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लोग राजनीति में हमेशा से धोखाधड़ी और ख़ुद को धोखे में रखने के नादान शिकार हुए हैं और तब तक होते रहेंगे जब तक वे तमाम नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक कथनों, घोषणाओं और वायदों के पीछे किसी न किसी वर्ग के हितों का पता लगाना नहीं सीखेंगे।
…सभी देशों के मज़दूर आन्दोलन के इतिहास से यह पता चलता है कि मज़दूरों के सबसे अग्रणी संस्तर ही समाजवाद के विचारों को सबसे पहले और सबसे अच्छी तरह ग्रहण करते हैं। इन संस्तरों से ही वे हरावल मज़दूर आते हैं जिन्हें हर मज़दूर आन्दोलन आगे बढ़ाता है, वे मज़दूर जो मज़दूर समूहों का पूरा विश्वास पा सकते हैं, जो सर्वहारा की शिक्षा और संगठन के कार्य में अपना सर्वस्व अर्पित करते हैं, जो पूरी तरह सचेतन रूप से समाजवाद को स्वीकार करते हैं और जिन्होंने स्वतंत्र रूप से समाजवादी सिद्धान्त निरूपित तक कर लिये हैं।
पिछले साल, 1912 के नवम्बर में, फ़्रांसीसी मज़दूर कवि, सर्वहारा वर्ग के प्रसिद्ध गीत, “इण्टरनेशनल” (“उठ जाग, ओ भूखे बन्दी,” आदि) के लेखक यूजीन पोतिए की मृत्यु को हुए पच्चीस वर्ष पूरे हो गये। (उनकी मृत्यु 1887 में हुई थी।) उनके इस गीत का सभी यूरोपीय तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। कोई भी वर्ग चेतन मज़दूर चाहे जिस देश में वह पहुँच जाये, क़िस्मत उसे चाहे जहाँ ढकेलकर ले जाये, भाषा-विहीन, नेत्र-विहीन, अपने देश से दूर कहीं वह चाहे जितना अजनबी महसूस करे – “इण्टरनेशनल” (मज़दूरों के अन्तर्राष्ट्रीय गीत) की परिचित टेकों के माध्यम से वह वहाँ अपने लिए साथी और मित्र ढूँढ़ सकता है।
“जब भी इन सेनाओं और जत्थों की सामाजिक संरचना और भ्रष्ट आचरण के चलते ऐसा अवसर उत्पन्न हो जाये; तो (सेना में) विघटन की स्थिति उत्पन्न करने के लिए आन्दोलनात्मक प्रचार के हर अनुकूल क्षण का पूरा उपयोग किया जाना चाहिए। जहाँ पर भी इसका पूँजीवादी चरित्र एकदम उजागर हो, मिसाल के तौर पर अफ़सरों की कोर में, वहाँ पूरी जनता के सामने उसे बेनक़ाब करना चाहिए तथा उन्हें इतनी अधिक घृणा और सार्वजनिक तिरस्कार का पात्र बना देना चाहिए कि अपने ख़ुद के अलगाव के कारण वे भीतर से ही विघटन के शिकार हो जायें।”
लेनिन अपने पतलून की जेबों में हाथ खोंसे खड़े थे। दो खिड़कियों और ऊँची, मेहराबी छत वाला यह कमरा बहुत ठण्डा और नम था। जाड़े के अन्तिम सप्ताहों में कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी। व्लादीमिर इल्यीच गोलों से छलनी बने शस्त्रागार, क्रेमलिन दीवार के एक हिस्से और बैरक़ों को देख सकते थे। त्रोइत्स्काया मीनार जिसके शिखर पर एक विशाल उकाब धुँधले आकाश की पृष्ठभूमि पर साफ़ नज़र आता था, यहाँ से उतनी बड़ी नहीं लगती थी, जितनी कि मानेज की ओर से। चौक में, जिसमें छोटी और गोल बटियों के जहाँ-तहाँ धँस जाने से गड्ढे बन गये थे, खूँटी की तरह मुड़े हुए तिनकों जैसी बत्तियों की पंक्ति शस्त्रागार से निकोल्स्काया मीनार तक फैली हुई थी।
