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मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव की कवायद के विरोध में देश भर के मज़दूरों का विशाल प्रदर्शन

संसद के वर्तमान सत्र में मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित श्रम कानूनों में बदलाव के विरोध में बिगुल मज़दूर दस्ता और देश भर से आये विभिन्न मज़दूर संगठनों तथा मज़दूर यूनियनों ने दिल्ली के जन्तर-मन्तर से संसद मार्ग तक मार्च किया और प्रधानमंत्री का पुतला दहन किया। इस प्रदर्शन में मज़दूरों ने विशाल संख्या में भागीदारी की।

श्रम कानूनों में “सुधार” मोदी सरकार का मज़दूरों के अधिकारों पर ख़तरनाक हमला

अभी तीन महीने भी नहीं हुए हैं मोदी सरकार को आये हुए लेकिन आते ही उसने घोषणा कर दी कि श्रम-कानूनों में बड़े बदलाव किये जाएँगे। स्पष्ट है देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों और पूँजीपतियों के मुनाफे का घोड़ा बेलगाम दौड़ता रहे, इसके लिए जरूरी है कि उनके राह के सबसे बड़े रोड़े को यानी कि रहे-सहे श्रम-कानूनों को भी किनारे लगा दिया जाये। इसका मतलब है कि मजदूरों को श्रम-कानूनों के तहत कम-से-कम काग़जी तौर पर जो हक़ हासिल हैं अब वे भी छीन लिये जाएँगे।

एक बार फिर देश को दंगों की आग में झोंकने की सुनियोजित साजि़श

संघ, भाजपा तथा मोदी भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि नव-उदारवादी नीतियों ने जिस तरह महँगाई, लगातार कम होती मज़दूरियाँ, बेरोज़गारी और भुखमरी के दानव को खुला छोड़ दिया है उससे त्रस्त जनता एक न एक दिन ज़रूर ही संगठित होकर मैदान में खड़ी हो जायेगी। इसी लिए साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतें देशभर में सीमित पैमाने के छोटे-बडे़ दंगे करवा रही हैं। वो चाहते हैं कि मध्यम स्तर का साम्प्रदायिक तनाव समाज में लगातार बना रहे ताकि समय आने पर इसे पूरे ज़ोरों से भड़काया जा सके। इस तरह जनता के गुस्से को झूठा दुश्मन खड़ा करके जनता के ही ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की फ़ासीवादी सोच काम कर रही है।

हिन्दू दिलों और बुर्जुआ दिमागों को छूकर चीन से होड़ में आगे निकलने की क़वायद

पिछली 3-4 अगस्त के बीच सम्पन्न नरेन्द्र मोदी की दो दिवसीय नेपाल यात्रा को भारत और नेपाल दोनों ही देशों की बुर्जुआ मीडिया ने हाथों हाथ लिया। एक ऐसे समय में जब घोर जनविरोधी नव-उदारवादी नीतियों की वजह से त्राहि-त्राहि कर रही आम जनता में “अच्छे दिनों” के वायदे के प्रति तेजी से मोहभंग होता जा रहा है, मोदी ने नेपाल यात्रा के दौरान सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने वाले कुछ हथकण्डे अपनाकर अपनी खोयी साख वापस लाने की कोशिश की। अपनी यात्रा के पहले दिन मोदी ने नेपाल की संसद/संविधान सभा में सस्ती तुकबन्दियों, धार्मिक सन्दर्भों और मिथकों से सराबोर एक लंबा भाषण दिया जिसे सुनकर ऐसा जान पड़ता था मानो एक बड़ा भाई अपने छोटे भाई को अपने पाले में लाने के लिए पुचकार रहा हो और उसकी तारीफ़ के पुल बाँध रहा हो। हीनताबोध के शिकार नेपाल के बुर्जुआ राजनेता इस तारीफ़ को सुन फूले नहीं समा रहे थे। यात्रा के दूसरे दिन मोदी ने पशुपतिनाथ मन्दिर के दर्शन के ज़रिये भारत और नेपाल दोनों देशों में अपनी छवि ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ के रूप में स्थापित करने के लिए कुछ धार्मिक एवं पाखण्डपूर्ण टिटिम्मेबाजी की। बुर्जुआ मीडिया भला इस सुनहरे अवसर को कैसे छोड़ सकती थी! मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के बाद यह पहला ऐसा मौका था जब उसे एक बार फिर से मोदी की लोकप्रियता का उन्माद खड़ा करने के लिए मसाला मिला और उसने उसे जमकर भुनाया और अपनी टीआरपी बढ़ायी। नेपाली मीडिया में भी मोदी की नेपाल यात्रा को नेपाल के लोगों के दिल और दिमाग को छू लेने वाला बताया। इस बात में अर्धसत्य है कि मोदी ने नेपाल के लोगों के दिलो-दिमाग को छुआ, पूरी सच्चाई यह है कि दरअसल मोदी ने हिन्दू दिलों और बुर्जुआ दिमागों को छुआ।

