अपनी हरकतों के चौतरफा विरोध से बौखलाये संघी फासीवादी गिरोह की झूठ पर टिकी मुहिम
रणबीर
देश में हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक फासीवाद तेज़ी से फल-फूल रहा है। इसके खिलाफ़ जनता के विभिन्न हिस्सों से आवाज़ उठ रही है। हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी शक्तियों द्वारा मचाई अँधेरगर्दी के खिलाफ़ साहित्यकारों, इतिहासकारों, फिल्मकारों, कलाकारों व वैज्ञानिकों ने भी अपना विरोध दर्ज कराया है। इनके द्वारा पद्मश्री, सहित्य व संगीत अकादमी और राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाना इन दिनों काफ़ी चर्चा का विषय बना हुआ है। इनाम लौटाने वालों का कहना है कि देश में असहनशीलता बहुत बढ़ गई है। विचारों की आज़ादी पर हमले हो रहे हैं। लोगों के रहन-सहन, खान-पान, प्रेम, विवाह, जैसे बेहद निजी दायरे के मामलों में फासीवादी टोले दख़लन्दाजी कर रहे हैं। मुसलमानों के खिलाफ़ बड़े पैमाने पर नफ़रत भड़काई जा रही है। गौ रक्षा के नाम पर बेगुनाह लोगों को सरेआम मारा जा रहा है। इस इनाम वापसी अभियान को इलेक्ट्रानिक व प्रिण्ट मीडिया में भी एक हद तक जगह मिली है। फेसबुक, ट्विटर, वाट्सएप आदि सोशल मीडिया पर इस मुहिम के चलते मोदी सरकार व समूचे फासीवादी गिरोह को काफ़ी विरोध का सामना करना पड़ा है। बड़ी संख्या में अन्य फिल्मी हस्तियों, साहित्यकारों, संस्थाओं द्वारा इनाम वापसी की हिमायत की गई है। इस दौरान इनाम वापसी के खिलाफ़ फासीवादियों ने भी मुहिम छेड़ दी है।
इनाम वापसी के खिलाफ़ चलाई जा रही मुहिम वास्तव में उन सभी धर्मनिरपेक्ष व जनवादी लोगों के खिलाफ़ मुहिम है जो हिन्दुत्व साम्प्रदायिकता का विरोध कर रहे हैं। आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद, बाबा रामदेव जैसों के कार्यक्रमों में इनाम वापसी के खिलाफ़ जोर-शोर से भड़ास निकाली जा रही है। इनाम वापिस करने वालों व इनाम वापसी की हिमायत करने वाली प्रसिद्ध हस्तियों के खिलाफ़ व्यक्तिगत कुत्साप्रचार किया जा रहा है। अगर विरोध करने वाला प्रसिद्ध व्यक्ति मुसलमान हो तो उसे खास तौर पर निशाना बनाया जा रहा है। ट्विटर, फेसबुक आदि पर मोदी भक्तों द्वारा गाली-गलौज़ की बाढ़ सी आ गई है।
संघी टोला इनाम वापसी का विरोध करते हुए अपनी औकात मुताबिक बेसिरपैर के ”तर्क” दे रहा है और बेशर्मी की तमाम हदें पार करते हुए बड़े-बड़े झूठ बोल रहा है। कहा जा रहा है कि ”भारत दुनिया का सबसे सहनशील देश है”, कि भारत में घटित ”छोटी-छोटी” घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। पूछा जा रहा है कि कांग्रेस की सरकारों के वक्त होने वाली साम्प्रदायिक घटनाओं के समय इनाम वापिस क्यों नहीं किए गए? इनका कहना है कि धर्मनिरपेक्ष लोग हिन्दुओं के कत्ल के खिलाफ़ कभी आवाज़ नहीं उठाते। झूठ बोलने की पुरानी आदत के मुताबिक इनके द्वारा मोदी शासनकाल में साम्प्रदायिक घटनाओं में कमी आने के दावे किए जा रहे हैं।
