Category Archives: चुनावी नौटंकी

दिल्ली विधानसभा चुनाव की सुबह हुआ एक संवाद जो क्रोधान्तिकी सिद्ध हुआ

हमारा लोकतांत्रिक अधिकार यह भी है कि किसी को न चुनें! बाध्यता क्या है? देश में जितने प्रतिशत लोग वोट देते हैं, उनमें से बहुमत पाने वाली पार्टी को बमुश्किल तमाम कुल वयस्क आबादी का 12-15 प्रतिशत वोट मिलता है। इस खेल में कोई न कोई तो आयेगा ही। रहा सवाल ‘आप’ पार्टी का, तो ये यदि दिल्ली नहीं देश में भी सरकार बना लें तो कोई फर्क नहीं पड़्रेगा। जब पूँजीपति लूटता है तो उसके अमले-चाकर, मंत्री-अफसर सदाचारी क्यों होंगे? वे भी घूस लेंगे। कमीशनखोरी होगी, दलाली होगी, हवाला कारोबार होगा। काला धन तो सफेद के साथ पैदा होगा ही। दरअसल, पूँजीवाद स्वयं में ही एक भ्रष्टाचार है। केजरीवाल क्या करेंगे? जनलोकपाल के नौकरशाही तंत्र में ही भ्रष्टाचार फैल जायेगा। ये केजरीवाल जैसे लोग पूँजीवाद के गन्दे कपड़े धोते रहने वाले लॉण्ड्री वाले हैं। सत्ता को बीच-बीच में ऐसे सुधारक चेहरों की ज़रूरत पड़ती है, जनता के मोहभंग को रोकने के लिए, उसे भ्रमित करने के लिए। केजरीवाल मज़दूरों की कभी बात नहीं करते, साम्राज्यवादी लूट के खि़लाफ़ उनकी क्या नीति है, काले दमनकारी क़ानूनों के बारे में उनकी क्या राय है? कुछ गुब्बारे फुलाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। ऐसे गुब्बारों की जिन्दगी ज़्यादा नहीं होती, जल्दी ही फट या पिचक जायेंगे।।

विधानसभा चुनावों के नतीजे और भविष्य के संकेत

‘आप’ पार्टी की राजनीति के पीछे जो सुधारवादी और प्रतिक्रियावादी यूटोपिया है उन दोनों का तार्किक विकास समाज में फ़ासीवाद के समर्थन-आधार को विस्तारित करने की ओर ही जाता है। मान लें कि 2014 नहीं तो 2019 तक ‘आप’ पार्टी का बुलबुला न फूटे और वह एक राष्ट्रीय विकल्प बन जाये (जिसकी सम्भावना बेहद कम है) और वह सत्ता में भी आ जाये तो वह नवउदारवादी नीतियों को निरंकुश नौकरशाही और ‘पुलिस स्टेट’ के सहारे निरंकुश स्वेच्छाचारिता के साथ लागू करेगी। इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता क्योंकि मुनाफे की गिरती दर के जिस पूँजीवादी संकट ने आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले मन्दी व दुष्चक्रीय निराशा के दौरों की जगह विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट को जन्म दिया है वह नवउदारवाद की नीतियों और लगातार सिकुड़ते बुर्जुआ जनवाद के सर्वसत्तावाद की ओर बढ़ते जाने के अतिरिक्त अन्य किसी विकल्प की ओर ले ही नहीं जा सकता।

चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है

जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम हो-हल्ले के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘भारत निर्माण’ का राग अलापने में लगी हुई है, उसके युवराज राहुल गाँधी बार-बार ग़रीबों के सबसे बड़े पैरोकार बनने के दावे कर रहे हैं, मगर जनता इतनी नादान नहीं कि वह भूल जाये कि पिछले 10 वर्ष में उन्हीं की पार्टी की सरकार ने ग़रीबों की हड्डियाँ निचोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उधर भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी अन्धराष्ट्रवादी नारों और जुमलों के साथ देश के विकास के हवाई दावों से मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का ध्यान खींच रहे हैं जो गुजरात में उसकी सरपरस्ती में हुए क़त्लेआम से भी आँख मूँदने को तैयार है। गुजरात के तथाकथित विकास के लिए उन्होंने मज़दूरों को दबाने-निचोड़ने और पूँजीपतियों को हर क़ीमत पर लूट की छूट देने की जो मिसाल क़ायम की है उसे देखकर कारपोरेट सेक्टर के तमाम महारथियों के वे प्रिय हो गये हैं जो आर्थिक संकट के इस माहौल में फासिस्ट घोड़े पर दाँव लगाने को तैयार बैठे हैं। वोटों की फसल काटने के लिए दंगों की आग भड़काने से लेकर हर तरह के घटिया हथकण्डे आज़माये जा रहे हैं।

चुनाव में मज़दूरों के पास क्या विकल्प है?

हम भी दिल ही दिल जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, और आप जैसी चुनावबाज़ पार्टियों का लेना-देना सिर्फ मालिकों, ठेकेदारों और दल्लालों के साथ है! उनका काम ही है इन लुटेरों के मुनाफ़े को सुरक्षित करना और बढ़ाना! ऐसे में, कुछ जूठन की चाहत में, क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण या फिर धर्म आदि के आधार पर इस या उस चुनावी मेंढक को वोट डालने से क्या बदलेगा? क्या पिछले 62 वर्षों में कुछ बदला है? अब वक्‍त आ गया है कि इस देश के 80 करोड़ मज़दूर, ग़रीब किसान और खेतिहर मज़दूर अपने आपको संगठित करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और पूँजीवादी चुनावों की ख़र्चीली नौटंकी के ज़रिये नहीं बल्कि इंक़लाबी रास्ते से देश में मेहनतकशों के लोकस्वराज्य की स्थापना करें। इसके लिए हमें आज से ही एक ओर अपने रोज़मर्रा के हक़ों जैसे कि हमारे श्रम अधिकारों, रिहायश, चिकित्सा, शिक्षा और भोजन के लिए अपने संगठन और यूनियन बनाकर लड़ना होगा, वहीं हमें दूरगामी लड़ाई यानी कि पूरे देश के उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर अपना हक़ कायम करने की लड़ाई की तैयारी भी आज से ही शुरू करनी होगी। वरना, वह समय दूर नहीं जब दुश्मन हमें अपनी संगीनों से लहूलुहान कर देगा और कहेगा कि ‘देखो! ये गुलामों की हड्डियाँ हैं!’

पूँजीवादी लोकतंत्र का फटा सुथन्ना और चुनावी सुधारों का पैबन्द

पूँजीवादी जनतंत्र में सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ किसी ऐसे ही शख़्स को उम्मीदवार बनाकर चुनावी वैतरणी पार कर सकती हैं जो येन-केन-प्रकारेण जीतने की गारण्टी देता हो। और चुनाव भी वही जीतता है जो आर्थिक रूप से ताक़तवर हो और पैसे या डण्डे के ज़ोर पर वोट ख़रीदने का दम रखता हो। या फिर धर्म और जाति के नाम पर लोगों को भड़काकर वोट आधारित उनके ध्रुवीकरण की साज़िश रचने में सिद्धहस्त हो। ज़ाहिर है ऐसी चुनावी राजनीति की बुनियाद अपराध पर ही टिकी रह सकती है। सभी बड़ी से लेकर छोटी पार्टियों के मंत्रियों और विधायकों पर या तो आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं या वे आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं।

क्यों ज़रूरी है चुनावी नारों की आड़ में छुपे सच का भण्डाफोड़?

