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जनता में बढ़ते असन्तोष से घबराये भगवा सत्ताधारी
मगर जनता को आपस में लड़ाने-बाँटने-बहकाने की साज़िशों से सावधान रहना होगा
-संपादक मंडल
अभी हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने तमाम संगठनों से कहा कि वे मोदी सरकार के ग़लत कामों का विरोध करने में संकोच न करें और जहाँ ज़रूरी समझें वहाँ विरोध और आन्दोलन भी करें। दरअसल संघ परिवार को जनता के टूटते धीरज और बढ़ते असन्तोष का अहसास होने लगा और वह पहले से ही इसकी पेशबन्दी करने की जुगत में भिड़ गया है।
पिछले साढ़े तीन साल से जनता को सिर्फ़ जुमलों की अफ़ीम चटायी जा रही थी और देश की एक अच्छी-खासी आबादी इस उम्मीद में सारी परेशानियाँ झेल रही थी कि मोदी सरकार के दिखाये सपनों में से कुछ तो पूरे होंगे। मगर अब ज़िन्दगी की बढ़ती तकलीफ़ें और एक-एक करके टूटते सारे वादे बर्दाश्त की हदों को पार करने लगे हैं। ‘बहुत हुई महँगाई की मार’ कहकर सत्ता में आयी मोदी सरकार ने लोगों पर महँगाई का पहाड़ लाद दिया है। खाने-पीने की चीज़ों, दवाओं, शिक्षा, किराया-भाड़ा, गैस-डीज़ल-पेट्रोल सबकी कीमतें बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से लगातार बढ़ती जा रही हैं। रोज़गार बढ़ने के बजाय घट रहा है। भ्रष्टाचार, अपराध, गन्दगी किसी चीज़ में कमी नहीं आयी है।
हमने मोदी की जीत के बाद जो भविष्यवाणी की थी वह अक्षरश: सही साबित हो रही है। विदेशों में जमा काला धन की एक पाई भी वापस नहीं आयी है। देश के हर नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये आना तो दूर, फूटी कौड़ी भी नहीं आयेगी। नोटबन्दी से काला धन कम होने के बजाय उसका एक हिस्सा सफ़ेद हो गया और आम लोगों की ईमान की कमाई लुट गयी। निजीकरण की अन्धाधुन्ध मुहिम में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को हड़पकर देशी-विदेशी कम्पनियाँ जमकर छँटनी कर रही हैं। न केवल ब्लू कॉलर नौकरियों बल्कि व्हाइट कॉलर नौकरियों में भी अभूतपूर्व कटौती हो रही है, और इंजीनियरों, टेकनीशियनों, क्लर्कों की नौकरियों के भी लाले पड़ गये हैं। बेरोज़गारी की दर नयी ऊँचाइयों पर है और छात्रों-युवाओं के आन्दोलन जगह-जगह फूट रहे हैं। मोदी के “श्रम सुधारों” के परिणामस्वरूप मज़दूरों के रहे-सहे अधिकार भी छिन चुके हैं, असंगठित मज़दूरों के अनुपात में और बढ़ोत्तरी हुई है, बारह-चौदह घण्टे सपरिवार खटने के बावजूद मज़दूर परिवारों का जीना मुहाल है।
जल, जंगल, ज़मीन, खदान, सब कुछ पहले से कई गुना अधिक बड़े पैमाने पर देशी-विदेशी कॉरपोरेट मगरमच्छों को सौंपे जा रहे हैं, पर्यावरण आदि के संरक्षण के सारे नियम-क़ानूनों को ताक पर धर दिया गया है। रेल जैसे उपक्रमों के निजीकरण की झोंक में तबाही की राह पर धकेल दिया गया है और लोगों की जान से खिलवाड़ किया जा रहा है। सिर्फ़ पैसे बटोरने और लोगों को आपस में लड़ाने में माहिर निकम्मे, हृदयहीन और भ्रष्ट लोगों के हाथों में सरकारी तंत्र पंगु होता जा रहा है जिसकी सबसे भयानक मिसाल गोरखपुर से लेकर झारखण्ड और मध्य प्रदेश तक सैकड़ों बच्चों की मौत है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मदों में जहाँ पहले ही बहुत कम राशि दी जाती थी, अब उसमें भी भारी कटौती कर दी गयी है। दूसरी ओर, बुलेट ट्रेन, गायों के लिए एंबुलेंस, मदरसों की वीडियोग्राफ़ी और प्रधानमंत्री के जन्मदिन जैसे मदों पर बहाने के लिए सरकार के पास पैसे हैं।
