मेट्रो रेल कॉरपोरेशन और प्रशासन की लापरवाही की वजह से पटना मेट्रो के निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की हुई मौतें
ये मौतें नहीं, व्यवस्था के हाथों हुई हत्याएँ हैं
आकाश
हम जानते हैं कि पूँजीवादी विकास की बुनियाद मज़दूरों और मेहनतकशों की मेहनत की लूट पर टिकी हुई होती है। इस “विकास” की प्रेरक-शक्ति, मूलत: और मुख्यत:, मुनाफे़ की हवस होती है। इसके लिए पूँजीपति मज़दूरों के ख़ून-पसीने और हड्डियों के एक-एक कतरे से मुनाफ़ा निचोड़ने की कोशिश करता है। पूँजीपतियों के बीच मौजूद प्रतिस्पर्द्धा और अधिकतम मुनाफ़े की हवस उसे ऐसा करने को बाध्य करती है। इस दौरान अगर किसी मज़दूर की ज़िन्दगी भी छिन जाए तो उसे कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता। हम यह भी जानते हैं हर दिन न जाने कितने मज़दूर दुनिया के अलग-अलग कोनों में काम के दौरान अपनी ज़िन्दगी गवाँ देते हैं। हम मज़दूरों की बदहाल ज़िन्दगी, हमारी असमय मौतों और हमारे आँसुओं के समन्दर में ही कारखाना-मालिकों, ठेकेदारों, धनी व्यापारियों और समूचे पूँजीपति वर्ग की ऐयाशी की मीनारें खड़ी होती हैं। इसी सच्चाई की एक बानगी पिछले 28 अक्टूबर को देखने को मिली जब पटना में बन रहे मेट्रो रेल के काम के दौरान ‘लोकोमोटर’ वाहन के ब्रेक फेल होने के कारण दो मज़दूरों की मौत हो गयी।
यह मौतें तब हुईं जब मेट्रो निर्माण के दौरान टनल खुदाई कर रहे कुछ मज़दूर लोकोमोटर की चपेट में आ गये। ज़मीन के नीचे बीस फ़ीट की गहराई में जाकर क़रीब एक किलोमीटर अन्दर मज़दूरों को टनल निर्माण का काम करना पड़ रहा है। इस दौरान घटी यह घटना महज़ कोई हादसा नहीं था, जैसा कि प्रशासन और मीडिया साबित करना चाहते हैं। नर्क से भी बदतर हालत में और बिना पर्याप्त सुरक्षा इन्तज़ामात के मज़दूरों से काम करवाए जा रहे हैं। चौबीसों घण्टे लगातार चल रहे काम को दो शिफ़्ट में मज़दूर कर रहे थे। यानी बाक़ायदा श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए 12 घण्टे की शिफ्ट चलायी जा रही है और वह भी सरकार द्वारा मेट्रो रेल निर्माण के काम में। एक शिफ़्ट सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक का होती थी और दूसरी शिफ़्ट रात नौ बजे से सुबह नौ बजे तक का होती थी।
27 तारीख़ की रात को ही रात वाली शिफ़्ट के मज़दूरों ने यह शिकायत की कि खुदाई कर रहे लोकोमोटिव मशीन की ब्रेक काम नहीं कर रही और इसे न चलाया जाए। इससे किसी की जान भी जा सकती है। लेकिन ठेकेदार ने मज़दूरों की एक न सुनी और उनसे कहा गया कि खुदाई जारी रखें। 28 तारीख़ की सुबह नौ बजे शिफ़्ट शुरू होने के आधे घण्टे के अन्दर मशीन का ब्रेक पूरी तरह से फे़ल हो गया और दो मज़दूरों की मृत्यु ऐन मौके पर हो गयी। इसमें आठ मज़दूर बुरी तरह घायल हुए। यह इतना भयावह था कि दोनों मज़दूरों के शरीर का कोई हिस्सा न बचा। जब यह हादसा हुआ तो वहाँ न तो कोई इंजीनियर था और न ही कोई सुपरवाइज़र मौजूद था। ज्ञात हो कि नियमतः उन्हें वहाँ मौजूद होना चाहिए था। लेकिन हम मज़दूरों की ज़िन्दगी का पूँजीपतियों, ठेकेदारों और उनके टट्टुओं के लिए क्या मोल होता है, यह हम आये-दिन देखते ही हैं और इस भयावह और दर्दनाक घटना में भी यह देखने में आया।
