Category Archives: चुनावी नौटंकी

“महान अमेरिकी जनतन्‍त्र” के “निष्पक्ष चुनाव” की असली तस्वीर

इस तरह यूर्गिस को शिकागो की जरायम की दुनिया के ऊँचे तबकों की एक झलक मिली। इस शहर पर नाम के लिए जनता का शासन था, लेकिन इसके असली मालिक पूँजीपतियों का एक अल्पतन्त्र था। और सत्ता के इस हस्तान्तरण को जारी रखने के लिए अपराधियों की एक लम्बी-चौड़ी फ़ौज की ज़रूरत पड़ती थी। साल में दो बार, बसन्त और पतझड़ के समय होने वाले चुनावों में पूँजीपति लाखों डॉलर मुहैया कराते थे, जिन्हें यह फ़ौज ख़र्च करती थी – मीटिंगें आयोजित की जाती थीं और कुशल वक्ता भाड़े पर बुलाये जाते थे, बैण्ड बजते थे और आतिशबाजियाँ होती थीं, टनों पर्चे और हज़ारों लीटर शराब बाँटी जाती थी। और दसियों हज़ार वोट पैसे देकर ख़रीदे जाते थे और ज़ाहिर है अपराधियों की इस फ़ौज को साल भर टिकाये रहना पड़ता था। नेताओं और संगठनकर्ताओं का ख़र्चा पूँजीपतियों से सीधे मिलने वाले पैसे से चलता था – पार्षदों और विधायकों का रिश्वत के ज़रिये, पार्टी पदाधिकारियों का चुनाव-प्रचार के फ़ण्ड से, वकीलों का तनख़्वाह से, ठेकेदारों का ठेकों से, यूनियन नेताओं का चन्दे से और अख़बार मालिकों और सम्पादकों का विज्ञापनों से। लेकिन इस फ़ौज के आम सिपाहियों को या तो शहर के तमाम विभागों में घुसाया जाता था या फिर उन्हें सीधे शहरी आबादी से ही अपना ख़र्चा-पानी निकालना पड़ता था। इन लोगों को पुलिस महकमे, दमकल और जलकल के महकमे और शहर के तमाम दूसरे महकमों में चपरासी से लेकर महकमे के हेड तक के किसी भी पद पर भर्ती किया जा सकता था। और बाक़ी बचा जो हुजूम इनमें जगह नहीं पा सकता था, उसके लिए जरायम की दुनिया मौजूद थी, जहाँ उन्हें ठगने, लूटने, धोखा देने और लोगों को अपना शिकार बनाने का लाइसेंस मिला हुआ था।

दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के विभिन्न इलाक़ों में चुनावी राजनीति का भण्डाफोड़ अभियान

अभियान के दौरान कार्यकर्ताओं की टोलियाँ पिछले 62 वर्ष से जारी चुनावी तमाशे का पर्दाफ़ाश करते हुए बड़े पैमाने पर बाँटे जा रहे विभिन्न पर्चों, नुक्कड़ सभाओं, कार्टूनों और पोस्टरों की प्रदर्शनियों तथा नुक्कड़ नाटकों के ज़रिये लोगों को बता रही हैं कि दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों, अशिक्षितों व बेरोज़गारों वाले हमारे देश में कुपोषण, बेरोज़गारी, महँगाई, मज़दूरों का भयंकर शोषण या भुखमरी कोई मुद्दा ही नहीं है! आज विश्व पूँजीवादी व्यवस्था गहराते आर्थिक संकट तले कराह रही है। ऐसे में किसी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिए कोई ठोस मुद्दा नहीं है। सब जानते हैं कि सत्ता में आने के बाद उन्हें जनता को बुरी तरह निचोड़कर अपने देशी-विदेशी पूँजीपति आकाओं के संकट को हल करने में अपनी सेवा देनी है। सभी पार्टियों में अपने आपको पूँजीपतियों का सबसे वफ़ादार सेवक साबित करने की होड़ मची हुई है।

पूँजीवादी चुनाव की फूहड़ नौटंकी फिर शुरू क्‍या करें मज़दूर और मेहनतकश ?

