Category Archives: इतिहास

चीन के लुटेरे शासकों के काले कारनामे महान चीनी क्रान्ति की आभा को मन्द नहीं कर सकते

यह लेख चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की 90वीं वर्षगाँठ पर ‘मज़दूर बिगुल’ में प्रकाशित हुआ था। चीन की नाममात्र की कम्युनिस्ट पार्टी इस महीने स्थापना की 100वीं वर्षगाँठ मनाने जा रही है मगर यह लेख लिखे जाने के बाद से उसके चरित्र में कोई बदलाव नहीं हुआ है। उसके शासन में चीन एक साम्राज्यवादी देश बनने की राह पर तेज़ी से बढ़ रहा है जिसका आधार अपने देश ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों के मेहनतकशों का शोषण है।

कल और आज

युगों-युगों से इन्सान मकड़ी की तरह, यत्नपूर्वक, तार-दर-तार, पूरी सावधानी से सांसारिक जीवन का मज़बूत मकड़जाल बुनता गया, और झूठ व लालच से इसके पोर-पोर को अधिकाधिक सिक्त करता गया। इन्सान अपने सगे-सहोदर इन्सानों के रक्त-मांस पर पलता रहा। उत्पादन के साधन इन्सानों के दमन का साधन थे – इस मानवद्वेषी झूठ को निर्विकल्प, निर्विवाद सत्य समझा जाता रहा।

क्रान्तिकारी चीन में स्वास्थ्य प्रणाली

ऐसे में पड़ोसी मुल्क चीन के क्रान्तिकारी दौर (1949-76) की चर्चा करेंगे, जब मेहनतकश जनता के बूते बेहद पिछड़े और बेहद कम संसाधनों वाले “एशिया के बीमार देश” ने स्वास्थ्य सेवा में चमत्कारी परिवर्तन किया, साथ ही स्वास्थ्यकर्मियों और जनता के आपसी सम्बन्ध को भी उन्नत स्तर पर ले जाने का प्रयास किया। आज का पूँूजीवाद चीन भारी पूँजीनिवेश और सख़्त नौकरशाहाना तरीक़ों के दम पर कोरोना के नियंत्रण आदि के काम कर ले रहा है, पर बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी उस सुलभ और मानवीय चिकित्सा सेवा से वंचित हो गयी है जो समाजवाद ने उन्हें कम संसाधनों में भी उपलब्ध करायी थी। डॉ. विक्टर सिडेल और डॉ. रुथ सिडेल की पुस्तक ‘सर्व दि पीपल’ के एक लेख के आधार पर एक अनुभवी चिकित्सक का लिखा यह लेख चीन में हुए स्वास्थ्य सेवा ओं में क्रान्तिकारी बदलावों की एक झलक पेश करता है।

क्रान्तिकारी समाजवाद ने किस प्रकार महामारियों पर क़ाबू पाया

पिछले डेढ़ वर्ष से जारी कोरोना वैश्विक महामारी ने न सिर्फ़ तमाम पूँजीवादी देशों की सरकारों के निकम्मेपन को उजागर किया है बल्कि पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र को भी पूरी तरह से बेनक़ाब कर दिया है और पूँजीवाद के सीमान्तों को उभारकर सामने ला दिया है। मुनाफ़े की अन्तहीन सनक पर टिके पूँजीवाद की क्रूर सच्चाई अब सबके सामने है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी की विलक्षण प्रगति का इस्तेमाल महामारी पर क़ाबू पाने की बजाय ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के नये अवसर तलाशने के लिए किया जा रहा है।

चिंगारी से भड़केंगी ज्वालाएँ (लेनिन के कुछ रोचक संस्मरण)

रूसी क्रान्ति के नेता लेनिन के कुछ रोचक संस्मरण, मज़दूर संघर्षों को एक सूत्र में पिरोने वाले इन्क़लाबी अख़बार ‘ईस्क्रा’ की तैयारी के सम्बन्ध में

कल और आज / मक्सिम गोर्की

जनता के सब्र के उग्र विस्फोट ने जीवन के जीर्ण-शीर्ण निज़ाम को ध्वस्त कर दिया है और अब वह अपने पुराने रूप में दुबारा कभी स्थापित नहीं हो सकता। पुराने जीर्ण-शीर्ण अतीत का पूरी तरह नाश नहीं हुआ है, लेकिन आने वाले कल में यह हो जायेगा।

7 नवम्बर – एक नयी ऐतिहासिक तारीख़

अल्बर्ट रीस विलियम्स उन पाँच अमेरिकी लोगों में से एक थे जो अक्टूबर क्रान्ति के तूफ़ानी दिनों के साक्षी थे। अन्य चार अमेरिकी थे – जॉन रीड, बेस्सी बिट्टी, लुइस ब्रयान्त और एलेक्स गाम्बोर्ग। ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ – जॉन रीड की इस विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक से हिन्दी पाठक भलीभाँति परिचित हैं जिसमें उन्होंने अक्टूबर क्रान्ति के शुरुआती दिनों का आश्चर्यजनक रूप से शक्तिशाली वर्णन प्रस्तुत किया है। बेस्सी बिट्टी ने भी ‘रूस का लाल हृदय’ नामक पुस्तक तथा अक्टूबर क्रान्ति विषयक कई लेख लिखे। दुर्भाग्यवश उनके हिन्दी अनुवाद अभी तक सामने नहीं आये हैं।

पूँजीवादी युद्ध और युद्धोन्माद के विरुद्ध बोल्शेविकों की नीति और सरकारी दमन

पूँजीवादी युद्ध और युद्धोन्माद के विरुद्ध बोल्शेविकों की नीति और सरकारी दमन प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम‘ के कुछ हिस्सों की इस श्रृंखला में दसवीं कड़ी प्रस्तुत है।…

पूँजीवादी युद्ध और युद्धोन्माद के विरुद्ध बोल्शेविकों की नीति और सरकारी दमन

पूँजीवादी युद्ध और युद्धोन्माद के विरुद्ध बोल्शेविकों की नीति और सरकारी दमन

प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम के कुछ हिस्सों की इस श्रृंखला में आठवीं कड़ी प्रस्तुत है।

पूँजीवादी युद्ध और युद्धोन्माद के विरुद्ध बोल्शेविकों की नीति और सरकारी दमन (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-8)

युद्ध की घोषणा के तुरन्त बाद, दूसरे इण्टरनेशनल के नेताओं ने इतिहास की सबसे बड़ी ग़द्दारियों में से एक को अंजाम दिया और अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के झण्डे को धूल-धूसरित कर दिया। राष्ट्रवाद की लहर में बहते हुए, समाजवादी पार्टियों के नेता अपने देशों की सरकारों के पीछे चल पड़े और अपने-अपने पूँजीपति वर्ग के हाथों का खिलौना बन गये। क्रान्ति से ग़द्दारी करके इन नेताओं ने यह सिद्धान्त पेश किया युद्ध छिड़ जाने के बाद अपने शासक वर्ग का साथ देना ज़रूरी है और पूँजीवादी अख़बारों के सुर में सुर मिलाते हुए ‘’दुश्मन’’ के विरुद्ध लड़ने के लिए अन्धराष्ट्रवादी भावनाएँ भड़काने में जुट गये।