Category Archives: इतिहास

आरएसएस के 100 साल – संघ की सच्चाई और देश के मेहनतकशों से ग़द्दारी की दास्तान

आजादी की लड़ाई और आरएसएस का क्या सम्बन्ध है? कुछ नहीं! आइए देखते हैं। 1925 में विजयदशमी के दिन संघ की स्थापना होती है। अपनी स्थापना से लेकर 1947 तक संघ ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ किसी लड़ाई में कोई हिस्सा नहीं लिया। इतना ही नहीं अंग्रेज़ों को कई माफ़ीनामे भी लिखे और अंग्रेज़ी हुकूमत के प्रति वफ़ादार रहते हुए किसी भी आन्दोलन में शामिल नहीं होने का वादा तक किया। इसके साथ ही जो नौजवान आज़ादी की लड़ाई में शामिल होना चाहते थे उन्हें शामिल होने से भी रोका। इस बात की पुष्टि के लिए हम कुछ उदाहरण देख सकते हैं।

ज़ायनवादी इज़रायली हत्यारों के हाथों फ़िलिस्तीनी जनता के जनसंहार का विरोध करो!

फ़िलिस्तीन की जनता साल 1948 में इज़रायल नामक सेटलर बस्ती के जन्म के साथ ही भीषण जनसंहार की चपेट में है। उससे भी पहले ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की रहनुमाई में 1917 में हुई बालफोर घोषणा के बाद से ही ज़ायनवादी हथियारबन्द गुण्डा गिरोह यहाँ की आम आबादी को निशाना बनाते रहे थे। विभिन्न चढ़ाव-उतार से होता हुआ आज़ादी और न्याय के लिए फ़िलिस्तीनी जनता का मुक्ति संघर्ष तब से लेकर आज तक जारी है। हम भारतीय जन जिन्होंने तक़रीबन 200 वर्ष तक औपनिवेशिक ग़ुलामी झेली है, वे इस संघर्ष की अहमियत को और आज़ादी की क़ीमत को अच्छी तरह से समझ सकते हैं। अपने निर्माण के साथ ही इज़रायली सेटलर औपनिवेशिक कॉलोनी ने फ़िलिस्तीनी क़ौम को ख़ून की नदी में डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। असल में इज़रायल कोई देश या राष्ट्र नहीं है बल्कि यह एक जारी औपनिवेशिक परियोजना है जिसका मक़सद अरब देशों में स्थित कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के संसाधनों पर पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों और अमरीकी साम्राज्यवाद के क़ब्ज़े और प्रभाव को बनाये रखना और पूरे क्षेत्र में पश्चिमी साम्राज्यवाद के वर्चस्व को बनाये रखना है और जिसका अस्तित्व ही फ़िलिस्तीनी राष्ट्र की क़ीमत पर क़ायम हुआ है।

मई दिवस की है ललकार, लड़कर लेंगे सब अधिकार!

आज़ादी के बाद से केन्द्र व राज्य में चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, सभी ने पूँजीपति वर्ग के पक्ष में मज़दूरों के मेहनत की लूट का रास्ता ही सुगम बनाया है। लेकिन 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद और ख़ास-कर मोदी के सत्तासीन होने के बाद से मज़दूरों पर चौतरफ़ा हमला बोल दिया गया है। चार नए लेबर कोड के ज़रिये मज़दूरों के 8 घण्टे काम के नियम, यूनियन बनाने, कारख़ानों में सुरक्षा उपकरण आदि के अधिकार को ख़त्म कर दिया गया है। विरोध प्रदर्शनों को कुचलने लिए प्रशासन और पूँजीपतियों को वैध-अवैध तरीक़ा अपनाने की खुली छूट दे दी गयी है। जर्जर ढाँचे और सुरक्षा उपकरणों की कमी के चलते कारख़ाने असमय मृत्यु और अपंगता की जगहों में तब्दील हो गये हैं। हवादार खिड़कियाँ, ऊँची छत, दुर्घटना होने पर त्वरित बचाव के साधन नहीं हैं।

