खदानों में पानी भरने से दर्जनों मज़दूर मारे गये थे जिनकी ठीक-ठीक संख्या का कभी पता ही नहीं चल पाया। चीन में हर साल खदान दुर्घटनाओं में क़रीब 5000 मज़दूर मारे जाने हैं।

मालिकों के मुनाफ़े की हवस में अपाहिज हो रहे हैं मज़दूर

ये कुछ ऐसी घटनाएँ हैं जो सामने आ गयी हैं। लेकिन अक्सर ही फ़ैक्टरियों में हादसे होते हैं, मौतों के अलावा अंग कटने की घटनाएँ आम घटती हैं। लेकिन किसी अख़बार या टी.वी. चैनल की सुर्खी नहीं बनती। यहाँ का श्रम विभाग और ई.एस.आई. विभाग अपाहिज, लाचार, मज़दूरों की सुनवाई करके ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की जगह उनको चक्कर लगवा-लगवाकर दुखी कर देता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि इनकी कोई जवाबदेही नहीं। मज़दूरों में संगठन की कमी है और फ़ैक्टरी मालिक ऊपर तक पहुँच वाले हैं।

मेट्रो मज़दूर उमाशंकर – हादसे का शिकार या मुनाफ़े की हवस का

ठेका कम्पनियों के प्रति डी.एम.आर.सी. की वफ़ादारी जगजाहिर है तभी इन कम्पनियों द्वारा खुलेआम श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के बावजूद इन पर कोई कार्रवाई नहीं होती है। वैसे भी ठेका कम्पनियों का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना है, सामाजिक ज़िम्मेदारी से इनका कोई सरोकार नहीं है। यही वजह है कि मेट्रो की कार्य संस्कृति भी सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर है। तभी तो मज़दूर के शरीर पर लांचर गिरे, पुल टूटकर मज़दूर को दफनाये या ज़िन्दा मजदूर मिट्टी में दफन हो जाये, लेकिन मेट्रो निर्माण में लगी कम्पनियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

चीन में मुनाफ़े की भेंट चढ़े 118 मज़दूर

वैसे आज नामधारी ‘‘कम्युनिस्ट’’ चीन के मज़दूरों के हालात भी विश्व भर के मज़दूरों से अलग नहीं। अभी हाल में बांगलादेश, पाकिस्तान से लेकर भारत तक में सैकड़ों मज़दूर जेलरूपी कारख़ानों में मौत के मुँह में समाये हुए हैं। अकेले भारत में सरकारी आँकड़े बताते हैं कि हर साल दो लाख मज़दूर औद्योगिक दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। वैसे भी माओ की मृत्यु (1976) के बाद से चीन में क़ाबिज़ कम्युनिस्ट पार्टी के शासक मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि नये पैदा हुये पूँजीपति वर्ग की चाकरी में लगे हुए हैं। तभी आज चीन में मज़दूरों के काम परिस्थितियों और सुरक्षा उपकरण के मानक की खुलेआम अनदेखी की जा रही। ऐसे में ये बात समझने के लिए जरूरी है कि आज चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के चोलों के पीछे खुली पूँजीवादी नीतियाँ लागू हो रही हैं जिसके कारण आज चीन के बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी का जीवन स्तर जो माओकालीन चीन में बेहतर था। लेकिन विगत 37 वर्ष में बदतर हालात में पहुँच गया।

बंगलादेश हो या भारत, मौत के साये में काम करते हैं मज़दूर

पूँजीपतियों की निगाह में मज़दूरों की जान की कोई कीमत नहीं है, लेकिन मज़दूर अपनी ज़िन्दगी को ऐसे ही गँवाने के लिए तैयार नहीं हैं। काम पर सुरक्षा का पूरा बन्दोबस्त हमारे जीने के बुनियादी अधिकार से जुड़ा है। हमें इसके लिए संगठित होकर लड़ना होगा और साथ ही इस आदमख़ेर पूँजीवादी ढाँचे को भी नेस्तनाबूद करने की तैयारी करनी होगी।