मोदी के अच्छे दिनों के वायदे का बैलून जैसे-जैसे पिचककर नीचे उतरता जा रहा है, वैसे-वैसे हिन्दुत्व की राजनीति और साम्प्रदायिक तनाव का उन्मादी खेल ज़ोर पकड़ता जा रहा है। इसे अभी और तेज़ किया जायेगा ताकि जन एकजुटता तोड़ी जा सके। अन्धराष्ट्रवादी जुनून पैदा करने पर भी पूरा ज़ोर होगा। पाकिस्तान के साथ सीमित या व्यापक सीमा संघर्ष भी हो सकता है, क्योंकि जनाक्रोश से आतंकित दोनों ही देशों के संकटग्रस्त शासक वर्गों को इससे राहत मिलेगी।
भाजपा सरकार ने जीएसटी बिल लागूकर, वित्त विधेयक 139 पास कर व श्रम क़ानूनों पर हमले कर बड़ी पूँजी का भरोसा जीता है लेकिन परन्तु मन्दी के दौर में भाजपा सरकार की नग्न नीतियाँ भी अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला की हवस को पूरा नहीं कर पा रही हैं और यही कारण है कि फासीवादी दमन चक्र अभी और बढ़ेगा। न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में इन दक्षिणपन्थी फासीवादी ताकतों के उभार के मूल में गहराते आर्थिक संकट ही है। क्रान्तिकारी विकल्प की अनुपस्थिति ने इन ताक़तों को और बढ़ने का मौका दिया है।
लुब्बेलुबाब यह कि मोदी सरकार की नीतियों ने उस ज्वालामुखी के दहाने की ओर भारतीय समाज के सरकते जाने की रफ्तार को काफ़ी तेज़ कर दिया है, जिस ओर घिसटने की यात्रा गत लगभग तीन दशकों से जारी है। भारतीय पूँजीवाद का आर्थिक संकट ढाँचागत है। यह पूरे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहा है। बुर्जुआ जनवाद का राजनीतिक-संवैधानिक ढाँचा इसके दबाव से चरमरा रहा है। भारत को चीन और अमेरिका जैसा बनाने के सारे दावे हवा हो चुके हैं। आने वाले डेढ़ साल में भक्तजनों को मुँह छुपाने को कोई अँधेरा कोना भी नहीं नसीब होगा। (इसीलिए अब सारे वादे 2022 के किये जा रहे हैं।) फिर ‘एण्टी-इन्कम्बेंसी’ का लाभ उठाकर केन्द्र में चाहे कांग्रेस की सरकार आये या तीसरे मोर्चे की शिवजी की बारात और संसदीय वामपन्थी मदारियों की मिली-जुली जमात, उसे भी इन्हीं नवउदारवादी नीतियों को लागू करना होगा, क्योंकि कीन्सियाई नुस्खों की ओर वापसी अब सम्भव ही नहीं।
अगर हम आज ही हिटलर के इन अनुयायियों की असलियत नहीं पहचानते और इनके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते तो कल बहुत देर हो जायेगी। हर ज़ुबान पर ताला लग जायेगा। देश में महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी का जो आलम है, ज़ाहिर है हममें से हर उस इंसान को कल अपने हक़ की आवाज़ उठानी पड़ेगी जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुआ है। ऐसे में हर किसी को ये सरकार और उसके संरक्षण में काम करने वाली गुण्डा वाहिनियाँ ”देशद्रोही” घोषित कर देंगी! हमें इनकी असलियत को जनता के सामने नंगा करना होगा। शहरों की कॉलोनि यों, बस्तियों से लेकर कैम्पसों और शैक्षणिक संस्थानों में हमें इन्हें बेनक़ाब करना होगा। गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे में इनकी पोल खोलनी होगी।
फासिस्टों के वि रुद्ध धुआँधार प्रचार और इस संघर्ष में मेहनतकश जनता के नौजवानों की भरती के साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि फासिस्ट शक्तियों ने आज राज्य सत्ता पर कब्ज़ा करने के साथ ही, समाज में विभिन्न रूपों में अपनी पैठ बना रखी है। इनसे मुकाबले के लिए हमें वैकल्पिक शिक्षा, प्रचार और संस्कृति का अपना तंत्र विकसित करना होगा, मज़दूर वर्ग को राजनीतिक स्तर पर शिक्षित-संगठित करना होगा और मध्य वर्ग के रैडिकल तत्वों को उनके साथ खड़ा करना होगा। संगठित क्रान्तिकारी कैडर शक्ति की मदद से हमें भी अपनी खन्दकें खोदकर और बंकर बनाकर पूँजी और श्रम की ताक़तों के बीच मोर्चा बाँधकर चलने वाले लम्बे वर्ग युद्ध में पूँजी के भाड़े के गुण्डे फासिस्टों से मोर्चा लेने की तैयारी करनी होगी।
मज़दूर बिगुल,सितम्बर 2017
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन