मोदी सरकार द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूटें
उधारी साँसों पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को जीवित रखने के नीम-हकीमी नुस्खे

लखविन्‍दर

बिहार चुनावों में भाजपा नीत गठबन्धन को मिली करारी हार के बाद कई ”विश्लेषक” अनुमान लगा रहे थे कि अब भाजपा देशी-विदेशी पूँजी के पक्ष में कट्टर आर्थिक सुधारों के मामले में कुछ ढील देगी। लेकिन दो दिन भी नहीं गुज़रे थे कि मोदी सरकार ने इन अनुमानों की हवा निकाल दी। अर्थव्यवस्था के पन्द्रह अलग-अलग क्षेत्रों में मोदी सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बड़ी छूटों के ऐलान द्वारा यह स्पष्ट संकेत दिया दे दिया कि वह आर्थिक सुधारों (भूमण्डलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण) की नीतियों में ज़रा भी ढील नहीं दे रही, बल्कि इन्हें और तेज़ करेगी। मोदी सरकार की पूँजीवाद–साम्राज्यवाद परस्त नीतियाँ जारी रहेंगी।
जिन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में छूट देने का ताज़ा ऐलान हुआ है उनमें रक्षा, खेती-पशुपालन, बैंकिंग, दवाएँ, आधारभूत ढाँचा, दूरसंचार, खनन, नागरिक उड्डयन, भवन निर्माण, बागबानी आदि आर्थिक क्षेत्र शामिल हैं।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली केंद्र सरकार द्वारा जब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूटें दी जा रहीं थी तब भाजपा और इसकी सहयोगी पार्टियों ने बड़े विरोध का दिखावा किया था। भाजपा कह रही थी कि कांग्रेस सरकार देश को विदेशी हाथों में बेच रही है। गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए केंद्र में सरकार बनने के फौरन बाद भाजपा ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सम्बन्धित बहुत सी छूटें देने का ऐलान किया था। बीमा क्षेत्र में 49 प्रतिशत, रक्षा क्षेत्र में भी 49 प्रतिशत और रेल परियोजनाओं में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दी गयी। विदेशी पूँजीपतियों को बुलावा देने के लिए नरेन्द्र मोदी दुनियाभर में दौरे-पर-दौरे किये जा रहे हैं। विदेशी कम्‍पनियों को आकर देश के संसाधनों और यहाँ के लोगों की मेहनत को लूटने के लिए तरह-तरह की रियायतों और छूटों के लालच दिये जा रहे हैं।

Photo source - http://images.financialexpress.com/2015/11/FDI-l.jpg

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‘फाईनेंशियल टाइम्स’ अखबार की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में अभी दूसरे सभी देशों से आगे चल रहा है। भारत को इस साल 31 बिलियन डालर का विदेशी निवेश हासिल हुआ है जबकि चीन 28 बिलियन डालर हासिल कर दूसरे नंबर पर है और संयुक्त राज्य अमेरिका 27 बिलियन डालर का विदेशी निवेश हासिल कर तीसरे नंबर पर है। मोदी सरकार इसे बड़ी उपलब्धि मान रही है और अब कांग्रेस कह रही है कि उसकी विदेशी निवेश से सम्बन्धित नीतियाँ गलत हैं, कि इससे देश की सुरक्षा दाँव पर लग रही है। कांग्रेस ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए जो शर्तें रखी थीं, मोदी सरकार ने उसे और भी ढीला कर दिया है। पहले यह शर्त थी कि तीन हज़ार करोड़ रुपये से अधिक के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए सरकार द्वारा जाँच-पड़ताल का सामना करना पड़ेगा। मोदी सरकार ने यह सीमा बढ़ाकर पाँच हज़ार करोड़ रुपये कर दी है।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूट देते हुए यह कहा जा रहा है कि इससे भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास होगा, नये रोज़गार पैदा होंगे, जनता की ग़रीबी दूर होगी, ख़ुशहाली आयेगी, जनता का जीवन स्तर ऊपर उठेगा आदि-आदि। वास्तव में जनता की ख़ुशहाली की तो सिर्फ़ बातें ही हैं। जनता का जीवन स्तर सुधारना न तो मोदी सरकार का मकसद है और न ही इसकी नीतियों से यह संभव है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहन जनता के नहीं बल्कि लुटेरों के, मुट्ठी भर पूँजीपति वर्ग के कल्याण के लिए दिया जा रहा है।
पूँजीवादी व्यवस्था आज विश्व स्तर पर आर्थिक मंदी से जूझ रही है। इसका सीधा असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी है। यह भी आर्थिक मंदी से जूझ रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पादन में अपेक्षित वृद्धि होती दिखाई नहीं दे रही। व्यापारिक घाटा बढ़ रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार सिकुड़ा हुआ है। इस पूरी परिस्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था को देशी-विदेशी पूँजी निवेश में वृद्धि की सख़्त ज़रूरत है। सकल घरेलू उत्पादन में वृद्धि, आधारभूत ढाँचे के क्षेत्र आदि में अटकी हुई परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए, विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि के लिए, उन्नत तकनीक की भारतीय पूँजीपतियों की ज़रूरतों को पूरी करने आदि के लिए ही विदेशी पूँजी निवेश की सख़्त ज़रूरत है।
मोदी सरकार देशी-विदेशी पूँजीपतियों के लिए भारत में अनुकूल माहौल बनाने की ज़ोरदार कोशिशों में लगी हुई है। इस अनुकूल माहौल का अर्थ है बेहिसाब मुनाफे़ की गारंटी। इसलिए मज़दूरों के क़ानूनी श्रम अधिकारों को ख़त्म किया जाना बेहद ज़रूरी है। केंद्र और राज्य सरकारें इस तरफ़ बड़े कदम उठा रही हैं। श्रम क़ानूनों पर अमल तो पहले ही बन्द हो चुका है। श्रम क़ानूनों में मज़दूर विरोधी बदलाव लाकर रही-सही कसर भी निकाली जा रही है। रेलवे और बस परिवहन, स्वास्थ्य, शिक्षा, बैकिंग, आदि क्षेत्रों में निजीकरण की प्रक्रिया लगातार जारी है। सरकार द्वारा जनता से सस्ती सुविधाएँ छीनने और पूँजीपतियों को अधिक से अधिक आर्थिक छूटें देने का सिलसिला लगातार जारी है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को कम से कम कीमतों पर और बिना किसी रोक-टोक के ज़मीन मुहैया कराने के लिए सरकार पूरा ज़ोर लगा रही है। नये कारोबार शुरू करने और पुराने कारोबारों के फैलाव के लिए सरकारी स्तर पर कागज़ी कार्यवाही को सरल से सरल किया जा रहा है। देश भर में एक ही टैक्‍स प्रणाली लागू करने के लिए पूँजीवादी वर्ग को बड़ी राहत देने की कोशिश चल रही है। माल और सेवाएँ कर (जीएसटी) पर सभी चुनावी पार्टियों की सहमति है क्‍योंकि यह उनके आक़ाओं, यानी देश के पूँजीपतियों के हित में है। बस छोटी-मोटी चीज़ों पर मोलभाव और अपना सिक्‍का बुलन्‍द रखने का खेल जारी है। जब चाहे कारोबार शुरू कर सकें और जब चाहे बंद करके सभी मज़दूरों को बाहर कर सकें, ऐसी छूट देने के लिए ज़रूरी कानूनी बदलाव किये जा रहे हैं। ”इंस्पेक्टर राज” के ख़ात्मे की प्रक्रिया तेज़ कर दी गयी है। अलग-अलग सरकारी विभागों द्वारा कारोबारों में दखलन्दाज़ी (जाँच-पड़ताल, क़ानूनों के उल्लंघन के लिए कार्रवाई) आदि से छुटकारा दिलाया जा रहा है। सरकारी ढाँचे में भ्रष्टाचार के चलते देशी-विदेशी पूँजीपतियों को आने वाली समस्याएओं से निजात दिलाने के लिए कदम उठाये जा रहे हैं। यानि देशी-विदेशी पूँजीपतियों को भारत में कारोबार करने और मज़दूरों-मेहनतकशों के श्रम की लूट से अथाह मुनाफ़ा कमाने के रास्ते से तमाम रुकावटों को दूर करने की कोशिशें की जा रही हैं।
लेकिन ऐसी तमाम कोशिशें के बावजूद मोदी जिस स्तर के विदेशी पूँजी निवेश की उम्‍मीद में कटोरा लेकर विदेशों के चक्‍कर लगा रहे हैं वह कभी पूरी नहीं हो सकेंगी। आर्थिक मंदी के झटके खा रहे विदेशी पूँजीपतियों से भारत में ज्यादा पूँजी निवेश की उम्मीद बेमानी है। भारतीय हुक़्मरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूटें देने जैसे नीम-हकीमी नुस्खों के द्वारा भारतीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को थोड़ी सी राहत, दुख में ”सुख” के कुछ पल तो मुहैया करा सकते हैं, परन्तु आर्थिक मंदी से छुटकारा हरगिज़ नहीं दिला सकते।
उत्पादन के साधनों के निजी मालिकाने और उत्पादन के समाजीकरण के अन्तर्विरोध से पैदा हुआ अति-उत्पादन का संकट पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचागत संकट है। यह संकट पूँजीवादी प्रणाली के अन्‍त के साथ ही ख़त्म हो सकता है। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था अब जिस स्तर तक पहुँच चुकी है वहाँ अब मन्‍दी के बाद आने वाली तेज़ी और ख़ुशहाली के दिन इसके नसीब में नहीं हैं। लगातार जारी मन्‍दी के बीच में ही थोड़ा उतार-चढ़ाव होता रह सकता है। आर्थिक संकट से बचने के लिए विदेशी पूँजी निवेश और अन्य नीम-हकीमी नुस्ख़े पूँजीवादी प्रणाली के संकट को और गहरा व व्यापक बनायेंगे। ऐसे कदमों से भारत में जो पूँजीवादी विकास होगा वह अति-उत्पादन के और बड़े संकट को जन्म देगा। समाज में वर्गीय ध्रुवीकरण और तेज़ होगा। इसके चलते छोटे मालिकाने वाले लोग और अधिक तेज़ी से उजड़कर मज़दूर वर्ग में शामिल होंगे। समाज और बड़े स्तर पर पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के दो ध्रुवों में बँटेगा। समाज में अमीरी और ग़रीबी का विभाजन, बेरोज़गारी, बदहाली और बढ़ेगी। जनता का आक्रोश और तेज़ होगा।
कुल मिला कर मोदी द्वारा पूँजीवादी ढाँचे का संकट दूर करने के लिए जो भी कदम उठाए जा रहे हैं उनके चलते यह संकट दूर नहीं हो सकता। पूँजीवादी प्रणाली की मुसीबतें लगातार बढ़ते जाना इसकी नियति है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2015


 

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