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फ़ासिस्ट मोदी सरकार की धुन पर केचुआ का केंचुल नृत्य

केन्द्रीय चुनाव आयोग अर्थात ‘केचुआ’। इसकी कोई रीढ़ की हड्डी नहीं बची है। वह इस बात को बार-बार नंगे रूप में साबित भी कर रहा है। खासकर पिछले कुछ सालों में वह भाजपा की गोद में लोट-लोट कर फ़ासीवाद की गटरगंगा से लगातार पूरे समाज में गन्द फैला रहा है। आज यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि केचुआ भाजपा के विंग की तरह ही काम कर रहा है। पिछले कुछ समय से हर दिन ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं जो इसे और पुख़्ता कर रहे हैं। हालिया समय में बिहार में ‘स्पेशल इण्टेन्सिव रिविज़न’ (एसआईआर) के तहत नागरिकता प्रमाण के आधार पर 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से काटने और पिछले 7 अगस्त को राहुल गाँधी द्वारा पेश किये गए तथ्यों के बाद यह जगज़ाहिर हो गया कि आज इक्कीसवीं सदी का फ़ासीवाद किस तरीक़े से हमारे जनवादी अधिकार छीन रहा है। पिछले कुछ चुनावों में सीधे-सीधे धाँधली करके भाजपा की डूबती नैया को बचाना हो या फिर लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ खड़े हो रहे लोगों की उम्मीदवारी को ही रद्द कर देना हो, केचुआ द्वारा फ़ासीवादी मोदी सरकार के समक्ष साष्टांग दण्डवत करने की कई मिसालें मिल जायेंगी।

हिटलर की तर्ज़ पर अरबों रुपये बहाकर मोदी की महाछवि का निर्माण

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि फासीवादियों के व्यवहार में अत्यन्त नाटकीयता होती है। उन्हें नाटकीयता से विशेष लगाव होता है। वे खुद को ‘रेजी’ (निर्देशन, मंच प्रबन्धन) बोलते हैं, और उन्होंने सीधे तौर पर नाटक की प्रभावी विधा की एक पूरी श्रृँखला अपनाई है  जैसे कि रोशनी और संगीत, कोरस और अप्रत्याशित मोड़। एक अभिनेता ने मुझे कई साल पहले बताया था कि हिटलर ने म्यूनिख के कोर्ट थिएटर में एक्टर फ्रिट्ज़ बेसिल से न केवल वक्तृत्व कला की, बल्कि ‘कम्पोर्टमेण्ट’ की भी शिक्षा ली थी। मसलन उसने सीखा कि मंच पर कैसे एक नायक की तरह चलते हैं, जिसके लिए आपको अपने घुटने सीधे रखते हुए पूरे पाँव को ज़मीन पर रखना होता है ताकि आप महान दिखें। और उसने अपनी बाहों को क्रॉस करने का सबसे प्रभावशाली तरीका सीखा और ये भी सीखा कि कैसे सहज दिखना होता है।

रेलवे के निजीकरण की पटरी पर बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से भागती मोदी सरकार

देश के सबसे बड़े सार्वजनिक उपक्रम को बर्बाद करके मुनाफ़ाख़ोरों के हवाले करने के विरुद्ध संघर्ष अकेले रेलकर्मियों का सवाल नहीं है। यह आम जनता और तमाम मेहनतकशों का भी सवाल है। रेल कर्मियों को अपने संघर्ष को ने केवल सार्वजनिक क्षेत्र के दूसरे मेहनतकशों के आन्दोलनों से जोड़ना होगा, बल्कि देश की आम जनता को भी अपने आन्दोलन से जोड़ना होगा। तमाम मेहनतकश जनता को भी रेलकर्मियों के संघर्ष को समझकर उनके समर्थन के लिए आगे आना होगा।

