मज़दूरों की चीख़ों और मौतों पर टिका पूँजीवाद का निर्माण उद्योग
प्रेम प्रकाश
बीती 22 फ़रवरी की सुबह तेलंगाना के नागरकुलनूर ज़िले में निर्माणाधीन सुरंग की छत के ढह जाने से 6 मज़दूर व 2 इन्जीनियर उसमें फँस गये। इस दिल दहला देने वाली घटना को एक महीना बीत जाने के बावजूद अभी तक केवल दो व्यक्तियों के शवों को निकाला जा सका है। बाक़ी 6 लोगों का अभी तक कोई पता नहीं चल सका है। और अब शेष लोगों के बचे होने की बहुत ही कम सम्भावना है। 44 किलोमीटर लम्बी निर्माणाधीन सुरंग परियोजना ‘श्रीशैलम लेफ़्ट बैंक कैनाल’ (एस.एल.बी.सी.) के भीतर 14 किलोमीटर पर यह हादसा सुरंग के ऊपर की चट्टान के ढहने व अचानक पानी के रिसाव के तेज़ होने के कारण हुआ। हादसे के चार दिन पहले ही मज़दूरों ने अधिकारियों को सुरंग में पानी के रिसाव की सूचना दे दी थी फिर भी इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। हादसे के दिन 50 मज़दूरों को सुरंग में काम करने के लिए भेजा गया। भेजने से पहले न तो सुरक्षा का कोई पुख़्ता इन्तज़ाम किया गया और न ही आपदा की स्थिति में उससे निपटने के लिए कोई तैयारी की गयी। सुरंग की छत ढहने पर 42 मज़दूर तो किसी तरह अपनी जान बचाकर निकल पाने में सफल रहे परन्तु आगे के 8 लोग जो सुरंग बोरिंग मशीन में काम कर रहे थे अन्दर ही पानी, मिट्टी और मलबे में फँस गये। फँसे हुए लोगों में 2 लोग उत्तर प्रदेश से, 4 लोग झारखण्ड से, एक जम्मू और कश्मीर से तथा 1 पंजाब से हैं। इनमें से 6 लोग मुख्य ठेका कम्पनी ‘जेपी एसोसिएट’ से हैं तथा 2 लोग ‘रॉबिन्स इण्डिया हैंडलिंग एण्ड टनेल बोरिंग मशीन’ कम्पनी से हैं।
हर बार इस तरह के हादसों में जैसा होता है, इस बार भी वही हुआ। घटना के बाद प्रशासन तथा राज्य मशीनरी हरकत में आयी और सेना, नेवी, एन.डी.आर.एफ. तथा एस.डी.आर.एफ. (हैदराबाद) की टीमों को बुलाया गया। ‘नेशनल जियोफ़िज़िकल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ (एन.जी.आर.आई.) ने भी सुरंग के भीतर रडार सर्वे किया परन्तु मज़दूरों की स्थिति का कोई ठोस पता नहीं चला। 12 से अधिक टीमें काम कर रही हैं परन्तु अभी तक बाक़ी बचे मज़दूरों का कोई सुराग नहीं मिल पाया है। तेलंगाना के मुख्यमन्त्री रेवन्त रेड्डी तथा सिंचाई मन्त्री उत्तम कुमार रेड्डी बचाव कार्य के बारे में बयान दे रहे हैं और अपने को पाक-साफ़ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी तेलंगाना के मुख्यमन्त्री से बात करके यह दिखाने की कोशिश की कि उनको मज़दूरों की ज़िन्दगी की कितनी फ़िक्र है। लेकिन आये दिन होने वाली मज़दूरों की मौतों पर इन सबकी चुप्पी यह साबित करती है कि मज़दूरों की मौतों के लिए ये सभी बराबर के ज़िम्मेदार हैं।
श्रीशैलम लेफ़्ट बैंक कैनाल परियोजना एक सिंचाई परियोजना है, जिसमें कृष्णा नदी के पानी को श्रीशैलम बाँध से सूखा प्रभावित नालगोण्डा और नागरकुलनूर जिलों में ले जाने के लिए बनाया जा रहा है। इसमें 44 किलोमीटर लम्बी सुरंग नहर बनायी जा रही है। यह अपने क़िस्म की दुनिया की सबसे बड़ी सिंचाई सुरंग है। इस सिंचाई सुरंग के रास्ते में कई पहाड़ियाँ, दरारयुक्त तथा फटी हुई चट्टानें तथा भू-जल के सोते मौजूद हैं जो भू-वैज्ञानिक रूप से इस तरह की परियोजना के लिए चुनौतीपूर्ण हैं। इस परियोजना के लिए टेण्डर पूर्व मुख्यमन्त्री वाई. एस. राजशेखर रेड्डी के कार्यकाल में सन् 2005 में निकला और निर्माण कार्य सन् 2007 से शुरू हुआ। यह काम पहले भी कई बाधाओं के साथ जारी रहा पर अब इसे सन् 2026 तक पूरा करने का अत्यधिक दबाव था। इस काम का ठेका जयप्रकाश एसोसिएट्स नामक कम्पनी को दिया गया था जो जेपी ग्रुप की कम्पनी है।