इनाम वापसी के जरिए रोष व्यक्त करने की मुहिम धर्म-निरपेक्ष व जनवादी ताकतों द्वारा साम्प्रदायिकता व फासीवाद के खिलाफ़ जारी संघर्ष का ही एक अंग है। सन् 1947 में अंग्रेज़ उपनिवेशवादी हकूमत की गुलामी से मुक्ति के बाद भारत में निर्मित पूँजीवादी व्यवस्था में हमेशा से ही जनवाद का दायरा बहुत तंग रहा है। विभिन्न साम्प्रदायिक, क्षेत्रवादी व जातिवादी शक्तियों द्वारा जनता के जनवादी अधिकारों पर हमले होते रहे हैं। लोगों को धर्म के नाम पर आपस में बाँटने-लड़ाने का काम अंग्रेजों के समय से ही होता आया है। भारत स्तर पर समूचे तौर पर इनमें हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी सबसे आगे रहे हैं। धर्म-निरपेक्ष, जनवाद पसंद ताकतों द्वारा इन सभी जनविरोधी ताकतों का विभिन्न रूपों में विरोध होता रहा है। संघी टोला यह पूरी तरह झूठ प्रचारित कर रहा है कि धर्म निरपेक्ष लोगों ने सिर्फ भाजपा के खिलाफ़ ही आवाज़ उठाई है। कांग्रेस अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए जातिवाद, क्षेत्रवाद सहित धार्मिक साम्प्रदायिकता का गंदा खेल खेलती रही है। जैसा कि अरुंधति राय ने अपना राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाते हुए लिखा है – “भाजपा जो दिन में करती है, कांग्रेस वो रात में करती है”।
धर्मनिरपेक्ष-जनवादी शक्तियाँ हमेशा से सभी साम्प्रदायिकतावादियों से लड़ती रही हैं। इस्लामिक व खालिस्तानी साम्प्रदायिकतावादियों द्वारा हिन्दुओं का लहू बहाए जाने के खिलाफ़ धर्मनिरपेक्ष, जनवादी व वामपंथी ताकतें ही लोहा लेती रहीं न कि कायर हिन्दुत्ववादी टोला। भारत हो या पाकिस्तान य बंगलादेश या दुनिया का कोई भी अन्य देश मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा बेगुनाह हिन्दुओं और अन्य गैर-मुस्लिमों पर कहर बरपाए जाने के खिलाफ धर्म निरपेक्ष व जनवादी ताकतें हमेशा आवाज़ उठाती रही हैं। संघी फासीवादी टोला तो अन्य धर्में के कट्टरपंथियों द्वारा आम हिन्दु जनता का खून बहाए जाने पर अन्दर से खुश होता है क्यों कि इससे उसे हिन्दुओं को अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ भड़काकर अपनी हिन्दुत्ववादी फासीवादी राजनीति आगे बढ़ाने का मौका मिलता है। अल्पसंख्यक धार्मिक सम्प्रदायिकता तो वास्तव में हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता की पूरक है, इसे फलने-फूलने के लिए खाद-पानी देती है। इसी तरह हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता भी अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के लिए खाद-पानी का प्रबन्ध करती है। बाहरी तौर पर दुश्मन नज़र आने वाले ये साम्प्रदायिक टोले वास्तव में मित्र हैं।
इसलिए आज जो ताकतें देश में बने साम्प्रदायिक फासीवादी माहौल का विरोध कर रही हैं उनकी लड़ाई को ”भाजपा बनाम कांग्रेस” या ”हिन्दु बनाम मुस्लिम” जैसे चौखटों में रखना पूरी तरह नाज़ायज है जैसा कि हिन्दुत्ववादी संघी टोला कर रहा है।
भारत स्तर पर हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों की ताकत अधिक होने के चलते साम्प्रदायिक नफ़रत का माहौल पैदा करने, जनता के जनवादी अधिकारों पर हमलों, अन्य धर्मों के लोगों के कत्लेआम, साहित्यकारों, कलाकारों, सामाजिक कार्याकर्ताओं की हत्याओं, विचारों की आज़ादी के हनन, देश के कोने-कोने में विभिन्न किस्म की साम्प्रदायिक घटनाओं को अंजाम देने, दलितों पर जातिवादी जुल्म ढाने, आदि में हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी सबसे आगे रहे हैं। इनके द्वारा अंजाम दी गई कुल साम्प्रदायिक काली करतूतें अन्य सभी की कुल साम्प्रदायिक काली करतूतों से कई गुना अधिक हैं। इसलिए स्वाभाविक तौर पर धर्म-निरपेक्ष व जनवादी लोगों को सबसे अधिक हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों के खिलाफ़ लड़ना पड़ता है। सभी साम्प्रदायिकतावादियों में से हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी ही सबसे बड़ा खतरा रहे हैं इस लिए मुख्य लड़ाई भी हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों के खिलाफ़ ही रही है, लेकिन सिर्फ इनके खिलाफ़ ही नहीं। हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों द्वारा किया जाता यह प्रचार पूरी तरह झूठ है कि धर्म निरपेक्ष लोग सिर्फ अल्पसंख्यकों पर जुल्मों के खिलाफ ही बोलते हैं।