बरगदवा, गोरखपुर के मज़दूरों ने मई दिवस को संकल्प दिवस के रूप में मनाया

पिछली 1 मई को (अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस) ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ और ‘टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन’ द्वारा गोरखपुर के बरगदवा में संकल्प दिवस के रूप में मनाया गया। कार्यक्रम की शुरुआत मई दिवस के शहीदों की तस्वीर पर माल्यार्पण और ‘कारवाँ चलता रहेगा’ गीत से किया गया। ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के प्रसेन ने मई दिवस के इतिहास पर और इस इतिहास से मजदूरों की अनभिज्ञता, शासक वर्ग द्वारा इस विरासत को धूल-मिट्टी डालकर दबाने की साज़िश पर विस्तार से बात रखी।

दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों ने मई दिवस की क्रान्तिकारी विरासत को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया!

1 मई यानी मज़दूर दिवस के मौक़े पर दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन ने आम सभा का आयोजन किया। दिल्ली के सेण्ट्रल पार्क में आयोजित होने वाली इस सभा को रोकने की पुलिस व प्रशासन द्वारा काफ़ी कोशिशें की गयी। महिलाएँ पार्क में बैठकर बातचीत न कर पायें इसलिए पार्क के सभी प्रवेश द्वारों को बन्द कर दिया गया और आसपास भी बैठ रही महिलाकर्मियों को पुलिस द्वारा फ़र्ज़ी मुकदमे का डर दिखाकर डराया-धमकाया जाने लगा। इन सबके बावज़ूद महिलाओं ने अपनी सभा चलाने की ठानी और राजीव चौक के एक अन्य पार्क में बैठकर ‘मई दिवस के क्रान्तिकारी इतिहास और आज के वक़्त में इसकी ज़रूरत’ पर अपनी बातचीत को जारी रखा।

मई दिवस 2025 – रस्म-अदायगी से आगे बढ़कर मज़दूर वर्ग के अधिकारों पर असली जुझारू लड़ाई के लिए जागो! गोलबन्द हो! संगठित हो!

आज पूरी दुनिया में यह तथ्य स्वीकार किया जाता है कि इन मज़दूर नेताओं को केवल उनके क्रान्तिकारी विचारों और मज़दूर वर्ग को उसकी जायज़ माँगों के लिए संगठित करने के लिए पूँजीपति वर्ग की शह पर सज़ा दी गयी थी। पूँजीपति वर्ग को यह लगता था कि इसके ज़रिये वे मज़दूरों के आठ घण्टे के कार्यदिवस व अन्य माँगों के लिए उभरते आन्दोलन को कुचल सकेंगे। लेकिन हुआ इसका उल्टा। फाँसी पाने वाले एक मज़दूर नेता ऑगस्ट स्पाइस ने फाँसी की सज़ा सुनाये जाने के बाद कठघरे से ही पूँजीपति वर्ग को चुनौती देते हुए एलान किया था : “एक दिन हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से कहीं ज़्यादा ताक़तवर साबित होगी, जिनका आज तुम गला घोंट रहे हो।” स्पाइस के इस एलान को इतिहास ने सही साबित किया।

अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस 1 मई को रस्म या छुट्टी का दिन नहीं, अपने क्रान्तिकारी पुरखों की जीत के जश्न और पूँजी की जकड़बन्दी को छिन्न-भिन्न करने के फ़ौलादी संकल्प का दिन बनाओ!

मज़दूरों ने जब आठ घण्टे के काम की माँग की थी तब उस समय तकनीक और मशीनें आज की मशीनों और तकनीक के मुक़ाबले बहुत पिछड़ी हुई थीं। अब जबकि मशीनें और तकनीक इतनी उन्नत हो चुकी हैं कि काम व समूचे माल के निर्माण को छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़कर काम को सरल व तेज़ रफ़्तार से किया जाना सम्भव बना दिया गया है। तब मज़दूर की मज़दूरी का हिस्सा घटता जा रहा है और काम के घण्टे बढ़ते जा रहे हैं। 1984 में जहाँ कुल उत्पादन लागत का 45 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी के रूप में दिया जाता था वो 2010 तक घटकर 25 प्रतिशत रह गया। संगठित क्षेत्र में पैदा होने वाले हर 10 रूपये में मज़दूर वर्ग को केवल 23 पैसे मिलता है। ऑटो सेक्टर में एक विश्लेषण के अनुसार तकनीकी विकास के हिसाब से ऑटो सेक्टर का मज़दूर 8 घण्टे के कार्यदिवस में अपनी मज़दूरी के बराबर का मूल्य मात्र 1 घण्टे 12 मिनट में पैदा कर देता है, जबकि 6 घण्टे 48 मिनट मज़दूर बिना भुगतान के काम करता है। मज़दूरों की मेहनत की इसी लूट से एक ओर ग़रीबी और दूसरी ओर पूँजी का अम्बार खड़ा होता है।