जेपी ग्रुप निर्माण तथा संरचना क्षेत्र में काम करने वाली कम्पनी है तथा पहले भी इसके द्वारा किये गये कामों में सुरक्षा मानकों की भारी अनदेखी की जाती रही है। यह कम्पनी पहले भी अपने मुनाफ़े की हवस में भू-वैज्ञानिक मानकों तथा विशेषज्ञों की रिपोर्टों को दरकिनार करते हुए मज़दूरों की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करती रही है। इसी जेपी ग्रुप द्वारा उत्तराखण्ड में टिहरी बाँध परियोजना का निर्माण किया गया था जहाँ 2 अगस्त 2004 को हुए हादसे में सुरंग में फँसने से 29 मज़दूर मारे गये थे जिसमें से अधिकतर बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा और पंजाब के थे। उस समय भी कई मज़दूर बच निकलने में सफल हो गये थे अन्यथा यह हादसा और भी बड़ा हो सकता था। ध्यान रहे कि टिहरी बाँध परियोजना में भी तेलंगाना की एस.एल.बी.सी. परियोजना की तरह भू-वैज्ञानिक रिपोर्टों की अनदेखी की गयी थी तथा सुरक्षा और आपदा-प्रबन्धन की तैयारी के बिना ही मज़दूरों को काम पर भेजा गया था। सवाल यह उठता है कि ऐसी कम्पनियों को उनके आपराधिक रिकार्ड के बावजूद काम कैसे मिल जाता है? लगातार सुरक्षा मानकों की अनदेखी और मज़दूरों की मौतों के बावजूद राज्य की जाँच एजेंसियों और सरकारों को क्यों कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ? साफ़ है, पूँजीपतियों के मुनाफ़े के आगे मज़दूरों की जान की कोई क़ीमत नहीं है।
‘श्रीशैलम लेफ़्ट बैंक कैनाल’ परियोजना का यह हादसा दिखाता है कि इसमें जिस तरह की लापरवाही बरती गयी वह आपराधिक है। इसी परियोजना पर 2020 के एक शोध पत्र में, जिसके सह-लेखक भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के पूर्व महानिदेशक मण्डपल्ली राजू भी थे, में यह बताया गया था कि सुरंग निर्माण का कार्य अधोभूमि (सब-सॉइल) की विस्तृत जाँच-पड़ताल के बिना ही शुरू कर दिया गया। ज्ञात हो कि इस तरह की किसी भी परियोजना के शुरू करने से पहले व्यापक भू-वैज्ञानिक परीक्षण किये जाते हैं। ज़मीन के नीचे की मिट्टी की व्यापक रिपोर्ट तैयार की जाती है। ज़मीन में गड्ढे खोदे जाते हैं, ज़मीन के नीचे के स्तरों की प्रकृति व व्यवहार, भूमिजल सोतों एवं मृदाजल स्तर आदि की जाँच की जाती है। निर्माण के दौरान निकासी हेतु निकासी गड्ढे (एक्सकैवेशन पिट एण्ड ड्रिफ़्ट) की स्थिति को चिन्हित करते हुए इसकी पूर्व व्यवस्था की जाती है। लेकिन इस मामले में नहर मार्ग टाइगर रिज़र्व फ़ॉरेस्ट में पड़ने के कारण अनुमति नहीं मिलने से सुरंग का ज़्यादातर हिस्सा भौतिक रूप से परीक्षण की पहुँच से दूर ही रहा और बिना उचित परीक्षण के ज़मीन के व्यवहार को जाने बिना ही कार्य शुरू कर दिया गया। आख़िर अनुमति लेकर जाँच किये बिना काम