आज जिस पैमाने पर हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों का विरोध किया जा रहा है इसका कारण कोई साजिश नहीं है जैसा कि मोदी भक्त प्रचारित कर रहे हैं बल्कि यह तो वक्त की ज़रूरत है। आज जो हालात बने हैं उन्हें देखते हुए इसका विरोध इससे भी कही अधिक तगड़ा होना चाहिए। पहले भी अलग-अलग समय पर विभिन्न मुद्दों पर इनाम वापिस होते रहे हैं और इनाम लेने से मना भी किया जाता रहा है। लेकिन इस इतने बड़े पैमाने पर इनाम वापसी के जरिए सामूहिक विरोध पहली बार देखने को मिला है।
सम्प्रदायिक फासीवाद के बढ़ते जा रहे विरोध को बढ़ते जा रहे साम्प्रदायिक फासीवादी हमले के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। मौजूदा हालात पहले से गुणात्मक तौर पर भिन्न हैं। आज हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों की ताकत बहुत अधिक बढ़ चुकी है। आज देश में इनके द्वारा बड़े स्तर पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ नफ़रत का वातावरण बना दिया गया है। गौहत्या, धर्म परिवर्तन, लव जिहाद, हिन्दु धर्म की रक्षा आदि अनेकों बहानों तले अल्प संख्यकों खासकर मुस्लमानों व ईसाइयों को निशाना बनाया जा रहा है। हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों द्वारा दलितों पर दमन बहुत बढ़ गया है। साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वालों साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को जान से मारने की धमकियाँ दी जा रही हैं, जानलेवा हमले हो रहे हैं, गुलाम अली जैसे गायकों को भारत में कार्यक्रम करने से रोका जा रहा है। हर दिन अनेकों साम्प्रदायिक कार्रवाइयाँ हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों द्वारा अंजाम दी जा रही हैं।
लुटेरे पूँजीपति वर्ग की सेवा में हिटलर-मुसोलनी की तर्ज पर भारत में फासीवादी सत्ता कायम करने करके जनता के सारे जनवादी अधिकार छीनने का सपना देखने वाली आर.एस.एस. की सदस्यता पिछले पाँच सालों में बहुत तेज़ी से बढ़ी है। अगस्त 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले पाँच सालों में इसकी देश के कोने-कोने में लगने वाली शाखाओं की संख्या में 61 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। देश में रोज़ाना इसकी 51335 शाखाएँ लगती हैं। आर.एस.एस. से सम्बन्धित करीब 40 संगठनों का आधार तेज़ी से बढ़ा है। इसका राजनीतिक विंग भारतीय जनता पार्टी मुस्लमानों के गुजरात-2002 नरसंहार के कमाण्डर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुआ है। केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद संघ परिवार (आर.एस.एस. व इससे सम्बन्धित संगठनों जैसे भाजपा, बजरंग दल, ए.बी.वी.पी., सेवा भारती आदि) के फैलाम में और भी तेज़ी आई है।