मोदी सरकार का मज़दूरों के अधिकारों पर ख़तरनाक हमला

अगर देश का मज़दूर अपने ऊपर किये जा रहे इन हमलों का पुरज़ोर विरोध नहीं करता तो आने वाले समय में मज़दूरों से बंधुआ गुलामी करवाने के लिए मालिक वर्ग पूरी तरह आज़ाद हो जायेगा। श्रम कानूनों पर इन हमलों के ख़ि‍लाफ़ हम चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों पर भरोसा नहीं कर सकते जो मोदी सरकार के तलवे चाटने का तैयार बैठी हैं। हमें स्वयं अपनी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों व मज़दूर संगठनों के ज़रिये इन हमलों का जवाब देना होगा। इसीलिए हम सभी मज़दूर भाइयों और बहनों को ललकारते हैं कि 20 अगस्त को मोदी सरकार के मज़दूर-विरोधी कदमों का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए बड़ी से बड़ी संख्या में जन्तर-मन्तर पहुँचे।

मोदी सरकार ने दो महीने में अपने इरादे साफ़ कर दिये

मोदी सरकार का असली एजेंडा दो महीने में ही खुलकर सामने आ गया है। 2014-15 के रेल बजट, केन्द्रीय बजट और श्रम क़ानूनों में प्रस्तावित बदलावों तथा सरकार के अब तक के फैसलों से यह साफ़ है कि आने वाले दिनों में नीतियों की दिशा क्या रहने वाली है। मज़दूर बिगुल के पिछले अंक में हमने टिप्पणी की थी – “लुटेरे थैलीशाहों के लिए ‘अच्छे दिन’, मेहनतकश जनता के लिए ‘कड़े कदम’।” लगता है, इस बात को मोदी सरकार अक्षरशः सही साबित करने में जुट गयी है।

मोदी सरकार का एजेण्डा नम्बर 1 – रहे-सहे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाना

मोदी सरकार के 100 दिन के एजेण्डे में श्रम क़ानूनों में बदलाव को पहली प्राथमिकताओं में से एक बताया जा रहा है। पूँजीपतियों की तमाम संस्थाएँ और भाड़े के बुर्जुआ अर्थशास्त्री उछल-उछलकर सरकार के इन प्रस्तावित क़दमों का स्वागत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में जोश भरने और रोज़गार पैदा करने का यही रास्ता है। कहा जा रहा है कि आज़ादी के तुरन्त बाद बनाये गये श्रम क़ानून विकास के रास्ते में बाधा हैं, इसलिए इन्हें कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए और श्रम बाज़ारों को “मुक्त” कर देना चाहिए। विश्व बैंक ने भी 2014 की एक रिपोर्ट में कह दिया है कि भारत में दुनिया के सबसे कठोर श्रम क़ानून हैं जिनके कारण यहाँ पर उद्योग-व्यापार की तरक्की नहीं हो पा रही है। पूँजीपतियों के नेता बड़ी उम्मीद से कह रहे हैं कि निजी उद्यम को बढ़ावा देने और सरकार का हस्तक्षेप कम से कम करने के पक्षधर नरेन्द्र मोदी इंग्लैण्ड की प्रधानमन्त्री मार्गरेट थैचर या पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की तर्ज पर भारत में उदारीकरण को आगे बढ़ायेंगे। इनका कहना है कि सबसे ज़रूरी उन क़ानूनों में बदलाव लाना है जिनके कारण मज़दूरों की छुट्टी करना कठिन होता है।

लुटेरे थैलीशाहों के लिए “अच्छे दिन” – मेहनतकशों और ग़रीबों के लिए “कड़े क़दम”!

सिर्फ़ एक महीने के घटनाक्रम पर नज़र डालें तो आने वाले दिनों की झलक साफ़ दिख जाती है। एक ओर यह बिल्कुल साफ़ हो गया है कि निजीकरण-उदारीकरण की उन आर्थिक नीतियों में कोई बदलाव नहीं होने वाला है जिनका कहर आम जनता पिछले ढाई दशक से झेल रही है। बल्कि इन नीतियों को और ज़ोर-शोर से तथा कड़क ढंग से लागू करने की तैयारी की जा रही है। दूसरी ओर, संघ परिवार से जुड़े भगवा उन्मादी तत्वों और हिन्दुत्ववादियों के गुण्डा-गिरोहों ने जगह-जगह उत्पात मचाना शुरू कर दिया है। पुणे में राष्ट्रवादी हिन्दू सेना नामक गुण्डा-गिरोह ने सप्ताह भर तक शहर में जो नंगा नाच किया जिसकी परिणति मोहसिन शेख नाम के युवा इंजीनियर की बर्बर हत्या के साथ हुई, वह तो बस एक ट्रेलर है। इन दिनों शान्ति-सद्भाव और सबको साथ लेकर चलने की बात बार-बार दुहराने वाले नरेन्द्र मोदी या उनके गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस नृशंस घटना पर चुप्पी साध ली। मेवात, मेरठ, हैदराबाद आदि में साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं और कई अन्य जगहों पर ऐसी हिंसा की घटनाएँ हुई हैं।

मज़दूरों के लिए “अच्छे दिन” शुरू, भाजपा द्वारा श्रमिकों के अधिकारों पर पहला हमला

पूँजीपतियों की लगातार कम होती मुनाफ़े की दर और ऊपर से आर्थिक संकट तथा मज़दूर वर्ग में बढ़ रहे बग़ावती सुर से निपटने के लिए पूँजीपतियों के पास आखि़री हथियार फासीवाद होता है। भारत के पूँजीपति वर्ग के भी अपने इस हथियार को आज़माने के दिन आ गये हैं। फासीवादी सत्ता में आते तो मोटे तौर पर मध्यवर्ग (तथा कुछ हद तक मज़दूर वर्ग भी) के वोट के बूते पर हैं, लेकिन सत्ता में आते ही वह अपने मालिक बड़े पूँजीपतियों की सेवा में सरेआम जुट जाते हैं। राजस्थान सरकार के ताज़ा संशोधन इसी का हिस्सा हैं।

रिलायंस की गैस का गोरखधन्धा

जब दुनिया में कहीं भी गैस की उत्पादन लागत 1.43 डॉलर से ज़्यादा नहीं है तो रिलायंस को इतनी ऊँची दर क्यों दी जा रही है। इतना ही नहीं, 2011 में नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार रिलायंस बिना कोई कुआँ खोदे ही पेट्रोलियम मिलने के दावे करती रही। रिलायंस को पता ही नहीं था कि उसके पास कितने कुओं में कितनी गैस है। दूसरे, रिलायंस को केजी बेसिन के केवल एक चौथाई हिस्से पर काम करना था, लेकिन पीएसी कॉण्ट्रैक्ट के ख़ि‍लाफ़ जाकर रिलायंस ने समूचे बेसिन में काम शुरू कर दिया और सरकार ने इसमें कोई टोका-टाकी तक नहीं की।