क्यों शुरू किया गया? इसी परियोजना के लिए जनवरी 2020 में ‘एमबर्ग टेक एजी’ द्वारा एक अध्ययन रिपोर्ट ‘दि टनेल सिज़्मिक रिपोर्ट–303 प्लस’ सौंपी गयी थी। जिसमें गलती के सम्भावित क्षेत्र (फ़ॉल्ट ज़ोन), अत्यधिक पानी और सीपेज वाले क्षेत्र (वाटर बीयरिंग ज़ोन), कमज़ोर चट्टानों के स्थल, आदि को चिह्नित करते हुए इस सुरंग की संरचनात्मक अस्थिरता के बारे में चेतावनी दी गयी थी। दुर्घटना के बाद भी कई विशेषज्ञों द्वारा उचित सर्वेक्षण के अभाव, सुरक्षा मानकों की अनदेखी और आपदा की स्थिति से निपटने के लिए प्रबन्धन की अनदेखी जैसे बड़ी दिक़्क़तों को चिह्नित किया है। जब पहले से ही रिपोर्टें मौजूद थीं और उनमें इस तरह की चेतावनी दी गयी थी तो फिर आख़िर क्यों इनका अनुपालन नहीं किया गया? आख़िर तेलंगाना सरकार का सिंचाई विभाग जिसके अधीन यह काम चल रहा था, ठेकेदार जेपी एसोसिएट लिमिटेड या अन्य प्राधिकरणों ने इन सब रिपोर्टों के होने के बावजूद सुरक्षा मानकों और आपदा से निपटने की पूर्व व्यवस्था क्यों नहीं की? साफ है कि इन दुर्घटनाओं में मरने वाले मज़दूरों की ज़िन्दगी की क़ीमत ठेकेदारों और हुक्मरानों के लिए कुछ भी नहीं है। मुनाफ़ा बढ़ाने और मज़दूरों की सुरक्षा की अनदेखी का यह कोई पहला हादसा नहीं है। मज़दूरों के साथ होने वाले ऐसे क्रूर और आपराधिक हादसों (हत्याओं) की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है।
निर्माण और संरचना उद्योग में भारत में इस तरह के हादसे आये दिन होते रहते हैं। आइए, एक नज़र पिछले कुछ वर्षों में निर्माण क्षेत्र में हुए कुछ हादसों पर डालते हैं। नवम्बर, 2023 में उत्तराखण्ड के सिलक्यार-बालकोट सुरंग की घटना सभी को याद होगी जिसमें 41 मज़दूर सुरंग में फँस गये थे और उन्हें 17 दिनों की मशक़्क़त के बाद बचाया जा सका था। इस घटना में भी भू-वैज्ञानिक रिपोर्टों की अनदेखी, संरचनात्मक कारण एवं सुरक्षा मानकों और आपदा-प्रबन्धन की कमी ही ज़िम्मेदार थी। इन मज़दूरों को बचाने में लगे रैट-होल माइनर मज़दूरों को पुरस्कृत करने की बजाय इनमें से कई के घरों को दिल्ली में सरकार ने बुलडोज़र से तोड़ दिया। नवयुग इंजीनियरिंग कम्पनी लिमिटेड जो इस घटना में मुख्य ठेका कम्पनी थी, उसको क्या सज़ा हुई? इस कम्पनी ने भाजपा को इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये 45 करोड़ रुपये का चुनावी चन्दा दिया था जो इसके और भाजपा के रिश्ते को दिखाता है।
सितम्बर, 2018 में कोलकाता के मेजरहट फ्लाईओवर के ढहने की घटना हो या बिहार में विगत वर्षों में कई पुलों के गिरने की घटनाएँ हों, जिसमें कई मज़दूर अपनी जान गँवा बैठे और घायल हो गये, मुनाफ़े की हवस और भ्रष्टाचार के कारण ऐसी जानलेवा घटनाएँ होना एक आम बात हो गयी है। एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार 1977 से 2017 तक भारत में 2130 पुलों के ढहने की घटनाएँ हो चुकी हैं। जनवरी, 2025 में कन्नौज (यूपी) में रेलवे स्टेशन के एक निर्माणाधीन भवन के ढहने से 24 मज़दूर घायल हो गये। दिसम्बर, 2024 में जयपुर-अजमेर सड़क निर्माण में कार्य अधूरा छोड़ने और तीखा मोड़ देने के कारण हुई रोड दुर्घटना में 14 लोग मारे गये। नवम्बर, 2024 में गुजरात में एक पुल ढहने से 3 लोगों की मौत हो गयी। गुजरात में ही अक्टूबर, 2024 में निर्माण स्थल की दीवार ढहने से 9 मज़दूर मारे गये। 16 फुट गहरा गड्ढा खोदने में सुरक्षा उपाय नहीं करने से मिट्टी मज़दूरों के ऊपर गिर गयी और वे दफ़्न हो गये। इस तरह की घटनाओं की संख्या बहुत अधिक है।