औद्योगिक दुर्घटनाओं पर एक वृत्तचित्र

दूर बैठकर यह अन्दाज़ा लगाना भी कठिन है कि राजधानी के चमचमाते इलाक़ों के अगल-बगल ऐसे औद्योगिक क्षेत्र मौजूद हैं जहाँ मज़दूर आज भी सौ साल पहले जैसे हालात में काम कर रहे हैं। लाखों-लाख मज़दूर बस दो वक़्त की रोटी के लिए रोज़ मौत के साये में काम करते हैं।… कागज़ों पर मज़दूरों के लिए 250 से ज्यादा क़ानून बने हुए हैं लेकिन काम के घण्टे, न्यूनतम मज़दूरी, पीएफ़, ईएसआई कार्ड, सुरक्षा इन्तज़ाम जैसी चीज़ें यहाँ किसी भद्दे मज़ाक से कम नहीं… आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं और मज़दूरों की मौतों की ख़बर या तो मज़दूर की मौत के साथ ही मर जाती है या फ़ि‍र इन कारख़ाना इलाक़ों की अदृश्य दीवारों में क़ैद होकर रह जाती है। दुर्घटनाएँ होती रहती हैं, लोग मरते रहते हैं, मगर ख़ामोशी के एक सर्द पर्दे के पीछे सबकुछ यूँ ही चलता रहता है, बदस्तूर…

बंग्लादेश की हत्यारी गारमेंट फैक्टरियां

खुद को महान देशभक्त कहने वाले पूंजीपतियों को अपने देश के मज़दूरों का अमानवीय शोषण करने में कोई हिचक नहीं महसूस होती। उन्होंने तो पहले ही अपने देश की जनता के लिए ‘‘मानवीय संपदा’’ जैसा शब्द गढ़ लिया है जो उनके हर अनैतिक-अत्याचारी बर्ताव पर मुलम्मा चढ़ा देता है। इस काम में स्थानीय राजनेता उनका पूरा साथ देते हैं। बल्कि इससे भी आगे बढ़कर वे इन देशी-विदेशी कंपनियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए उदारीकरण की नीतियां लागू करते हैं श्रम कानूनों को और भी निष्प्रभावी बनाते जाते हैं और मज़दूर वर्ग के हित के प्रति एकदम आंख मूंदे रहते हैं। उनके इस काम में संशोधानवादी वामपन्थी पार्टियां भी पूरा साथ देती हैं जिन्होंने मज़दूर आन्दोलन को आज अपने रसातल में पहुंचा दिया है। यूं ही नहीं उन्हें बुर्जुआ जनवाद की दूसरी सुरक्षा पंक्ति कहा जाता है।

साल-दर-साल मज़दूरों को लीलती मेघालय की नरभक्षी कोयला खदानें

मेघालय की इन नरभक्षी खानों की एक और ख़ौफनाक हक़ीक़त यह है कि इनमें भारी संख्या में बच्चों से खनन करवाया जाता है। चूंकि सँकरी और तंग खदानों में बालिगों की बजाय बच्चों का जाना आसान होता है इसलिए इन खानों के मालिक बच्चों को भर्ती करना ज्यादा पसन्द करते हैं। ऊपर से राज्य सरकार के पास इस बात का कोई ब्योरा तक नहीं है कि इन खदानों में कुल कितने खनिक काम करते हैं और उनमें से कितने बच्चे हैं। ‘तहलका’ पत्रिका में छपे एक लेख के मुताबिक मेघालय की खानों में कुल 70,000 खनिकों ऐसे हैं जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम है और इनमें से कई तो 10 वर्ष से भी कम उम्र के हैं। सरकार और प्रशासन ने इस तथ्य से इंकार नहीं किया है। गौरतलब है कि केंद्र के खनन क़ानून 1952 के अनुसार किसी भी खदान में 18 वर्ष से कम उम्र के नागरिकों से काम कराना मना है। यानी कि अन्य क़ानूनों की तरह इस क़ानून की भी खुले आम धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। यही नहीं इन खानों में काम करने के लिए झारखंड, बिहार, उड़ीसा, नेपाल और बांगलादेश से ग़रीबों के बच्चों को ग़ैर क़ानूनी रूप से मेघालय ले जाने का व्यापार भी धड़ल्ले से जारी है।