रोज़ा लक्ज़मबर्ग की याद में

रोज़ा लक्ज़मबर्ग एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी थीं। उनको याद करते हुए लेनिन ने कहा था – “गरुड़ कभी-कभी मुर्गियों से नीची उड़ान भर सकते हैं। लेकिन मुर्गियाँ  कभी भी गरुड़ के बराबर ऊँचाई तक नहीं उठ सकती हैं। …अपनी ग़लतियों के बावजूद वह हमारे लिए गरुड़ थीं और रहेंगी। न केवल दुनियाभर के कम्युनिस्ट उनकी याद को ज़िन्दा रखेंगे बल्कि उनकी जीवनी और उनका पूरा काम पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित करने के लिए महत्वपूर्ण सामग्री का काम करेंगे।”

नौसेना विद्रोह – देश के मेहनतकशों की ऐतिहासिक विरासत

नौसेना विद्रोह का संघर्ष हमें दिखाता है कि किस तरह वास्तविक संघर्ष संगठित होने पर अंग्रेज़ों के साथ-साथ देसी हुक़्मरानों की भी नींद उड़ गयी थी। काँग्रेस के नेतृत्व में लड़ी गयी आज़ादी की लड़ाई में काँग्रेस ने कभी भी जनता की पहलक़दमी को निर्बंध होने नहीं दिया और उसको इसी व्यवस्था के भीतर सीमित करती रही तथा ‘समझौता-दबाव-समझौता’ की नीति के तहत राजनीतिक आज़ादी की लड़ाई को लड़ती रही। यदि जनता अपनी पहलक़दमी पर कोई आन्दोलन करती तो काँग्रेस उसके साथ वहीं रुख़ अपनाती थी जो उसने नौसेना विद्रोह के साथ अपनाया।

विश्व सर्वहारा के महान क्रान्तिकारी शिक्षक एंगेल्स के जन्मदिवस (28 नवम्बर) पर

मार्क्स से मुलाकात से पहले ही मार्क्स और एंगेल्स के विचारों में इतनी समानता थी कि पूँजीवादी समाज के बारे में दोनों ही लगभग समान निष्कर्ष तक पहुँच चुके थे। इसी का परिणाम था कि अपनी पहली मुलाकात के वर्ष में ही दोनों के साझे प्रयास से “पवित्र परिवार” नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। जिसका उद्देश्य मुख्यतः जनता के लिए परिकल्पनात्मक दर्शन की भ्रान्तियों का खण्डन करना था। ‘पवित्र परिवार’ के प्रकाशित होने से पहले ही एंगेल्स ने मार्क्स और रूगे की जर्मन फ़्रांसीसी पत्रिका में अपनी रचना “राजनीतिक अर्थशास्त्र पर आलोचनात्मक निबन्ध” प्रकाशित किया था जिसमें उन्होंने समाजवादी दृष्टिकोण से समकालीन, आर्थिक व्यवस्था की परिघटनाओं को जाँचा-परखा और पाया कि ये निजी स्वामित्व के प्रभुत्व के अनिवार्य परिणाम हैं। 1845 में एंगेल्स ने अपना व्यावसायिक जीवन और परिवार त्याग दिया और बार्मेन छोड़कर ब्रसेल्स चले गये। ब्रसेल्स में ही एंगेल्स ने मार्क्स के साथ मिलकर अपने दार्शनिक और आर्थिक सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने का काम शुरू किया।