12 सितम्बर, 2023 की टाइम्स ऑफ़ इण्डिया की एक रिपोर्ट के अनुसार मुम्बई में विगत तीन वर्षों में निर्माण मज़दूरों की मौतों का आँकड़ा तीन गुना बढ़ गया है। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रतिदिन भारत में निर्माण स्थलों पर घातक दुर्घटनाओं की संख्या 38 है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट के अनुसार निर्माण स्थलों पर होने वाली दुर्घटनाओं के मामले में भारत पूरी दुनिया में पहले स्थान पर है। भारत सरकार के योजना आयोग (अब नीति आयोग) के तहत स्थापित ‘निर्माण उद्योग विकास परिषद’ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में निर्माण क्षेत्र का मज़दूर अत्यधिक अरक्षित और असुरक्षित है। इसमें अधिकतर काम करने वाले मज़दूर अनौपचारिक मज़दूर हैं। उत्पादन क्षेत्र की तुलना में निर्माण क्षेत्र में गम्भीर दुर्घटनाएँ चार से पाँच गुना अधिक हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार निर्माण मज़दूरों में प्रति 1000 मज़दूर 165 लोगों को चोटें आती हैं। कुल पेशागत दुर्घटनाओं में केवल निर्माण क्षेत्र में ही 24.20 प्रतिशत दुर्घटनाएँ होती हैं। 2 मार्च, 2024 की विभिन्न समाचारों के आधार पर बनायी एक रिपोर्ट के आधार पर बताया गया कि विगत एक सप्ताह में 22 मज़दूरों की मौत हुई। यह इस क्षेत्र में होने वाली मौतों की भयावहता की महज़ चन्द तस्वीरें हैं। कहने के लिए न्यूनतम मज़दूरी क़ानून, सुरक्षा नियमावली एवं क़ानून तथा कामगार मुआवज़ा क़ानून बने हुए हैं परन्तु वास्तविक धरातल पर ये कितना उतरते हैं हम सभी जानते हैं। निर्माण क्षेत्र में मज़दूरों की सुरक्षा और जीवन के बारे में राज्य सरकारें और केन्द्र सरकार इस क़दर आपराधिक हद तक लापरवाह हैं कि किसी के पास निर्माण क्षेत्र में होने वाली दुर्घटनाओं का कोई ठोस आँकड़ा तक उपलब्ध नहीं है।
इस तरह की घटनाएँ आये दिन होने के बावजूद क्यों कोई संज्ञान नहीं लिया जाता है? नेता-मन्त्री इस तरह की घटनाएँ हो जाने पर जुबानी जमाख़र्च करते हुए बयान तो देते हैं लेकिन क्यों ढाँचागत ठोस क़दम नहीं उठाया जाता? नियामक प्राधिकरण जिनको सुरक्षा मानकों का पालन सुनिश्चित करवाना है क्यों ऐसा नहीं कर पाते हैं? ठेकेदार तथा निर्माण एजेंसियाँ क्यों मज़दूरों की जान से खेलती हैं और सुरक्षा मानकों पर कोई ध्यान नहीं देतीं? इन प्रश्नों के उत्तर नेताशाही, नौकरशाही और निर्माण एजेंसियों के उस गँठजोड़ में है जिसमें मज़दूरों की ज़िन्दगी की क़ीमत पर मुनाफ़े और मेहनत की लूट के माल का बँटवारा होता है। यह बात विभिन्न चुनावबाज़ पार्टियों को निर्माण कम्पनियों द्वारा दिये गये चुनावी चन्दों पर एक नज़र डालने से साफ हो जाती है।
बहुचर्चित इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाला एक ऐसा मामला था जो पूँजीपतियों और चुनावबाज़ पार्टियों के अवैध सम्बन्धों की पोल खोलकर रख देता है। इसमें विभिन्न चुनावबाज़ पार्टियों को लेकिन मुख्य रूप से भाजपा को पूँजीपतियों ने बैंक से बॉण्ड ख़रीदकर चुनावी चन्दा दिया था। इसमें रियल स्टेट तथा निर्माण व संरचना उद्योग से जुड़ी कम्पनियों ने बढ़चढ़कर चन्दा दिया था। यूँ तो यह लिस्ट काफी लम्बी है परन्तु कुछ कम्पनियों द्वारा दिये गये चन्दे पर गौर कीजिये। ‘फ्यूचर गेमिंग एण्ड होटल सर्विसेस प्रा. लिमिटेड’ नामक कम्पनी, जो लॉटरी, रियल स्टेट तथा निर्माण का काम करती है, ने चुनावी चन्दे के रूप में 1365 करोड़ रुपये का चन्दा विभिन्न पार्टियों को दिया था। इसमें से भाजपा को 100 करोड़, कांग्रेस को 50 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को 542 करोड़ तथा डीएमके को 502 करोड़ रुपये एवं शेष अन्य पार्टियों को दिया गया था। ‘मेधा इंजीनियरिंग एण्ड इन्फ्रास्ट्रकचर लिमिटेड ने कुल 966 करोड़ रुपये का चन्दा दिया था, जिसमें से अकेले भाजपा को 584 करोड़, भारत राष्ट्र समिति को 195 करोड़, कांग्रेस को 18 करोड़, डीएमके को 85 करोड़ रुपये तथा शेष अन्य पार्टियों को दिया गया था। डीएलएफ़ कमर्शियल डेवेलपर्स ने कुल 130 करोड़ रुपये का चन्दा भाजपा को दिया था। बी. जी. शिकरे कॉन्सट्रक्शन कम्पनी टेक्नोलोजी प्रा. लिमिटेड ने 85 करोड़ रुपये शिवसेना तथा 30 करोड़ रुपये का चन्दा भाजपा को दिया था। चेन्नई ग्रीनवुड प्रा. लिमिटेड ने कुल 50 करोड़ भाजपा को तथा 40 करोड़ रुपये का चन्दा तृणमूल कांग्रेस को दिया था। एनसीसी लिमिटेड ने 60 करोड़ रुपये का चन्दा भाजपा को दिया था। नवयुग इंजीनियरिंग कम्पनी लिमिटेड, जो सिलक्यार-बालकोट सुरंग की घटना में मुख्य ठेका कम्पनी थी, ने भाजपा को इलेक्टोरल बॉण्ड के रूप में 45 करोड़ रुपये का चुनावी चन्दा दिया था। यह लिस्ट काफ़ी लम्बी है। आख़िर ये निर्माण कम्पनियाँ विभिन्न पार्टियों को मज़दूरों की लूट से अर्जित मुनाफ़े का एक हिस्सा चन्दे के रूप में क्यों दे रहीं हैं? मामला साफ़ है : सारी चुनावबाज़ पार्टियाँ इन्हीं पूँजीपतियों के सामूहिक हितों को सुनिश्चित करने के लिए ही तो नीतियाँ बनाती हैं और बदले में मुनाफ़े में अपना हिस्सा लेती हैं।
भारत में निर्माण क्षेत्र में कृषि क्षेत्र के बाद सर्वाधिक मज़दूर काम करते हैं। निर्माण क्षेत्र से देश की जीडीपी का लगभग 9 प्रतिशत से अधिक हिस्सा आता है। यूँ तो हर क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों का बर्बर शोषण होता है परन्तु निर्माण क्षेत्र के मज़दूर अत्यधिक अरक्षित हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर मज़दूर प्रवासी होते हैं तथा अनौपचारिक क्षेत्र में आते हैं। संगठित न होने के कारण ये अपनी माँगों को नहीं उठा पाते। बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी एवं सामाजिक सुरक्षा के अभाव में ये अत्यन्त कम मज़दूरी पर बेहद ख़राब परिस्थितियों में जान जोखिम में डालकर काम करने को मजबूर होते हैं। कार्य की असुरक्षा और इनकी मजबूरी का फ़ायदा सभी निर्माण कम्पनियाँ उठाती हैं। ये तमाम निर्माण कम्पनियाँ जहाँ एक ओर निर्माण स्थलों पर पर्यावरणीय एवं भू-वैज्ञानिक मानकों का उल्लंघन कर प्रकृति का दोहन करती हैं और जानलेवा प्रदूषण जैसी स्थितियों का एक कारण बनती हैं और पारिस्थितिकी तन्त्र को तबाह करती हैं, वहीं दूसरी ओर काम की जगहों पर सुरक्षा इन्तज़ामों की अनदेखी करती हैं। वे ऐसा इसलिए करती हैं ताकि इन पर होने वाले व्यय को कम करके अपने मुनाफ़े को बढ़ा सकें। ऊपर हमने देखा कि किस तरह तमाम घटनाओं में सुरक्षा मानकों की अनदेखी और आपदा प्रबन्धन की धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं और मज़दूरों की जान को जोखिम में डाला जाता है। इन मुनाफ़ाख़ोरों के लिए मज़दूरों की जान की कोई क़ीमत नहीं है।
वैसे तो पूँजीवादी निर्माण उद्योग सदा से ही मज़दूरों-मेहनतकशों के पसीने और खून से ही फलता-फूलता रहा है और निर्माण कम्पनियों की तिजोरियाँ भरता रहा है। परन्तु आज जब पूरी अर्थव्यवस्था एक ढाँचागत मन्द मन्दी का लगातार शिकार है तो निर्माण उद्योग में मज़दूरों की ज़िन्दगी की क़ीमत पर पूँजीपति अन्धाधुन्ध मुनाफ़ा कूटना चाहते हैं। रियल स्टेट में जितनी परिसम्पत्तियाँ बाज़ार में बिकने के लिए प्रति वर्ष उपलब्ध होती हैं वे बिक नहीं पातीं। अपने मुनाफ़े की दर को गिरने से बचाने या और अधिक बढ़ाने के लिए पूँजीपति अपने व्यय को लगातार कम करना चाहते हैं। ऐसे में पर्यावरण को बचाते हुए काम करना, पारिस्थितिकी तन्त्र को बनाये रखने की चिन्ता और उस पर व्यय तथा मज़दूरों की सुरक्षा पर व्यय उन्हें बेमतलब का ख़र्च लगता है। मेहनत और कुदरत की लूट पहले से कहीं अधिक क्रूर रूप में वे करना चाहते हैं। ऐसे में पूँजीपतियों के लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा किसी भी क़ीमत पर उनको मुनाफ़ा कमाने की गारण्टी तो है ही। मोदी सरकार के लेबर कोड का भी असल मक़सद यही है कि मेहनत और कुदरत की लूट में आने वाली सभी बाधाओं को ख़त्म कर धनपिपासु पूँजीपतियों को मज़दूरों की हड्डियों का चूरा बना डालने और उनके ख़ून को सिक्कों में ढालने की पूरी आज़ादी मुहैया करा दी जाये। समूचा पूँजीपति वर्ग मोदी और भाजपा को लाखों करोड़ रुपये का चन्दा यूँही थोड़ी न देता है! सुरक्षा उपायों जैसे कि जूतों, दस्तानों, मास्क, एप्रेन, सेफ़्टी बेल्ट, औद्योगिक चश्मे, हेल्मेट, मज़दूरों के रहने के लिए मानक रिहायशों का निर्माण, स्वच्छ शौचालय व पीने के पानी की व्यवस्था तथा आपदा प्रबन्धन आदि पर ख़र्च इन निर्माण कम्पनियों को बेमतलब लगता है। मज़दूरों की सुरक्षा पर किये जाने वाला एक रुपये का ख़र्च भी इन्हें बेकार लगता है।
पिछले 10 वर्षों में फ़ासीवादी मोदी सरकार के कार्यकाल में निर्माण उद्योगों में सुरक्षा उपायों को और अधिक ताक पर रखकर तेज़ी से इसको बढ़ाया गया है। रहे-सहे श्रम क़ानूनों को लेबर कोड के माध्यम से ख़त्म कर दिया गया है। आज पहले से कहीं अधिक क्रूर और नंगे रूप में निर्माण एजेंसियाँ व पूँजीपति वर्ग, नेता-मन्त्री तथा सरकारी एजेंसियाँ मज़दूरों के श्रम की लूट का हिस्सा आपस में बाँट रही हैं। मुनाफ़े का एक हिस्सा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से नेताओं व नियन्त्रणकारी एजेंसियों की जेब में जाता है। नेताओं के एक बड़े हिस्से का पैसा भी इन निर्माण एजेंसियों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लगा