पूँजीवादी व्यवस्था का मज़दूर-विरोधी, मानवता-विरोधी रुग्ण चेहरा इस भयावह घटना के बाद भी दिखा जब प्रशासन ने इसपर लीपा-पोती शुरू की। प्रशासन की तरफ़ से बताया गया कि यह एक दुर्घटना है जिसमें दो मज़दूरों की मौत हुई है और उन मज़दूरों के परिवार वालों को मुआवज़ा देने की घोषणा हो चुकी है। इसके साथ ही डीएम ने सुरक्षा के नियमों का पालन हो रहा है या नहीं, इस पर जाँच कमिटी बैठाने की बात करके खानापूर्ति करने की क़वायद शुरू कर दी। सरकार और प्रशासन ने जैसे-तैसे करके मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिशें शुरू कर दीं।
इस बीच वहाँ काम करने वाले मज़दूरों की तरफ़ से बताया गया कि इस दुर्घटना में सिर्फ़ दो लोगों की मौत नहीं हुई है बल्कि और भी लोग मलबे के नीचे दबे हुए हैं। लेकिन इस पर प्रशासन की तरफ़ से कोई कारवाई करना तो दूर, बल्कि लीपा-पोती की गयी। मज़दूरों की माँग थी कि मलबे में दबे उनके साथियों को बाहर निकाला जाये और इस पूरी घटना में मृतकों के परिवार वालों को उचित मुआवज़ा दिया जाये। इन्ही माँगों को लेकर जब पटना के एन.आई.टी मोड़ पर कई मज़दूरों ने सड़क जाम कर दिया तब वहाँ बड़ी संख्या में तैनात पुलिस-प्रशासन का मज़दूर-विरोधी रवैया साफ़ देखने को मिला। अगर काम की जगह पर सुरक्षा इन्तज़ामों और सुरक्षा के लिए आवश्यक कर्मियों और अधिकारियों की भी इसी मुस्तैदी से तैनाती की गयी होती तो मारे गये मज़दूरों की जान बच सकती थी। लेकिन इससे पूँजीपतियों के मुनाफ़े में कमी आती है, क्योंकि ये सारे सुरक्षा इन्तज़ामात करने पर ख़र्च होते हैं। इसलिए मज़दूरों को इस तरह से मरने के लिए छोड़ दिया जाता है।
इस मसले पर कोई आश्वासन देने या वार्ता करने के बजाय प्रशासन ने मज़दूरों को हड़ताल न करने की धमकी दी। इसके साथ ही किसी भी प्रकार का विरोध या प्रदर्शन करने पर उन पर लाठीचार्ज करने की भीधमकी दी गयी। वहीं दूसरी तरफ़ मृतकों की मृत शरीर तक घर वालों को नहीं सौंपे जा रहे थे और कई मज़दूर इसके लिए धरने पर बैठे थे। बाद में यह पता चला कि मृतक मज़दूरों के मृत शरीर को सीधे उन मज़दूरों के गाँव भेज दिया गया है। स्पष्ट है कि प्रशासन और उसके तहत काम कर रही ठेका कम्पनियों व ठेकेदारों को बचाने के लिए बिहार की मज़दूर-विरोधी फ़ासीवादी भाजपा के चल रही “सुशासन बाबू” की सरकार ने पूरी मुस्तैदी से काम किया था।
यह साफ़ है कि मज़दूरों की मौत किसी दुर्घटना की वजह से नहीं हुई है। बल्कि मेट्रो रेल कॉरपोरेशन की, जिसके तहत यह निर्माण कार्य हो रहा है, और बिहार सरकार व प्रशासन की लापरवाही की वजह से हुई है। सुरंग में मिट्टी उठाने वाली मशीन के ब्रेक के ढीले होने की समस्या काफ़ी पहले ही मज़दूरों द्वारा इंगित करवायी गयी थी लेकिन इस पर कोई क़दम नहीं उठाया गया। फिर उसी मशीन के ब्रेक फेल होने की वजह से कम-से-कम दो मज़दूरों की मौत हो गयी और 6 लोग गम्भीर रूप से घायल हुए। इस घटना में सबसे पहले तो मेट्रो रेल कॉरपोरेशन की जवाबदेही बनती है कि मशीन के ब्रेक ख़राब होने के बावजूद भी उसे ठीक क्यों नहीं