वर्तमान सरकार महँगाई और बेरोज़गारी को नियंत्रित करने में असमर्थ है, अर्थव्यवस्था लगातार नीचे जा रही है, भ्रष्टाचार के नये-नये प्रेत खुलेआम लोगों के सामने आ रहे हैं, और भ्रष्टाचार करने वाले बेशर्मों की तरह खुले घूम रहे हैं। कुछ लोग इस अव्यवस्था के समाधान के लिए नरेन्द्र मोदी को चुनने का समर्थन कर रहे हैं। कुछ लोग मोदी की तुलना अन्धों में काने को राजा बनाने से भी कर रहे हैं। मुख्य रूप से समाज के मध्य वर्ग में यह सोच आज आम धारणा बन चुकी है। लेकिन कांग्रेस या भाजपा, दोनों ही पार्टियों के शासन का इतिहास देखें तो भाजपा में भी उतना ही भ्रष्टाचार है, और वह भी उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाती है जिन्हें कांग्रेस। वास्तव में दोनो ही मुनाफे के लिये अन्धे हैं, जो पूँजीवाद का मूल मंत्र है, इसलिए इनमें से किसी को काना भी नहीं कहा जा सकता। इतना मान लेने वाले कुछ लोगों का अगला सवाल यह होता है कि फिर अभी क्या करें, किसी को तो चुनना ही पड़ेगा? इस सवाल का जवाब देने से पहले हमें थोड़ा विस्तार से वर्तमान व्यवस्था पर नज़र डालनी होगी।

गर थाली आपकी खाली है, तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे

ऐसे खेल तमाशे हर पाँचसाला चुनाव के पहले दिखाये जाते हैं। विशेषकर ग़रीब और ग़रीबी दूर करने से संबंधित नौटंकी चुनाव के ऐन पहले प्रदर्शन के लिए हमेशा सुरक्षित रखी जाती है। दरअसल इसके जरिये सत्तासीन पार्टी और सत्तासुख से वंचित तथाकथित विरोधी पार्टियां (जो कि वास्तव में चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह ही होती हैं – जनता की हितैषी होने का दिखावा, लेकिन हकीकत में पूँजीपतियों की वफा़दार), दोनों ही आम जनता को भरमाने का मुगालता पाले रहती हैं। पर जनता सब जानती है। वह अपने अनुभव से देख रही है कि आजादी के 62 सालों में देश की तरक्की के चाहे जितने भी वायदे किये गये हों उसकी जिन्दगी में तंगहाली बढ़ी ही है। पेट भरने लायक जरूरी चीजों की भी कीमतें आसमान छू रही हैं, उसके आंखों के सामने उसके बच्चे कुपोषण और भूख से मर रहे हैं, और दवा और इलाज के अभाव में तिल-तिल कर खत्म हो जाना जिसकी नियति है। इस सच्चाई को ग़रीब और ग़रीबी के बेतुके सरकारी आँकड़े झुठला नहीं सकते।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (इक्कीसवीं किश्त)

इन धन्नासेठों और अपराधियों की तू-तू-मैं-मैं और नूराकुश्ती के लिए संसद के सत्र के दौरान प्रतिदिन करोड़ो रुपये खर्च होते हैं जो देश की जनता के खून-पसीने की कमाई से ही सम्भव होता है। उसमें भी सत्र के ज़्यादातर दिन तो किसी न किसी मुद्दे को लेकर संसद में कार्यस्थगन हो जाता है और फिर जनता के लुटेरों को अय्याशी के लिए और वक़्त मिल जाता है। आम जनता की ज़िन्दगी से कोसों दूर ये लुटेरे आलीशान बंगलों में रहते हैं, सरकारी ख़र्च से हवाई जहाज और महँगी गाड़ियों से सफर करते हैं और विदेशों और हिल स्टेशनों पर छुट्टियाँ मनाते हैं। एक ऐसे देश में जहाँ बहुसंख्यक जनता को दस-दस बारह-बारह घण्टे खटने के बाद भी दो जून की रोटी के लाले पड़े रहते हैं, जनता के तथाकथित प्रतिनिधियों की विलासिता भरी ज़िन्दगी अपने आप में लोकतन्त्र के लम्बे-चौड़े दावों को एक भद्दा मज़ाक बना देती है।