रहता है। निर्माण क्षेत्र काले धन के इस्तेमाल का भी एक बड़ा सेक्टर है। साथ ही यह काले धन का स्रोत भी है। आज न केवल बड़ी निर्माण एजेंसियों की राष्ट्रीय व राज्य स्तर के नेताओं से साठगाँठ है बल्कि ज़िले और ब्लॉक स्तर पर भी ठेकेदारों, रियल एस्टेट एजेंसियों, भूमाफ़ियाओं और प्लॉटिंग एजेंसियों का एमएलए व ब्लॉक प्रमुख जैसे छुटभैया नेताओं से खूब गलबँहियाँ रहती हैं। आज तमाम निर्माण नियामक एजेंसियों व सरकारी संस्थानों के उच्च अधिकारी न केवल अपने सेवा काल में इन निर्माण उद्योग कम्पनियों से मिलीभगत रखते हैं बल्कि सेवानिवृत्ति के बाद इन्हीं कम्पनियों में उच्च पदों पर विराजमान हो जाते हैं और सीधे-सीधे उनके लिए काम करने लगते हैं। अन्य क्षेत्रों की क्या कहा जाये, आज न्यायपालिका के जज तक अपनी सेवानिवृत्ति के बाद विभिन्न पार्टियों और कम्पनियों के लिए काम करना शुरू कर देते हैं। आज यह प्रवृत्ति और अधिक बढ़ती जा रही है। पूँजीपतियों तथा सत्ता की यह पूरी जमात पुलिस थानों से लेकर न्यायपालिका तक, लेबर ऑफ़िसों से लेकर नियामक प्राधिकरणों तक में सक्रिय हैं। इसीलिए दुर्घटनाओं और मौतों के बावजूद इससे कोई सबक लेने और दूर करने की बजाय कुछ लीपा-पोती करने के बाद लूट के इसी पहिये को आगे बढ़ाने में सभी एकजुट हो जाते हैं। आज पूँजीवादी लूट और सत्ता का गँठजोड़ अभूतपूर्व है।
श्रीशैलम लेफ़्ट बैंक कैनाल का यह हादसा निर्माण क्षेत्र में मज़दूरों की लाशों पर खड़े निर्माण उद्योग से मुनाफ़ा कमाने की पूँजीवादी हवस की एक प्रातिनिधिक घटना है। तभी तो ठेका कम्पनी जेपी ग्रुप का प्रमुख जयप्रकाश गौड़ तेलंगाना के सड़क भवन मन्त्री के वी रेड्डी से मीटिंग के बाद मीडिया रिपोर्टरों से बात करते हुए बेख़ौफ़ होकर कहता है कि “मेरे जीवन में इस तरह की छह-सात घटनाएँ हुई होंगी… आपको इन घटनाओं का सामना करना ही होगा।” अर्थात अगर पूँजीपतियों के मुनाफ़े के आधार पर निर्माण कार्य करना है तो मज़दूरों की बलि तो देनी ही होगी!
मज़दूर वर्ग के लिए इस तरह की घटनाओं के क्या मायने हैं? उससे उसे क्या सबक़ लेना है और आगे उसे क्या करना होगा? इस व्यवस्था में मज़दूर जानवरों की तरह खटने और मरने के लिए अभिशप्त है। हम अपने भाइयों-बहनों को इस तरह दफ़्न होते नहीं देख सकते। आज यह चुप्पी बहुत अधिक घातक होगी। अपने ऊपर थोपी गयी इन दमघोंटू स्थितियों को बदलने और मौत के जुवे को उतार फेंकने के लिए मज़दूर आबादी को एकजुट होना ही होगा। अनौपचारिक क्षेत्र के इस बड़े क्षेत्र में अपने क्रान्तिकारी संगठन बनाने होंगे। आज इस फ़ासीवादी निज़ाम और समूचे पूँजीपति वर्ग के खिलाफ़ अपनी एकता से ही हम अपने को बचा पायेंगे। साथ ही हमें इस व्यवस्था की चौहद्दियों में अपनी सुरक्षा तथा वेतन आदि की लड़ाइयों को लड़ते हुए इसके आगे भी सोचना होगा। एक मुनाफ़ा-केन्द्रित मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था के बरक्स मानव केन्द्रित समतामूलक व्यवस्था के लिए भी संघर्ष करना ही होगा, जहाँ उत्पादन करने वाले वर्गों के हाथ में सत्ता की बागडोर हो और फैसला लेने की ताक़त उनके हाथों में हो।
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