न कोई नारा, न कोई मुद्दा – चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है
जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम जोड़-तोड़, तीन-तिकड़म और सिनेमाई ग्लैमर की चमक-दमक के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘इंडिया शाइनिंग़ की ही तर्ज़ पर ‘जय हो’ का राग अलापने में लगी हुई है, तो भाजपा उसकी पैरोडी करते हुए यह भूल जा रही है कि पाँच वर्ष पहले वह भी देश को चमकाने के ऐसे ही दावे कर रही थी। विधानसभा चुनावों में आतंकवाद के मुद्दा न बन पाने के कारण भाजपा न तो उसे ज़ोरशोर से उठा पा रही है और न ही छोड़ पा रही है। वरुण गाँधी के ज़हरीले भाषण का पहले तो उसने विरोध किया और फिर वोटों के ध्रुवीकरण के लालच में उसे भुनाने में जुट गयी।