इस चुनाव में आप किस पार्टी पर जाकर ठप्पा लगायें या न लगायें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 1952 से अब तक पूँजी की लूट के गन्दे, ख़ूनी खेल के आगे रंगीन रेशमी परदा खड़ा करके जनतंत्र का जो नाटक खेला जा रहा है वह भी अब बेहद गन्दा और अश्लील हो चुका है। अब सवाल इस नाटक के पूरे रंगमंच को ही उखाड़ फेंकने का है। मज़दूर वर्ग के पास वह क्रान्तिकारी शक्ति है जो इस काम को अंजाम दे सकती है। बेशक यह राह कुछ लम्बी होगी, लेकिन पूँजीवादी नकली जनतंत्र की जगह मज़दूरों और मेहनतकशों को अपना क्रान्तिकारी विकल्प पेश करना होगा। उन्हें पूँजीवादी जनतंत्र का विकल्प खड़ा करने के एक लम्बे इंक़लाबी सफ़र पर चलना होगा। यह सफ़र लम्बा तो ज़रूर होगा लेकिन एक हज़ार मील लम्बे सफ़र की शुरुआत भी एक क़दम से ही तो होती है।

ग़रीबी, महँगाई, भ्रष्टाचार से छुटकारे का रास्ता – चुनाव नहीं, इंक़लाब है!

कांग्रेसी सरकार बने चाहे भाजपाई, क्षेत्रीय दलों और नक़ली लाल झण्डे वालों के साँझे मोर्चे की सरकार बने चाहे ”ईमानदारी” की क़समें खाने वाली ”आप” पार्टी की सरकार बने – सरकार तो जनता को लूटने-खसोटने वाले पूँजीपति धन्नासेठों की ही बननी है। इन चुनावों का खेल है ही ऐसा। लुटेरे पूँजीपति हमेशा जीतते हैं, जनता हमेशा हारती है। अंग्रेज़ों के जाने के बाद के पिछले 67 सालों में आज तक जितनी भी सरकारें बनती रही हैं बिना किसी अपवाद के अमीरों की यानी पूँजीपतियों की ही सरकारें थीं। और इस बार भी कुछ अलग नहीं होने वाला है। जिस समाज में कारख़ानों, खदानों, ज़मीनों, व्यापार, आदि तमाम आर्थिक संसाधनों और धन-दौलत पर मुट्ठीभर पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा हो, उसमें चुनाव के ज़रिए जनता की सरकार बनने की उम्मीद पालना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। पूँजी के बलबूते ही चुनाव लड़े और जीते जाते हैं। जनता से झूठे वादे करके, पूँजीवादी अख़बारों व टीवी चैनलों के ज़रिए अपने पक्ष में माहौल बनाकर, जनता को धर्म-जाति-क्षेत्र के नाम पर बाँटकर, दंगे करवाकर, वोटरों को खऱीदकर, नशे बाँटकर, बूथों पर क़ब्ज़े करके आदि हथकण्डों द्वारा चुनाव जीते जाते हैं। इन चुनावों में भी यही कुछ हो रहा है और पूँजीवादी व्यवस्था में यही हो सकता है।

लोकसभा चुनाव-2014 – हाँ, हमें चुनना तो है! लेकिन किन विकल्पों के बीच?

16वें लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। हमें फिर चुनने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन चुनने के लिये क्या है? झूठे आश्वासनों और गाली-गलौच की गन्दी धूल के नीचे असली मुद्दे दब चुके हैं। दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों, अशिक्षितों व बेरोज़गारों के देश भारत के 66 साल के इतिहास में सबसे महँगे और दुनिया के दूसरे सबसे महँगे चुनाव (30 हज़ार करोड़) में कुपोषण, बेरोज़गारी या भुखमरी मुद्दा नहीं है! बल्कि “भारत निर्माण” और देश के “विकास” के लिए चुनाव करने की दुहाई दी जा रही है! विश्व पूँजीवादी व्यवस्था गहराते आर्थिक संकट तले कराह रही है और इसका असर भारत के टाटा, बिड़ला, अम्बानी-सरीखे पूँजीपतियों पर भी दिख रहा है। ऐसे में, भारत का पूँजीपति वर्ग भी चुनाव में अपनी सेवा करने वाली चुनावबाज़ पार्टियों के बीच चुन रहा है। पूँजीवादी जनतंत्र वास्तव में एक धनतंत्र होता है, यह शायद ही इससे पहले किसी चुनाव इतने नंगे रूप में दिखा हो। सड़कों पर पोस्टरों, गली-नुक्कड़ों में नाम चमकाने वाले पर्चों और तमाम शोर-शराबे के साथ जमकर दलबदली, घूसखोरी, मीडिया की ख़रीदारी इस बार के चुनाव में सारे रिकार्ड तोड़ रही है। जहाँ भाजपा-कांग्रेस व तमाम क्षेत्रीय दल सिनेमा के भाँड-भड़क्कों से लेकर हत्यारों-बलात्कारियों-तस्करों-डकैतों के सत्कार समारोह आयोजित करा रहे हैं, तो वहीं आम आदमी पार्टी के एनजीओ-बाज़ “नयी आज़ादी”, “पूर्ण स्वराज” जैसे भ्रामक नारों की आड़ में पूँजीपतियों की चोर-दरवाज़े से सेवा करने की तैयारी कर रही है; भाकपा-माकपा-भाकपा(माले) जैसे संसदीय वामपंथी तोते हमेशा की तरह ‘लाल’ मिर्च खाकर संसदीय विरोध की नौटंकी के नये राउण्ड की तैयारी कर रहे हैं। उदित राज व रामदास आठवले जैसे स्वयंभू दलित मसीहा सर्वाधिक सवर्णवादी पार्टी भाजपा की गोद में बैठ कर मेहनतकश दलितों के साथ ग़द्दारी कर रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह खड़ा होता है कि हमारे पास चुनने के लिए क्या है?

