अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की प्रमुख नेता और महान क्रान्तिकारी रोज़ा लक्ज़मबर्ग के जन्मदिवस (5 मार्च) पर
रोज़ा लक्ज़मबर्ग की याद में

अमित

आज बर्लिन में पूँजीपति और सामाजिक जनवादी जश्न मना रहे हैं। वे कार्ल लीब्कनेख्त रोज़ा लक्ज़मबर्ग को क़त्ल करने में सफल हो गये हैं। ईबर्ट और शिडेमान, जिन्होंने सालों-साल मज़दूरों का शिकार करने के लिए उन्हें कसाईखाने पहुँचाया, ने अब सर्वहारा नेताओं के क़ातिलों की भूमिका अपना ली है। जर्मनी का उदाहरण दिखाता है कि लोकतन्त्र केवल पूँजीवादी लूट और बर्बर हिंसा का चक्रव्यूह है। कसाइयों का नाश हो।”  – लेनिन (रोज़ा लक्ज़मबर्ग की शहादत पर)

रोज़ा लक्ज़मबर्ग का जन्म 5 मार्च 1871 को पोलैण्ड के ज़मोस्क शहर में हुआ था। मात्र 16 वर्ष की आयु में ही क्रान्तिकारी आन्दोलन में सक्रिय हो जाने वाली रोज़ा लक्ज़मबर्ग को 1889 में देश छोड़कर स्विटजरलैण्ड जाना पड़ गया। 1893 में उन्होंने एसडीकेपी (सोशल डेमोक्रेसी ऑफ़ किंगडम ऑफ़ पोलैण्ड) नाम से एक पार्टी का गठन किया। मात्र 22 वर्ष की आयु में उन्हें पोलैण्ड की पार्टी द्वारा द्वितीय इण्टरनेशनल के लिए चुना गया था। 1898 में रोज़ा जर्मनी चली आयीं और जर्मनी में कम्युनिस्ट में सक्रिय होने के साथ ही उन्होंने बर्नस्टीन के संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष शुरु कर दिया। 1900 में प्रकाशित अपनी पुस्तिका ‘सुधार या क्रान्ति’ के ज़रिये रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने बर्नस्टीन के संशोधनवाद पर ज़बरदस्त चोट की। उन्होंने लिखा – “क्रान्ति के हथौड़े की चोट से, यानी सर्वहारा द्वारा राजनीतिक सत्ता पर विजय पाने से ही (पूँजीवादी समाज और समाजवादी समाज के बीच की) दीवार टूट सकती है।”

1905 की रुसी क्रान्ति में भाग लेने के लिए वह वारसा गयीं। मार्च 1906 में उन्हें ज़ार के शासन द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया। बाद में उन्हें स्वास्थ्यगत कारणों से जमानत दी गयी जिसका लाभ उठाकर वह पुनः जर्मनी चली गयीं। 1905 की रूसी क्रान्ति के अनुभवों ने बोल्शेविकों की कार्यप्रणाली में उनके विश्वास को और अधिक बढ़ा दिया।

1907 के द्वितीय इण्टरनेशनल के सम्मेलन में लेनिन के साथ मिलकर उन्होंने साम्राज्यवाद और युद्ध के विरुद्ध प्रस्ताव तैयार किया। लेनिन ने इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने के लिए रोज़ा को ही आगे किया। रोज़ा लक्ज़मबर्ग और उनके साथियों ने प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत से पहले ही युद्ध की आहट को भाँप लिया था और इसके ख़िलाफ़ मोर्चेबन्दी में जुट गयी थीं। प्रथम विश्वयुद्ध के दौर में जब जर्मनी और यूरोप की ज़्यादातर सामाजिक जनवादी पार्टियाँ और कार्ल काउत्सकी जैसे नेता तक युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवादी उन्माद में बह रहे थे, रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने इसके ख़िलाफ़ डटकर लोहा लिया।

कार्ल लीब्कनेख्त आदि नेताओं के साथ मिलकर रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने स्पार्टकस लीग बनायी। आगे चलकर दिसम्बर 1918 में रोज़ा लक्ज़मबर्ग, कार्ल लीब्कनेख़्त, मेहरिंग, क्लारा जे़टकिन आदि के नेतृत्व में जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया गया।

15 जनवरी 1919 को कम्युनिस्ट विद्रोह भड़काने के आरोप में रोज़ा लक्ज़मबर्ग और कार्ल लीब्कनेख़्त को गिरफ़्तार किया गया। कार्ल लीब्कनेख़्त को गोली मार दी गयी। रोज़ा लक्ज़मबर्ग के सिर पर बन्दूक की बट से प्रहार किया गया और उसके बाद उनके सिर में भी गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गयी। इस प्रकार मात्र 48 साल की उम्र में रोज़ा लक्ज़मबर्ग शहीद हो गयीं। अपनी शहादत के कुछ दिनों पहले उन्होंने लिखा था –

वर्तमान नेतृत्व पूर्णत: असफल हो चुका है। नये नेतृत्व का जन्म जनता के बीच से, जनता द्वारा किया जाना चाहिए, केवल जनता ही निर्णायक शक्ति है। वही वह चट्टान है जिस पर बनी इमारत पर क्रान्ति की शीर्ष विजय पताका फहरायी जायेगी। इतिहास साक्षी है जनता पहले भी उच्चतम स्थान पर थी, आगे भी रहेगी। हाल की उसकी पराजय अनेकानेक ऐतिहासिक पराजयों की एक मामूली सी कड़ी है जो अन्तर्राष्ट्रीय समाजवाद के लिए गर्व और गर्माहट पैदा करने वाला है… मूर्ख तानाशाह, तुम्हारी हुक़ूमत रेत पर बनी इमारत है। वक्त चुका है। क्रान्ति कल फिर तुम्हारा दरवाजा खटखटायेगी और तुम्हारे दरवाजे पर खड़े होकर आतंक को फिर से ललकारेगी – मैं थी, मैं हूँ और मैं हमेशा रहूँगी।”