जनता में बढ़ते असन्तोष से घबराये भगवा सत्ताधारी

हमने मोदी की जीत के बाद जो भविष्यवाणी की थी वह अक्षरश: सही साबित हो रही है। विदेशों में जमा काला धन की एक पाई भी वापस नहीं आयी है। देश के हर नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये आना तो दूर, फूटी कौड़ी भी नहीं आयेगी। नोटबन्‍दी से काला धन कम होने के बजाय उसका एक हिस्‍सा सफ़ेद हो गया और आम लोगों की ईमान की कमाई लुट गयी। निजीकरण की अन्धाधुन्ध मुहिम में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को हड़पकर देशी-विदेशी कम्पनियाँ जमकर छँटनी कर रही हैं।

फासीवादी नारों की हक़ीक़त – हिटलर से मोदी तक

अगर हम आज अपने देश में उछाले जा रहे फ़ासीवादी नारों पर एक नज़र दौड़ाएँ तो हिटलर की इन नाजायज़ औलादों के मंसूबे भी हम अच्छी तरह समझ पाएंगे। ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है’ सड़क पर, चौराहे पर बड़े-बड़े होर्डिंग पर यह नारे आँखों के सामने आ जाते है, रेडियो पर, अखबारों में, टीवी पर, बमबारी की तरह यह नारे हमारी चेतना पर हमला करते हैं। लेकिन जैसा ब्रेष्ट ने पहले ही चेता दिया है और जैसा हम अपनी ज़िन्दगी के हालात से भी समझ सकते है कि आखिर यह ‘सब’ कौन है जिनका विकास हो रहा है और यह कौनसा ‘देश’ है जो आगे बढ़ रहा है।

देश को ख़ूनी दलदल या गुलामों के कैदख़ाने में तब्दील होने से बचाना है तो एकजुट होकर उठ खड़े हो!

फासीवाद कुछ व्यक्तियों या किसी पार्टी की सनक नहीं है। यह पूँजीवाद के लाइलाज रोग से पैदा होने वाला ऐसा कीड़ा है जिसे पूँजीवाद ख़ुद अपने संकट को टालने के लिए बढ़ावा देता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था अन्दर से सड़ चुकी है, और इसी सड़ाँध से पूरी दुनिया के पूँजीवादी समाजों में हिटलर-मुसोलिनी के वे वारिस पैदा हो रहे हैं, जिन्हें फासिस्ट कहा जाता है।

राम मन्दिर के बहाने साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने की साज़िशें फिर तेज़

राम मन्दिर निर्माण के बहाने तनाव पैदा करने की साज़िशें देश की मेहनतकश जनता के लिए अतीत की तरह अब भी बेहद घातक सिद्ध होंगी। साम्प्रदायिक दूरियाँ पैदा करके जनता के आर्थिक-राजनीतिक जनवादी अधिकार बड़े स्तर पर छीने गये हैं। जितना बड़ा हमला जनता पर हुआ है उसके मुकाबले जनता के तरफ़ से प्रतिरोध कार्रवाई संगठित नहीं हो पायी है। अगर जनता ने साम्प्रदायिक ताक़तों की इन साज़िशों का जवाब पुख्ता ढंग से न दिया तो आने वाला समय जनता के हितों पर और बड़े हमले लेकर आयेगा। इसलिए क्रान्तिकारी, जनवादी, धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को जनता को हिन्दुत्वी फ़ासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ संगठित करने का काम बेहद गम्भीरता से करना चाहिए। हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादियों की काली करतूतों का फ़ायदा उठाकर मुस्लिम कट्टरपन्थी साधारण मुस्लिम आबादी को अपने साम्प्रदायिक जाल में फँसाने की साज़िशें तेज़ कर रहे हैं। इनका भी डटकर विरोध करना होगा। साधारण मुस्लिम आबादी को समझाना होगा कि उनके धार्मिक जनवादी अधिकारों की रक्षा भी तब ही हो सकती है जब वे समूची मेहनतकश जनता का अंग बनकर धर्मनिरपेक्ष व जनवादी रुख से हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थियों समेत मुस्लिम कट्टरपन्थियों के विरोध में भी, यानी समूची साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ेंगे। उन्हें समूची जनता के हिस्से के तौर पर भारत के पूँजीवादी हाकिमों द्वारा लोगों पर हो रहे आर्थिक-राजनीतिक हमलों का डटकर विरोध करना होगा। उन्हें मेहनतकश जनता की पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ वर्गीय लड़ाई को मज़बूत बनाना होगा।