दिल्ली विधानसभा चुनाव की सुबह हुआ एक संवाद जो क्रोधान्तिकी सिद्ध हुआ

हमारा लोकतांत्रिक अधिकार यह भी है कि किसी को न चुनें! बाध्यता क्या है? देश में जितने प्रतिशत लोग वोट देते हैं, उनमें से बहुमत पाने वाली पार्टी को बमुश्किल तमाम कुल वयस्क आबादी का 12-15 प्रतिशत वोट मिलता है। इस खेल में कोई न कोई तो आयेगा ही। रहा सवाल ‘आप’ पार्टी का, तो ये यदि दिल्ली नहीं देश में भी सरकार बना लें तो कोई फर्क नहीं पड़्रेगा। जब पूँजीपति लूटता है तो उसके अमले-चाकर, मंत्री-अफसर सदाचारी क्यों होंगे? वे भी घूस लेंगे। कमीशनखोरी होगी, दलाली होगी, हवाला कारोबार होगा। काला धन तो सफेद के साथ पैदा होगा ही। दरअसल, पूँजीवाद स्वयं में ही एक भ्रष्टाचार है। केजरीवाल क्या करेंगे? जनलोकपाल के नौकरशाही तंत्र में ही भ्रष्टाचार फैल जायेगा। ये केजरीवाल जैसे लोग पूँजीवाद के गन्दे कपड़े धोते रहने वाले लॉण्ड्री वाले हैं। सत्ता को बीच-बीच में ऐसे सुधारक चेहरों की ज़रूरत पड़ती है, जनता के मोहभंग को रोकने के लिए, उसे भ्रमित करने के लिए। केजरीवाल मज़दूरों की कभी बात नहीं करते, साम्राज्यवादी लूट के खि़लाफ़ उनकी क्या नीति है, काले दमनकारी क़ानूनों के बारे में उनकी क्या राय है? कुछ गुब्बारे फुलाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। ऐसे गुब्बारों की जिन्दगी ज़्यादा नहीं होती, जल्दी ही फट या पिचक जायेंगे।।

विधानसभा चुनावों के नतीजे और भविष्य के संकेत

‘आप’ पार्टी की राजनीति के पीछे जो सुधारवादी और प्रतिक्रियावादी यूटोपिया है उन दोनों का तार्किक विकास समाज में फ़ासीवाद के समर्थन-आधार को विस्तारित करने की ओर ही जाता है। मान लें कि 2014 नहीं तो 2019 तक ‘आप’ पार्टी का बुलबुला न फूटे और वह एक राष्ट्रीय विकल्प बन जाये (जिसकी सम्भावना बेहद कम है) और वह सत्ता में भी आ जाये तो वह नवउदारवादी नीतियों को निरंकुश नौकरशाही और ‘पुलिस स्टेट’ के सहारे निरंकुश स्वेच्छाचारिता के साथ लागू करेगी। इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता क्योंकि मुनाफे की गिरती दर के जिस पूँजीवादी संकट ने आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले मन्दी व दुष्चक्रीय निराशा के दौरों की जगह विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट को जन्म दिया है वह नवउदारवाद की नीतियों और लगातार सिकुड़ते बुर्जुआ जनवाद के सर्वसत्तावाद की ओर बढ़ते जाने के अतिरिक्त अन्य किसी विकल्प की ओर ले ही नहीं जा सकता।

चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है

जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम हो-हल्ले के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘भारत निर्माण’ का राग अलापने में लगी हुई है, उसके युवराज राहुल गाँधी बार-बार ग़रीबों के सबसे बड़े पैरोकार बनने के दावे कर रहे हैं, मगर जनता इतनी नादान नहीं कि वह भूल जाये कि पिछले 10 वर्ष में उन्हीं की पार्टी की सरकार ने ग़रीबों की हड्डियाँ निचोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उधर भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी अन्धराष्ट्रवादी नारों और जुमलों के साथ देश के विकास के हवाई दावों से मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का ध्यान खींच रहे हैं जो गुजरात में उसकी सरपरस्ती में हुए क़त्लेआम से भी आँख मूँदने को तैयार है। गुजरात के तथाकथित विकास के लिए उन्होंने मज़दूरों को दबाने-निचोड़ने और पूँजीपतियों को हर क़ीमत पर लूट की छूट देने की जो मिसाल क़ायम की है उसे देखकर कारपोरेट सेक्टर के तमाम महारथियों के वे प्रिय हो गये हैं जो आर्थिक संकट के इस माहौल में फासिस्ट घोड़े पर दाँव लगाने को तैयार बैठे हैं। वोटों की फसल काटने के लिए दंगों की आग भड़काने से लेकर हर तरह के घटिया हथकण्डे आज़माये जा रहे हैं।

चुनाव में मज़दूरों के पास क्या विकल्प है?

हम भी दिल ही दिल जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, और आप जैसी चुनावबाज़ पार्टियों का लेना-देना सिर्फ मालिकों, ठेकेदारों और दल्लालों के साथ है! उनका काम ही है इन लुटेरों के मुनाफ़े को सुरक्षित करना और बढ़ाना! ऐसे में, कुछ जूठन की चाहत में, क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण या फिर धर्म आदि के आधार पर इस या उस चुनावी मेंढक को वोट डालने से क्या बदलेगा? क्या पिछले 62 वर्षों में कुछ बदला है? अब वक्‍त आ गया है कि इस देश के 80 करोड़ मज़दूर, ग़रीब किसान और खेतिहर मज़दूर अपने आपको संगठित करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और पूँजीवादी चुनावों की ख़र्चीली नौटंकी के ज़रिये नहीं बल्कि इंक़लाबी रास्ते से देश में मेहनतकशों के लोकस्वराज्य की स्थापना करें। इसके लिए हमें आज से ही एक ओर अपने रोज़मर्रा के हक़ों जैसे कि हमारे श्रम अधिकारों, रिहायश, चिकित्सा, शिक्षा और भोजन के लिए अपने संगठन और यूनियन बनाकर लड़ना होगा, वहीं हमें दूरगामी लड़ाई यानी कि पूरे देश के उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर अपना हक़ कायम करने की लड़ाई की तैयारी भी आज से ही शुरू करनी होगी। वरना, वह समय दूर नहीं जब दुश्मन हमें अपनी संगीनों से लहूलुहान कर देगा और कहेगा कि ‘देखो! ये गुलामों की हड्डियाँ हैं!’

पूँजीवादी लोकतंत्र का फटा सुथन्ना और चुनावी सुधारों का पैबन्द

पूँजीवादी जनतंत्र में सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ किसी ऐसे ही शख़्स को उम्मीदवार बनाकर चुनावी वैतरणी पार कर सकती हैं जो येन-केन-प्रकारेण जीतने की गारण्टी देता हो। और चुनाव भी वही जीतता है जो आर्थिक रूप से ताक़तवर हो और पैसे या डण्डे के ज़ोर पर वोट ख़रीदने का दम रखता हो। या फिर धर्म और जाति के नाम पर लोगों को भड़काकर वोट आधारित उनके ध्रुवीकरण की साज़िश रचने में सिद्धहस्त हो। ज़ाहिर है ऐसी चुनावी राजनीति की बुनियाद अपराध पर ही टिकी रह सकती है। सभी बड़ी से लेकर छोटी पार्टियों के मंत्रियों और विधायकों पर या तो आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं या वे आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं।