Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

सिलिकॉसिस से मरते मज़दूर

अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में खनन, निर्माण और अन्य अलग-अलग उद्योगों में लगे करीब 1 करोड़ मज़दूर सिलिकॉसिस की चपेट में आ सकते हैं। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आई.सी.एम.आर.) की एक रिपोर्ट के अनुसार खनन एवं ख़दानों के 17 लाख, काँच एवं अभ्रक़ उद्योग के 6.3 लाख, धातु उद्योग के 6.7 लाख और निर्माण में लगे 53 लाख मज़दूरों पर सिलिकॉसिस का ख़तरा मँडरा रहा है।

मौत की खदानों में मुनाफे का खेल

जसवंत मांझी एक दिहाड़ी मज़दूर है जो गुजरात के गोधरा में पत्थर की ख़दानों में काम करता है। कुछ साल पहले उसको काम करने में दिक्कत होने लगी थी। फिर कुछ समय बाद बिना काम किये भी साँस फूलने लगी, लगातार खाँसी और थकान रहने लगी, छाती में दर्द रहने लगा, भूख ख़त्म होने लगी, और चमड़ी का रंग नीला पड़ने लगा। इसी तरह के लक्षणों के चलते जसवंत के बड़े भाई, बहन और बहनोई की भी मौत हो चुकी है। सिर्फ़ ये लोग ही नहीं, इनके जैसे 238 मज़दूर गोधरा की इन पत्थर ख़दानों में इसी बीमारी “सिलिकोसिस” के कारण अपनी जान गँवा चुके हैं।

कारख़ानों में सुरक्षा के पुख्ता प्रबंधों के लिए मज़दूरों का डी.सी. कार्यालय पर ज़ोरदार प्रदर्शन

लुधियाना ही नहीं बल्कि देश के सभी कारख़ानों में रोजाना भयानक हादसे होते हैं जिनमें मज़दूरों की मौते होती हैं और वे अपाहिज होते हैं। मालिकों को सिर्फ अपने मुनाफे़ की चिन्ता है। मज़दूर तो उनके के लिए सिर्फ मशीनों के पुर्जे बनकर रह गये हैं। सारे देश में पूँजीपति सुरक्षा सम्बन्धी नियम-क़ानूनों सहित तमाम श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं।

एक और मज़दूर दुर्घटना का शिकार, मुनाफ़े की हवस ने ली एक और मज़दूर की जान!

ऑटोमोबाइल सेक्टर में ऐसी दुर्घटनाएँ कोई नयी बात नहीं है। आये दिन किसी न किसी फैक्ट्री में कम्पनी मैनेजमेंट की आपराधिक लापरवाही की वजह से दुर्घटनाओं में मज़दूर अपनी जान गँवा बैठते हैं या बुरी तरह घायल हो जाते हैं। लाखों मज़दूर अपनी जान जोख़िम में डालकर काम करने के लिए मजबूर हैं।

मालिकों की नज़र में मज़दूर मशीनों के पुर्जे हैं

मालिक और मैनेजमैंट के ही कहने पर प्रेस मशीनों से सैंसर आदि हटा दिये जाते हैं या खराब होने पर ठीक नहीं करवाये जाते। कारख़ाने में माहौल ऐसा बना दिया जाता है कि मशीनों में बहुत सी गड़बड़ियों को ठीक करने का मतलब समय और पैसा खराब करना होगा। मज़दूरों की शिकायतों को कामचोरी मान लिया जाता है।

डोम्बिवली फैक्टरी विस्फोट : मुनाफे़ की हवस व सरकारी लापरवाही ने लील ली कई जानें

कि सरकार ख़ुद इन सुरक्षा नियमों को दफ़नाने में लगी है। और ये सब निवेश को बढ़ावा देने के नाम पर हो रहा है। एक ओर कारख़ानों को नियमों के पालन से छूट दी जा रही है, तो दूसरी ओर नियमों की निगरानी करने वाले विभागों में कारख़ाना इंस्पेक्टरों और अधिकारियों की संख्या को बहुत कम किया जा रहा है।

मुनाफे की खातिर मज़दूरों की हत्याएँ आखिर कब रुकेंगी ?