मोदी सरकार द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूटें – उधारी साँसों पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को जीवित रखने के नीम-हकीमी नुस्खे

कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली केंद्र सरकार द्वारा जब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूटें दी जा रहीं थी तब भाजपा और इसकी सहयोगी पार्टियों ने बड़े विरोध का दिखावा किया था। भाजपा कह रही थी कि कांग्रेस सरकार देश को विदेशी हाथों में बेच रही है। गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए केंद्र में सरकार बनने के फौरन बाद भाजपा ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सम्बन्धित बहुत सी छूटें देने का ऐलान किया था। बीमा क्षेत्र में 49 प्रतिशत, रक्षा क्षेत्र में भी 49 प्रतिशत और रेल परियोजनाओं में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दी गयी। विदेशी पूँजीपतियों को बुलावा देने के लिए नरेन्द्र मोदी दुनियाभर में दौरे-पर-दौरे किये जा रहे हैं। विदेशी कम्‍पनियों को आकर देश के संसाधनों और यहाँ के लोगों की मेहनत को लूटने के लिए तरह-तरह की रियायतों और छूटों के लालच दिये जा रहे हैं।

देशी-विदेशी लुटेरों की ताबेदारी में मजदूर-हितों पर सबसे बड़े हमले की तैयारी

श्रम मंत्रालय संसद में छह विधेयक पारित कराने की कोशिश में है। इनमें चार विधेयक हैं – बाल मज़दूरी (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक, बोनस भुगतान (संशोधन) विधेयक, छोटे कारखाने (रोज़गार के विनियमन एवं सेवा शर्तें) विधेयक और कर्मचारी भविष्यनिधि एवं विविध प्रावधान विधेयक। इसके अलावा, 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने का काम जारीहै, जिनमें से दो इस सत्र में पेश कर दी जायेंगी – मज़दूरी पर श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता। इसके अलावा, न्यूनतम मज़दूरी संशोधन विधेयक और कर्मचारी राज्य बीमा विधेयक में भी संशोधन किये जाने हैं। संसद के शीतकालीन सत्र में ही भवन एवं अन्य निर्माण मज़दूरों से संबंधित क़ानून संशोधन विधेयक भी पेश किया जा सकता है। कहने के लिए श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मकसद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।

अपनी हरकतों के चौतरफा विरोध से बौखलाये संघी फासीवादी गिरोह की झूठ पर टिकी मुहिम

भाजपा की केन्द्र व अन्य राज्य सरकारें हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को हवा दे रही हैं। इसके विभिन्न केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्य मंत्रियों, सांसदों, विधायकों व अन्य नेताओं द्वारा मुसलमानों के खिलाफ़ भड़काऊ बयान लगातार आ रहे हैं। नरेन्द्र मोदी साम्प्रदायिकता के विषय पर कम ही बोलते हैं। उनकी चुप्पी और कभी कभी दिए जाने वाले गोल-मोल ब्यानों से हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को स्पष्ट संदेश जाता है कि वे अपने काले कामों में जोर-शोर से लगे रहें, कि उनकी खिलाफ़ कार्रवाई करने का सरकार का कोई इरादा नहीं है। सन् 2002 में गुजरात में मुख्य मंत्री होने के दौरान मुस्लमानों के कत्लेआम की कमाण्ड सम्भालने वाले मोदी से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?