संघ परिवार की इस बढ़ी सामाजिक-राजनीतिक ताकत के मुताबिक इसके काले कारनामों में भी वृद्धि हुई है। पिछले पाँच वर्षों में संघ परिवार की ताकत में तेज़ वृद्धि के साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में भी तेज़ वृद्धि हुई है। भारत सरकार के गृह मंत्राल्य के मुताबिक सन् 2011 से सन् 2014 के चार सालों के दौरान 2175 साम्प्रादायिक हिंसा की घटनाएँ हुई हैं। संघ परिवार द्वारा योजनाबद्ध ढंग से मुज़फ़्फ़रनगर में मुस्लमानों के कत्लेआम इसी दौरान सन् 2013 में अंजाम दिया गया है। इस कत्लेआम में 100 से अधिक लोग मारे गए थे और पचास हज़ार से अधिक विस्थापन का शिकार हुए थे। देश भर में साम्प्रदायिक नफ़रत फैला कर भाजपा द्वारा केन्द्र सरकार पर कबजे के अगले दो महीनों में ही साम्प्रदायिक हिन्सा की 600 घटनाएँ घटित हो गई थीं। हिन्दु धर्म की रक्षा, गौरक्षा, तथाकथित लव जेहाद का विरोध, धर्म परिवर्तन विरोध आदि बहानों तले पिछले डेढ वर्ष में साम्प्रदायिक हिन्सा का माहौल निरन्तर बढ़ता गया है। संघ परिवार ही नहीं बल्कि इसे अलग अनेकों हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी संगठन-ग्रुप साम्प्रदायिक नफ़रत फैला रहे हैं और हिंसा की घटनाओं को अंजाम दे रहै हैं। विभिन्न पार्टियों की सरकारें व पुलिस प्रशासन इनके खिलाफ़ कार्रवाई करने की बजाए इनका साथ देते हैं। भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लमानों और ईसाइयों को बेहद भय के माहौल में दिन काटने पड़ रहे हैं। खान-पान, रहन-सहन, त्यौहारों, रीति-रिवाजों सम्बन्धी उनके मन में व्यापक पैमाने पर डर फैला है। दादरी (उत्तर प्रदेश), ऊधमपुर (जम्मू), सिरमौर (हिमाचल) आदि जगहों पर गौहत्या को बहाना बनाकर मुस्लमानों की हत्याओं की ताज़ा घटनाएँ आने वाले बेहद कठिन समय का संकेत देती हैं। ऐसी घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं। कुछ दिन पहले टीपू-सुल्तान ज्यंती के आयोजनों के अवसर पर कर्नाटका में संघी टोले द्वारा हिंसा भड़काई गई है।
साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ बोलने वालों, जन-अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वालों सामाजिक कार्याकर्ताओं-साहित्यकारों को निशाना बनाया जा रहा है। प्रो. एम.एम. कलबुर्गी, का. पानसरे, डा. दाभोल्कर की हत्याएँ हो चुकी हैं। पत्रकार रविश कुमार व अन्य जनवाद पसंद व्यक्तियों को जान से मारने की धमकियाँ दी जा रही हैं।
इसलिए संघी टोले द्वारा किया जा रहा यह प्रचार कोरा झूठ है कि देश में सहनशीलता वाला माहौल है। यह भी कोरा झूठ है कि मोदी शासन काल में साम्प्रदायिकता में कमी आई है। हिटलर-मुसोलनी की भारतीय संताने ”एक झूठ सौ बार बोलने पर सच बनाने” की नीति पर चल रही हैं। लेकिन सच को झूठ में न तो इनके पूर्वज बदल पाए थे और न ही ये बदल पाएँगे।
भाजपा की केन्द्र व अन्य राज्य सरकारें हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को हवा दे रही हैं। इसके विभिन्न केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्य मंत्रियों, सांसदों, विधायकों व अन्य नेताओं द्वारा मुसलमानों के खिलाफ़ भड़काऊ बयान लगातार आ रहे हैं। नरेन्द्र मोदी साम्प्रदायिकता के विषय पर कम ही बोलते हैं। उनकी चुप्पी और कभी कभी दिए जाने वाले गोल-मोल ब्यानों से हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को स्पष्ट संदेश जाता है कि वे अपने काले कामों में जोर-शोर से लगे रहें, कि उनकी खिलाफ़ कार्रवाई करने का सरकार का कोई इरादा नहीं है। सन् 2002 में गुजरात में मुख्य मंत्री होने के दौरान मुस्लमानों के कत्लेआम की कमाण्ड सम्भालने वाले मोदी से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?