मज़दूरों की दर्दनाक मौत का कसूरवार स्पष्ट तौर पर मालिक ही है। कारखाने में आग लगने से बचाव के कोई साधन नहीं हैं। आग लगने पर बुझाने के कोई साधन नहीं हैं। रात के समय जब मज़दूर काम पर कारखाने के अन्दर होते हैं तो बाहर से ताला लगा दिया जाता है। उस रात भी ताला लगा था। जिस हॉल में आग लगी उससे बाहर निकलने का एक ही रास्ता था जहाँ भयानक लपटें उठ रही थीं। करोड़ों-अरबों का कारोबार करने वाले मालिक के पास क्या मज़दूरों की जिन्दगियाँ बचाने के लिए हादसों से सुरक्षा के इंतज़ाम का पैसा भी नहीं है? मालिक के पास दौलत बेहिसाब है। लेकिन पूँजीपति मज़दूरों को इंसान नहीं समझते। इनके लिए मज़दूर कीड़े-मकोड़े हैं, मशीनों के पुर्जे हैं। यह कहना जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है कि ये महज हादसे में हुई मौतें नहीं है बल्कि मुनाफे की खातिर की गयी हत्याएँ हैं।

पावर प्रेस मज़दूर की उँगली कटी, मालिक बोला मज़दूर ने जानबूझ कर कटवाई है!

उसका दायाँ हाथ अभी प्रेस के बीच में ही था कि ढीला क्लच दब गया। अँगूठे के साथ वाली एक उँगली कट गयी। मालिक उसे उठाकर एक निजी अस्पताल ले गया। मालिक ने कहा कि वह पुलिस के पास न जाए। पूरा इलाज करवाने, हमेशां के लिए काम पर रखने, मुआवजा देने आदि का भरोसा दिया। गजेंदर मालिक की बातों में आ गया। पन्द्रह दिन भी नहीं बीते थे कि उसे काम से निकाल दिया गया। मालिक ने इलाज करवाना बन्द कर दिया और अन्य किसी भी प्रकार की आर्थिक मदद करने करने से भी साफ मुकर गया।

तीन मज़दूरों की दर्दनाक मौतों का जिम्मेदार कौन?

लुधियाना ही नहीं बल्कि देश के तमाम कारखानों में ये हालात बन चुके हैं। कहीं कारखानों की इमारतें गिर रही हैं, कहीं खस्ताहाल ब्वायलर व डाईंग मशीनें फट रही हैं और कहीं कारखानों में आग लगने से मज़दूर जिन्दा झुलस रहें हैं। और सोचने वाली बात है कि कहीं भी मालिक नहीं मरता, हमेशा गरीब मज़दूर मरते हैं। हादसे होने पर सरकार, पुलिस, प्रशासन, श्रम अधिकारियों की मदद से मामले रफा-दफा कर दिए जाते हैं। बहुतेरे मामलों में तो मालिक हादसे का शिकार मज़दूरों को पहचानने से ही इनकार कर देते हैं। मज़दूरों को न तो कोई पहचान पत्र दिया जाता है और न ही पक्का हाजिरी कार्ड दिया जाता है। ई.एस.आई. और ई.पी.एफ. सहूलतों के बारे में तो मज़दूरों के बड़े हिस्से को पता तक नहीं है। इन हालातों में मालिकों के लिए मामला रफा-दफा करना आसान हो जाता है।

मुनाफ़े की अन्धी हवस में हादसों में मरते मजदूर

हर साल विश्व में कोयला खान हादसों में 20,000 से ज्यादा मज़दूरों की मौत होती है और इसमें बड़ा हिस्सा चीन के भीतर होने वाले हादसों का होता है। भारत में भी अक्सर कोयला खदानों में होने वाली दुर्घटनाओं में मज़दूरों की मौत होती रहती है। लगातार ऐसे हादसों का घटित होना इस पूरी मुनाफे पर टिकी हुई व्यवस्था का ही परिणाम है जिसमें मुनाफ़े के आगे इंसान की जान की कोई क़ीमत नहीं है। हादसों के बाद प्रशासन और सरकारों की ओर से सुरक्षा को लेकर कुछ दिखावटी फैसले किये जाते हैं लेकिन कुछ ही समय बाद मुनाफे के आगे ऐसे फैसलों की असल औकात दिख जाती है और काम फिर से पहले की तरह चलता रहता है। मुनाफे पर टिकी हुई इस पूरी व्यवस्था को उखाड़ कर ही ऐसे हादसों की संभावना को बेहद कम किया जा सकता है।