हमारी राय में, हमारे कामों की शुरुआत, जिस संगठन को हम बनाना चाहते हैं उसके निर्माण की दिशा में हमारा पहला क़दम, एक अखिल रूसी राजनीतिक अख़बार की स्थापना होना चाहिए। हम कह सकते हैं कि यही वह मुख्य सूत्र है जिसे पकड़ कर हम संगठन का लगातार विकास कर सकेंगे और उसे गहरा और विस्तृत बना सकेंगे।
रूसी क्रान्ति के नेता लेनिन के कुछ रोचक संस्मरण, मज़दूर संघर्षों को एक सूत्र में पिरोने वाले इन्क़लाबी अख़बार ‘ईस्क्रा’ की तैयारी के सम्बन्ध में
बात यह है कि किसान भी तरह-तरह के हैं: ऐसे भी किसान हैं, जो ग़रीब और भूखे हैं, और ऐसे भी हैं, जो धनी बनते जाते हैं। फलतः ऐसे धनी किसानों की गिनती बढ़ रही है, जिनका झुकाव ज़मींदारों की ओर है और जो मज़दूरों के विरुद्ध धनियों का पक्ष लेंगे। शहरी मज़दूरों के साथ एकता चाहने वाले गाँव के ग़रीबों को बहुत सावधानी से इस बात पर विचार करना और उसकी छानबीन करनी चाहिए कि इस तरह से धनी किसान कितने हैं, वे कितने मज़बूत हैं और उनकी ताक़त से लड़ने के लिए हमें किस तरह के संगठन की ज़रूरत है। अभी हमने किसानों के बुरे सलाहकारों का जि़क्र किया था। इन लोगों को यह कहने का बहुत शौक़ है कि किसानों के पास ऐसा संगठन पहले ही मौजूद है। वह है मिर या ग्राम-समुदाय। वे कहते हैं, ग्राम-समुदाय एक बड़ी ताक़त है। ग्राम-समुदाय बहुत मज़बूती के साथ किसानों को ऐक्यबद्ध करता है; ग्राम-समुदाय के रूप में किसानों का संगठन (अर्थात संघ, यूनियन) विशाल (मतलब कि बहुत बड़ा, असीम) है।
अख़बार की भूमिका मात्र विचारों का प्रचार करने, राजनीतिक शिक्षा देने, तथा राजनीतिक सहयोगी भरती करने के काम तक ही नहीं सीमित होती। अख़बार केवल सामूहिक प्रचारक और सामूहिक आन्दोलनकर्ता का ही नहीं बल्कि एक सामूहिक संगठनकर्ता का भी काम करता है। इस दृष्टि से उसकी तुलना किसी बनती हुई इमारत के चारों ओर खड़े किये गये बल्लियों के ढाँचे से की जा सकती है। इस ढाँचे से इमारत की रूपरेखा स्पष्ट हो जाती है और इमारत बनाने वालों को एक दूसरे के पास आने-जाने में सहायता मिलती है जिससे वे काम का बँटवारा कर सकते हैं और अपने संगठित श्रम के संयुक्त परिणामों पर विचार-विनिमय कर सकते हैं।
मज़दूर साथियो, आपका क्या ख़याल है : जब शुद्ध आय 24 करोड़ से बढ़कर 50 करोड़ हो जाये, यानी दो वर्ष में 26 करोड़ बढ़ जाये, तो क्या दस या बीस करोड़ रूबल टैक्स नहीं वसूला जाना चाहिए था? क्या मज़दूरों और ग़रीब किसानों को निचोड़कर बटोरे गये 26 करोड़ के अतिरिक्त मुनाफ़े में से, स्कूलों और अस्पतालों के लिए, भूखों की मदद के लिए और मज़दूरों के बीमा के लिए, कम से कम बीस करोड़ नहीं ले लिये जाने चाहिए थे?