रोज़ा के जन्मदिवस पर उनको याद करते हुए न केवल उनके शानदार क्रान्तिकारी जीवन और उनकी शहादत से प्रेरणा लेने की ज़रूरत है बल्कि रोज़ा लक्ज़मबर्ग और लेनिन के बीच के मतभेदों का हवाला देकर कम्युनिस्ट विरोधी दुष्प्रचार का भी पर्दाफ़ाश करने की ज़रूरत है। वास्तव में एक बड़ी आबादी इस बात से अपरिचित है कि लेनिन के साथ जिन सवालों पर रोज़ा लक्ज़मबर्ग के मतभेद थे, वह उनकी शहादत के समय तक अधिकांशत: समाप्त हो चुके थे। किसान प्रश्न, राष्ट्रीय प्रश्न और जनवाद के प्रति एक ग़ैर-सर्वहारा नज़रिये पर लेनिन के रोज़ा लक्ज़मबर्ग के साथ मतभेद थे। लेकिन राष्ट्रीय प्रश्न की लेनिनवादी नीति को छोड़कर रोज़ा अपनी शहादत से पहले अन्य दोनों मसलों पर लेनिन से सहमत हो चुकी थीं, जैसा कि क्लारा ज़ेटकिन ने एक अन्य क्रान्तिकारी को रोज़ा द्वारा लिखे गये पत्र का हवाला देते हुए बताया था। ज़्यादातर कम्युनिस्ट आन्दोलन के ग़द्दार लेनिन के द्वारा बुर्जुआ जनवाद की संस्था संविधान सभा को अक्टूबर क्रान्ति के बाद भंग किये जाने के सवाल पर रोज़ा की तात्कालिक आपत्ति का हवाला देते हुए आज भी बुर्जुआ जनवादी विभ्रम फैलाने में लगे रहते हैं। लेकिन ये बेईमान यह नहीं बताते कि रोज़ा स्वयं अपनी इस आपत्ति को छोड़ चुकीं थीं और लेनिन से इस बात पर सहमत हो चुकीं थीं कि मज़दूर जनवाद की संस्थाओं, यानी सोवियतों के अस्तित्व में आने के बाद, बुर्जुआ निर्वाचन मण्डलों के आधार पर चुनी गयी एक बुर्जुआ जनवादी संस्था, यानी संविधान सभा की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी थी। रोज़ा लक्ज़मबर्ग की साथी रहीं क्लारा जेटकिन ने इस बात को स्पष्ट किया है कि रोज़ा के विचार वास्तव में “जनतन्त्र की अमूर्त अवधारणा” के कारण थे और उनकी मौत तक वह विचार बदल चुके थे। रूसी क्रान्ति की शुरुआत के साथ ही रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने इन शब्दों में रूसी क्रान्ति का स्वागत किया था – “लेनिन की पार्टी एकमात्र ऐसी पार्टी थी जिसने जनादेश तथा एक क्रान्तिकारी पार्टी के कर्तव्यों को बखूबी समझा।” लेकिन आगे चलकर सार्विक मताधिकार, प्रेस की स्वतन्त्रता आदि के सवाल को लेकर उन्होंने बोल्शेविक क्रान्ति की आलोचना की। लेनिन ने यह स्पष्ट किया कि पार्टी, वर्ग, जनवाद और तानाशाही के बारे में रोज़ा लक्ज़मबर्ग के विचारों पर उदार बुर्जुआ जनवाद के विचारों का बहुत अधिक प्रभाव था। बुर्जुआ मीडिया और त्रॉत्स्कीपन्थी रोज़ा के इस पैम्फलेट में लिखी बात को ले उड़ते हैं जबकि क्लारा जेटकिन ने आगे चलकर यह प्रमाणित किया कि रूसी क्रान्ति पर रोज़ा के विचार बदल चुके थे और वह लेनिन से सहमत हो चुकी थीं।

यह सच है कि रोज़ा लक्ज़मबर्ग का राजनीतिक अर्थशास्त्र अल्पउपभोगवादी विचलन का शिकार था और राष्ट्रीय प्रश्न पर भी वे एक ग़लत अवस्थिति पर खड़ी थीं और बिना शर्त राष्ट्रीय आत्मनिर्णय को सभी राष्ट्रों का अधिकार नहीं मानती थीं।लेकिन इसके बावजूद बावजूद रोज़ा लक्ज़मबर्ग एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी थीं। उनको याद करते हुए लेनिन ने कहा था – “गरुड़ कभी-कभी मुर्गियों से नीची उड़ान भर सकते हैं। लेकिन मुर्गियाँ  कभी भी गरुड़ के बराबर ऊँचाई तक नहीं उठ सकती हैं। …अपनी ग़लतियों के बावजूद वह हमारे लिए गरुड़ थीं और रहेंगी। न केवल दुनियाभर के कम्युनिस्ट उनकी याद को ज़िन्दा रखेंगे बल्कि उनकी जीवनी और उनका पूरा काम पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित करने के लिए महत्वपूर्ण सामग्री का काम करेंगे।”

 

वह लाल गुलाब लापता है अब तक
कोई नहीं जानता कहाँ होगी वह देह
जब वह ग़रीबों को बता रही थी सच
अमीरों ने खदेड़ा उसे दुनिया से।

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

(रोज़ा लक्ज़मबर्ग के लिए समाधि लेख)

 

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2025


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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