चुनावी मौसम में याद आया कि मज़दूर भी इंसान हैं

इस बार चुनावी दंगल में भाजपा मजदूर आबादी को भी अपने झाँसे में लेने के लिए तीन-तिकड़में कर रही है। अभी 10 जुलाई को दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष विजय गोयल ने राजधानी के असंगठित मजदूरों के लिए असंगठित मजदूर मोर्चा का गठन किया है जिसमें रेहड़ी-रिक्शा चालक, ठेका मजदूर, सेल्ममैन, सिलाई मज़दूर से लेकर भवन निर्माण पेशे के मज़दूर शामिल है जो भयंकर शोषण और नारकीय परिस्थितियों में काम करते है लेकिन सवाल उठता है कि इन चुनावी मदारियों को हमेशा चुनाव से चन्द दिनों पहले ही मेहनतकश आबादी की बदहाली क्यों नज़र आती है। दूसरे, भाजपा जिन मज़दूरों का शोषण रोकने की बात कर रही है उनका शोषण करने वाले कौन हैं?

2014 के आम लोकसभा चुनावों के लिए शासक वर्गों के तमाम दलालों की साज़िशें

आज पूँजीवादी राजनीति के सामने जो संकट खड़ा है, वह दरअसल समूची पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की ही एक अभिव्यक्ति है। फिलहाली तौर पर, संसद और विधानसभा में बैठने वाले पूँजी के दलालों के पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है; जनता में असन्तोष बढ़ रहा है; दुनिया के कई अन्य देशों में जनविद्रोहों के बाद शासकों की नियति भारत के पूँजीवादी शासकों के भी सामने है; इससे पहले कि जनता का असन्तोष किसी विद्रोह की दिशा में आगे बढ़े, उनको धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रगत या भाषागत तौर पर बाँट दिया जाना ज़रूरी है। और इसीलिए अचानक आरक्षण का मुद्दा, राम-मन्दिर का मुद्दा, मुसलमानों की स्थिति का मुद्दा फिर से राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीति में गर्माया जा रहा है। तेलंगाना से लेकर बोडोलैण्ड और गोरखालैण्ड के मसले को भी केन्द्र में बैठे पूँजीवादी घाघ हवा दे रहे हैं। जो संकट आज देश के सामने खड़ा है, उसके समक्ष दोनों ही सम्भावनाएँ देश के सामने मौजूद हैं। एक सम्भावना तो यह है कि सभी प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश की आम मेहनतकश जनता को बाँटने और अपने संकट को हज़ारों बेगुनाहों की बलि देकर टालने की साज़िश में कामयाब हो जाये। और दूसरी सम्भावना यह है कि हम इस साज़िश के ख़िलाफ़ अभी से आवाज़ बुलन्द करें, अपने आपको जगायें, अपने आपको गोलबन्द और संगठित करें। देश का मज़दूर वर्ग ही वह वर्ग है जो कि फ़ासीवाद के उभार का मुकाबला कर सकता है, बशर्ते कि वह ख़ुद अपने आपको इन धार्मिक कट्टरपन्थियों के भरम से मुक्त करे और अपने आपको वर्ग चेतना के आधार पर संगठित करे। या तो हम इस रास्ते पर आगे बढ़ेंगे, या फिर हम एक बार फिर से चूक जाएँगे, एक बार फिर से हज़ारों की तादाद में अपने लोगों को खोएँगे और एक बार फिर से प्रतिक्रियावादी ताक़तें हमें इतिहास के मंच पर प्रवेश करने से पहले ही फिर से कई वर्षों के लिए उठाकर बाहर फेंक देंगी; एक बार फिर से पराजय और निराशा का दौर शुरू हो जायेगा। इस नियति से बचने का रास्ता यही है कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, जद (यू), राजद, माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) आदि समेत सभी चुनावी मदारियों के भरम तोड़कर हम अपना इंक़लाबी विकल्प खड़ा करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और एक इंक़लाब के ज़रिये मेहनतकश का लोकस्वराज्य खड़ा करने के लिए आगे बढ़ें!