अक्टूबर क्रान्ति के नेता वी.आई. लेनिन के तीन विचारणीय उद्धरण

“आधुनिक राज्यों के बुनियादी क़ानूनों को लीजिए, उनके प्रशासन को लीजिए, सभा करने की आज़ादी को लीजिए, प्रेस की आज़ादी को लीजिए, या फिर “क़ानून के सामने सभी नागरिकों की समानता” को ले लीजिए, और आप हर मोड़ पर पूँजीवादी लोकतंत्र के उस पाखण्ड के साक्ष्य देखेंगे जिससे हर ईमानदार और वर्ग-सचेत मज़दूर परिचित होता है। एक भी ऐसा राज्य नहीं है, चाहे जितना भी लोकतांत्रिक क्यों न हो, जिसके संविधान में ऐसे छेद या प्रावधान न हों जो कि बुर्जुआ वर्ग को मज़दूरों के ख़िलाफ़ सेना भेजने, मार्शल लॉ लागू करने या ऐसी ही अन्य सम्भावनाओं की गारण्टी न देता हो – कहने को “सार्वजनिक व्यवस्था के उल्लंघन” की स्थिति में, और वास्तव में ऐसी स्थिति में जब शोषित वर्ग ग़ुलामी की अपनी हालत का “उल्लंघन” करता है और ग़ुलामों के ढंग से हटकर आचरण करने की कोशिश करता है।” 

(‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की’ से)

 

“लोग राजनीति में हमेशा से धोखाधड़ी और ख़ुद को धोखे में रखने के नादान शिकार हुए हैं और तब तक होते रहेंगे जब तक वे तमाम नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक कथनों, घोषणाओं और वायदों के पीछे किसी न किसी वर्ग के हितों का पता लगाना नहीं सीखेंगे। सुधारों और बेहतरी के समर्थक जब तक यह नहीं समझ लेंगे कि हर पुरानी संस्‍था, चाहे वह कितनी भी बर्बरतापूर्ण और सड़ी हुई क्‍यों न प्रतीत होती हो, किन्‍हीं शासक वर्गों के बल-बूते पर ही क़ायम रहती है, तब तक पुरानी व्‍यवस्‍था के संरक्षक उन्‍हें बेवकूफ़ बनाते रहेंगे। और इन वर्गों के प्रतिरोध को चकनाचूर करने का केवल एक तरीक़ा है और वह यह है कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसी में उन शक्तियों का पता लगायें और उन्‍हें संघर्ष के लिए जागृत तथा संगठित करें, जो पुरातन को विनष्‍ट कर नूतन का सृजन करने में समर्थ हो सकती हैं और जिन्‍हें अपनी सामाजिक स्थिति के कारण ऐसा करने में समर्थ होना चाहिए।”

(‘मार्क्सवाद के तीन स्रोत और तीन संघटक अंग’ से)

“बुर्जुआ वर्ग के शासन को उलटने का काम उस ख़ास वर्ग की हैसियत से केवल सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है, जिसके जीवन की आर्थिक परिस्थितियाँ उसे इस काम के लिए प्रशिक्षित करती हैं, क्षमता और शक्ति देती हैं। बुर्जुआ वर्ग जहाँ किसानों और सभी टुटपूँजिया तबकों को विखण्डित और विभाजित करता है, वहीं वह सर्वहारा वर्ग को जमा करता है, एकताबद्ध और संगठित करता है। केवल सर्वहारा वर्ग ही – बड़े पैमाने के उत्पादन में अपनी आर्थिक भूमिका के कारण – उस तमाम श्रमजीवी और शोषित जनता का नेतृत्व कर सकता है, जिसका शोषण, उत्पीड़न और दमन बुर्जुआ वर्ग सर्वहारा की अपेक्षा कम नहीं, बल्कि अकसर ज़्यादा करता है, लेकिन जो अपनी स्वाधीनता के लिए स्वतंत्र रूप से संघर्ष चलाने में असमर्थ होती है।”

(‘राज्य और क्रान्ति’ से)

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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