हरियाणा के मुख्य मंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कुछ दिन पहले कहा कि मुसलमानों को अगर भारत में रहना है तो उन्हें गाय का माँस खाना बन्द करना होगा। साक्षी महाराज, योगी अदित्यनाथ, संगीत सोम, साधी प्राची, जैसे भाजपा के सांसद व विधायक लगातार मुसलमानों के खिलाफ़ ज़हरीले ब्यान दाग रहे हैं। भाजपा के उत्तर प्रदेश से सांसद योगी आदित्यनाथ ने दादरी काण्ड के बाद हिन्दुओं में हथियार बाँटने का ऐलान किया था। इन सबके खिलाफ़ सरकार, भाजपा या मोदी द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। इसलिए इनाम वापिस करने वालों का सरकार के खिलाफ़ गुस्सा पूरी तरह जायज है।
हिन्दुत्वादी सोच से ग्रस्त, रामायण व महाभारत की गैर इतिहासिक यानि मिथिहासिक व्याख्याएँ करने के सहारे “इतिहासकार बने” प्रो. वाई. सुदर्शन राव को भारतीय खोज परिषद का अध्यक्ष बना दिया गया है। फिल्म एण्ड टेलीवीज़न इंस्टचियूट आफ़ इण्डिया, सेंसर बोर्ड, नेशनल बुक ट्रस्ट, ललित कला अकादमी, जैसी संस्थाओं के प्रमुख पदों पर हिन्दुत्ववादी व्यक्तियों को बिठाया जा रहा है। शिक्षा का भगवाकरण तेज़ कर दिया गया है। एन.सी.ई.आर.टी. की इतिहास की किताबों के हिन्दुत्ववादी फासीवादी विचारधारा के मुताबिक दुबारा लिखने का की तैयारी है। इसके साथ ही अफसरशाही व अदालली व्यवस्था में कट्टर भगवी सोच वाले व्यक्तियों का भरमार करने की प्रक्रिया जारी है।
समझना मुश्किल नहीं है कि पूँजीवादी जनतंत्र की जगह पूँजीवादी फासीवादी सत्ता स्थापित करने की तैयारियाँ पूरे ज़ोरों पर हैं। साढ़े तीन वर्ष में संघ परिवार देश का क्या हाल करेगा इसका अन्दाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। इसलिए इनाम वापिस करने वालों सहित देश के जनवाद पसंद लोगों द्वारा मोदी सरकार की काली करतूतों का विरोध किया जाना न सिर्फ पूरी तरह जायज है बल्कि यह विरोध हर हाल में किया ही जाना चाहिए। चुप बैठने के अर्थ है फासीवाद का साथ देना।
इन दिनों इनाम वापिस करने वाले साहित्यकारों-कलाकारों के खिलाफ़ किया जा रहा एक कुतर्क यह है कि साहित्य अकादमी जैसे पुरस्कार सरकार ने नहीं दिए बल्कि ”स्वायत्त” संस्थाओं द्वारा दिए गए हैं। इस लिए वापिस नहीं किए जाने चाहिए। लेकिन वास्तव में साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं की ”स्वायत्तता” नकली है। साहित्य अकादमी इनाम प्राप्त लेखक प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों द्वारा हत्या के बाद साहित्य अकादमी ने इसके विरोध में कोई ब्यान तक ज़ारी नहीं किया। दिल्ली में शोक सभा तक नहीं की गई। सतम्बर में विभिन्न साहित्यक-सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष को मिले थे और शोक सभा बुलाने की अपील की थी। साहित्यकारों द्वारा बार बार अपील करने पर भी ऐसा नहीं किया गया। साहित्य अकादमी के इस रवैये को किस रूप में लिया जाए? विचारों की आज़ादी पर हमलों व साहित्यकारों के मारे जाने के खिलाफ़ केन्द्र सरकार की इच्छा के खिलाफ़ साहित्य अकादमी अगर एक ब्यान तक ज़ारी नहीं कर सकती तो वह खुदमुख्तियार कैसे मानी जाए।
यह सारा माहौल हिन्दुत्ववादी व अन्य साम्प्रदायिक ताकतों को लिए तो अच्छा व फायदेमन्द हो सकता है लेकिन लोगों के लिए यह किसी भी प्रकार से ऐसा नहीं है। इसलिए देश में फैले साम्प्रदायिक माहौल के खिलाफ़ व फासीवादी मोदी सरकार द्वारा हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने के खिलाफ़, व्यवस्था के निरन्तर फासीवादीकरण के खिलाफ़ जनवादी-धर्मनिरपेक्ष लोगों का गुस्सा व संघर्ष पूरी तरह जायज है। इनाम वापिस करने वाले साहित्यकारों, इतिहासकारों, फिल्मकारों, विज्ञानिकों द्वारा रोष व्यक्त करना कोई साजिश न होकर समय की जरूरत है। यह कोई देश द्रोह नहीं बल्कि भारत की जनता के पक्ष में उठाया गया जरूरी कदम है जिसकी ज़ोरदार हिमायत की जानी चाहिए।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2015
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