करवाया गया और मज़दूरों को उसी मशीन से काम करने को क्यों मजबूर किया गया। जैसा कि हमने पहले बताया, मज़दूरों का यह भी कहना था कि काम करते वक़्त किसी भी इंजीनियर या सुपरवाइज़र की मौजूदगी नहीं रहती है। दूसरी तरफ़ ऐसे जोख़िम भरे काम में मज़दूरों को कोई सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं कराये जाते हैं और ना ही किसी किस्म की मेडिकल सुविधा ही दी जाती है। ऐसे में यह साफ़ है कि इस तरह की घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार यह कॉरपोरेशन और प्रशासन और उसकी आपराधिक पूँजीपरस्ती और लापरवाही है! दूसरी तरफ़ मज़दूरों से जबरन 12 -13 घण्टे काम करवाया जाता है और काम नहीं करने पर उन्हें काम से निकाल देने की धमकी दी जाती है। सीधे तौर पर मज़दूरों के कानूनी अधिकारों को ताक पर रख दिया गया है। ना तो काम के घण्टे का कानून लागू हो रहा है और ना ही सुरक्षा के नियम लागू हो रहे हैं। और ऐसे में इस दुर्घटना के बाद जब मज़दूर प्रदर्शन कर रहे होते हैं उनका बर्बर दमन किया जाता है या उन्हें डराया-धमकाया जाता है।
इसके साथ ही बिहार में “डबल इंजन” की सरकार यानी फ़ासीवादी भाजपा और पलटू कुमार की गठबन्धन सरकार भी इसके लिए उतनी ही दोषी है। ऐसा नहीं है कि नीतीश सरकार को इस परिस्थिति की जानकारी नहीं है। लेकिन बिहार का “विकास” करवाने की और इस प्रक्रिया में पूँजीपतियों को करोड़ों-अरबों रुपये पीटने देने की होड़ में नीतीश कुमार इतने मगन हैं कि उन्हें इस बात से फ़र्क नहीं पड़ता है कि इसमें कितने लोग मारे जा रहे हैं ! पिछले कुछ सालों में ही पुल गिरने के हादसों में राज्य का अव्वल स्थान रहा है। राज्य के मुख्यमंत्री को किसी ना किसी तरह 2025 के चुनावों से पहले “विकास” के इस कीर्तिमान का उद्घाटन कर अपने नाम पर इसका प्रचार करवाना है, यानी मेट्रो रेल का उद्घाटन कम-से-कम एक लाइन पर करवाना है। इसके लिए पूँजीपतियों और ठेकेदारों को सारे नियम-क़ायदे ताक पर रखकर और मज़दूरों की जान को और भी ज़्यादा जोखिम में डालकर काम करवाने की खुली छूट दे रखी गयी है। ऐसे में, भविष्य में और भी मज़दूरों की मुनाफ़ाखोरी में हत्याएँ होने की उम्मीद की जा सकती है। सरकार और प्रशासन न तो मज़दूरों के पक्ष में खड़ा होता है और न ही भविष्य में होगा। हमारे जीवन को ऐयाशी में नहाने वाले पूँजीपति वर्ग और उसके नुमाइन्दे कीड़े-मकोड़ों का जीवन समझते हैं। हमारी मौत उनके लिए एक अखबारी ख़बर भी नहीं होती। हमसे ज़्यादा कीमती जान वे अपने पालतू जानवरों की समझते हैं।
सवाल यह है कि क्या हम अपने जीवन की कीमत समझते हैं? क्या यूँ कीड़े-मकोड़ों के समान गुमनाम मौतें मरने रहना हमें स्वीकार है? क्या अपने बच्चों के लिए यह भविष्य हमें स्वीकार है? क्या हम इंसानी जीवन की गरिमा का अहसास रखते हैं? अगर हाँ, तो हमें इस समूचे मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था के विरुद्ध गोलबन्द और एकजुट होना ही होगा। वरना हम यूँ ही जानवरों की तरह मारे जाते रहेंगे।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2024
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन