कश्मीर के हालात और मोदी सरकार के दावों की सच्चाई
वारुणी
370 के हटाए जाने के बाद मोदी सरकार द्वारा कश्मीर से पूरी तरह आतंकवाद ख़त्म करने के दावे किये जा रहे थे। 370 के तहत कश्मीर को मिले विशेष राज्य का दर्जा छीने हुए आज चार साल बीत चुके हैं। आतंकवाद ख़त्म करने, कश्मीर में “विकास पुत्र” के जन्मने, और कश्मीर के भारत का अभिन्न अंग बनने के तमाम दावे हवा में ही लटके हुये दिख रहे हैं। अभी हाल ही में कश्मीर के पुंछ जिले में सेना के दो वाहनों पर हमला हुआ जिसमें चार सैनिकों की मौत हो गयी और तीन घायल हो गए। आतंकवाद पर कितना काबू पाया गया है इसके बारे में तो पता नहीं, लेकिन एक बात तय है कि कश्मीर में आतंकवाद के नाम पर बेगुनाहों के कत्ल-ए-आम अभी भी बदस्तूर जारी है। पुंछ की इस घटना के बाद सेना द्वारा घाटी में संदिग्ध लोगों की पहचान का सिलसिला शुरू हुआ और पूछताछ के नाम पर क़रीब 8 लोगों को सेना ने अपनी हिरासत में ले लिया। हिरासत में लिये गये लोगों में से तीन लोगों की सेना की हिरासत में ही मौत हो गयी। बाकी पांच लोगों का अभी अस्पताल में इलाज चल रहा है। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर भी वायरल हुआ जिसमें यह साफ़ दिखाई दे रहा है कि कुछ सेना के जवान हिरासत में लिये गये लोगों को बेहद अमानवीय तरीक़े से प्रताड़ित करने का काम कर रहे हैं। मृतक के परिवार वालों ने भी बताया कि उन तीन पुरुषों के शवों पर गंभीर यातना के चिन्ह मौजूद हैं। सिर्फ़ शक के बिना पर सशस्त्र बलों द्वारा लोगों को उनके घरों से उठा लिया गया और ऐसी अमानवीय यातनाएं दी गयीं कि उन नागरिकों की हिरासत में ही मृत्यु हो गयी। यही है कश्मीर के सूरत-ए-हाल जहाँ सेना की हिरासत में हत्या हो जाना, लोगों का अपने घरों से गुम हो जाना, फ़र्ज़ी एनकाउंटर में मारा जाना एक आम बात हो चुकी है। इस घटना के बाद से इलाक़े के लोगों में काफ़ी रोष है। ज्ञात हो कि मृत लोगों में से एक ख़ुद बीएसएफ़ के जवान का बेटा था, उसके परिजनों का कहना था कि जब भारतीय सेना के प्रति वफ़ादार होते हुए भी उन्हें और उनके परिवार को नहीं बख्शा गया तो बाक़ी नागरिकों की क्या स्थिति होती होगी, यह अकल्पनीय है।
कश्मीर में हिरासत में हत्या हो जाना, सुरक्षा बलों द्वारा एनकाउंटर किया जाना, लोगों का अगवा कर लिया जाना, पेलेट बंदूकों से बच्चों को अंधा बना दिया जाना, बिना सुनवाई के जेलों में सड़ने छोड़ दिया जाना, सुरक्षा बलों द्वारा औरतों के साथ बलात्कार किया जाना – इन तमाम चीज़ों का सिलसिला लंबे समय से जारी है। कश्मीर की कितनी ही पीढ़ियों ने भारतीय राज्य का यह अमानवीय खूनी चेहरा देखा है। कश्मीरी अवाम के स्मृति पटल पर यह दाग़ तब से अंकित है जब से भारतीय राज्यसत्ता ने अफस्पा जैसे काले कानून को लागू किया और सुरक्षा बलों द्वारा कश्मीरी अवाम पर अत्याचार के सिलसिले शुरू हुए। लोगों के ज़ेहन में भारतीय राज्य के प्रति नफ़रत के बीज बोने के लिए ज़िम्मेदार खुद भारतीय राज्य और यहाँ की सेना है। वरना वही कश्मीरी जनता जिसने 1948 में भारतीय सेना का अपनी धरती पर फूलों से स्वागत किया था, वह क्यों आज उससे उतनी ही गहरी नफ़रत करती है?! पुंछ की घटना इस बात का ताज़ा उदाहरण है कि किस प्रकार सेना को अफस्पा कानून के तहत जिस तरह की छूट मिली है, उससे भारतीय सैनिकों को मानवाधिकारों का उल्लंघन करने की पूरी आज़ादी मिली हुई है और इस आधार पर निर्दोषों की हिरासत में हत्याओं को, औरतों के बलात्कारों को और फर्ज़ी एनकाउंटर को सही ठहराया जाता रहा है। इस क़ानून के तहत नागरिक अदालतों में सेना के जवानों पर कोई सुनवाई नहीं हो सकती, इसके लिए विशेष रूप से दोषी सैनिकों पर मुक़दमा चलाने के लिए संघीय मंजूरी की आवश्यकता होती है। लेकिन आज तक हुई तमाम घटनाओं में सेना के दोषी जवानों पर कोई कारवाई कभी नहीं हुई है। कुनान पोशपोरा को कौन भूल सकता है! इस प्रकार की इतनी वारदातें हो चुकी है कि अब भारतीय राज्यसत्ता भी इसे नहीं झुठला सकती है।
अभी हाल ही में, बीते 2020 के साल में भारतीय सेना द्वारा राजौरी के तीन बेगुनाह नागरिकों को फर्ज़ी मुठभेड़में मार डाला गया। पूरी घटना में उन निर्दोषों को इस तरह चित्रित किया गया जैसे वो कोई उग्रवादी थे लेकिन जाँच से पता चला कि यह सच नहीं था। लोगों में इस बात को लेकर काफ़ी गुस्सा था, तभी भारतीय सेना ने अपनी आंतरिक अदालत में इस ग़लती को स्वीकार कर दोषी अधिकारी को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई लेकिन कुछ ही महीनों बाद उस अधिकारी की सजा को निलंबित कर दिया गया। ऐसे विश्वासघात और अन्याय के कई दंश कश्मीरी कौम और अवाम झेल चुकी है। पुंछ में हुई हत्या के मसले पर लोगों में व्याप्त रोष को शांत करने के लिए मोदी सरकार द्वारा मृतक के परिवार को सरकारी नौकरी और मुआवजे़ की राशि देने की बात की जा रही है लेकिन न्याय के नाम पर लोगों को कुछ हासिल नहीं होने वाला। यातना के निशानों की मौजूदगी के बावजूद और वीडियो में यातना देने की स्पष्ट घटना दिखाई देने के बावजूद जो प्राथमिकी दर्ज़ की गयी है वह अज्ञात लोगों के नाम से दर्ज़ की गयी है ताकि दोषियों पर कोई ठोस केस ना बन सके। घटना ज़्यादा तूल ना पकड़े, इसके लिए घाटी की इण्टरनेट सेवाएँ बन्द कर दी गयीं हैं और लोगों पर कई तरह की पाबन्दियाँ लगा दी गयी है। लोगों के मुँह पर ताले जड़ने के बाद मोदी सरकार का कहना है कि घटना के बाद स्थिति सामान्य है, पुलिस द्वारा उचित करवाई की जा रही है और चिन्ता की कोई बात नहीं है!
कश्मीरी कौम से भारतीय शासक वर्ग के विश्वासघात को जारी रखते हुए और एक नये मुकाम पर पहुँचाते हुए मोदी सरकार द्वारा 370 के हटाए जाने के बाद से ही मोदी सरकार इसी तरह की बात कर रही कि विशेष राज्य के दर्जे़ को हटाए जाने के बाद घाटी में चारों तरफ़ शांति बहाल है और कश्मीर के हालात सामान्य है। लेकिन असलियत यह थी कि किसी प्रकार के प्रतिरोध के खड़ा होने से पहले ही मोदी सरकार ने पूरी घाटी को छावनी में तब्दील कर दिया था, लंबे समय तक इंटरनेट सेवाओं पर पाबंदी लगा दी थी, लंबे समय तक तालाबंदी जारी रखी थी और इस प्रकार मोदी सरकार द्वारा कश्मीर में शांति बहाल की गयी थी! आम जनता इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ आज भले ही सड़कों पर नहीं है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसके अन्दर इस बात को लेकर रोष मौजूद नहीं। असल में मोदी सरकार की कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा छीन लिये जाने और उन्हें केन्द्र शासित प्रदेश में तब्दील किये जाने से लोगों में काफ़ी गुस्सा है। दूसरी तरफ पुंछ जैसी वारदातें लोगों की भारतीय राज्यसत्ता से नफ़रत और अलगाव को और बढ़ा रही है। कश्मीर में इस अलगाव का फ़ायदा कुछ इस्लामिक कट्टरपंथी आतंकी संगठनों को ही मिलता है। घाटी में किसी अन्य विकल्प को ग़ैर मौजूदगी में कुछ कश्मीरी नौजवान अन्याय के ख़िलाफ़ अपनी नफ़रत को अभिव्यक्ति देने के लिए इन आतंकी समूहों की ओर रुख़ करते हैं।
कश्मीर में 370 को हटे हुए चार साल बीत गये हैं। कश्मीर की हालत और बद से बदतर ही हो रही है। कश्मीर के साथ हो रहे इस अन्याय के लिए ज़िम्मेदार सिर्फ़ भाजपा सरकार ही नहीं है बल्कि कश्मीरी अवाम के साथ ऐतिहासिक अन्याय का यह सिलसिला नेहरू के समय से ही शुरू हो चुका था जब नेहरू सरकार कश्मीर में करवाए जाने वाले अपने जनमत संग्रह के वादे से मुकर गयी और कश्मीर के अन्दर भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कौमी दमन किया गया। तब से कश्मीर के लोगों के साथ कई प्रकार के विश्वासघात किये गये। भाजपा सरकार ने राष्ट्रीय दमन की इसी नीति को अपने चरम परिणति तक पहुँचाने का काम किया है। अब तो “न्याय के मंदिर” यानी सुप्रीम कोर्ट ने भी कश्मीर के साथ हुए इस ऐतिहासिक अन्याय को ही सही ठहराने का काम किया और 370 के हटाए जाने के फ़ैसले पर अपनी “न्यायसंगत” मुहर लगा दी है।
कई लोग कश्मीर के इस प्रकार भारत का “अभिन्न अंग” बनने पर जश्न मनाते हैं लेकिन हमें सोचना होगा कि क्या कश्मीर हमारे लिए महज़ ज़मीन का एक टुकड़ा है, या कि कश्मीर वहाँ के लोगों से बना है? हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि कश्मीर सबसे पहले कश्मीरी लोगों का है और कोई भी कौम अपना फैसला खुद लेती है। और यदि कश्मीरी अवाम आज भी अपनी ही जगह ज़मीन पर बिछी कटीली तारों के पीछे हर मोड़ पर अपनी पहचान साबित करते हुए और फ़ौजी बूटों के तले पिसते हुए, अनगिनत अन्यायों और असीमित अत्याचारों को सहते हुए मौजूद है तो निश्चित है कि वह हार नहीं मानेगी और लड़ना नहीं छोड़ेगी। कोई भी दमित कौम कभी लड़ना नहीं छोड़ती है। सर्वहारा वर्ग बड़े से बड़े राज्य के पक्ष में है और कौमी सरहदों को समाप्त करना चाहता है। लेकिन बड़े से बड़ा भारतीय राज्यों सभी कौमों की आपसी सहमति से बनना चाहिए और सफलतापूर्वक सबकी आपसी सहमति से ही बन भी सकता है। ज़ोर-ज़बर्दस्ती, कौमी दमन और जनवाद को तार-तार कर यह सम्भव नहीं है। हर राष्ट्र को बिना शर्त आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना उसका एक बुनियादी राजनीतिक जनवादी अधिकार है।
जिन्हे लगता है कि कश्मीर में शान्ति बहाल हो चुकी है वे बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में है क्योंकि जहाँ अन्याय है वहाँ शान्ति नहीं हो सकती है। और यदि कश्मीरी कौम अपनी हक़ की लड़ाई के लिये संघर्षरत है तो हमें भी कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार का बिना शर्त समर्थन करना चाहिए। यह सवाल हिन्दू-मुसलमान का सवाल है ही नहीं। यह कश्मीरी कौम का सवाल है जिसमें हिन्दू-मुसलमान, दोनों ही शामिल हैं। यह जनता की जायज़ माँग है कि कश्मीर में राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार को सुनिश्चित करने वाला जनमत संग्रह करवाया जाय। कश्मीर के राष्ट्रीय दमन को ख़त्म करने की पहली तात्कालिक माँग यह बनती है कि कश्मीर से सैन्य तानाशाही को समाप्त किया जाय, सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम को हटाया जाय, जिसे किसी भी जनवादी पैमाने पर सही नहीं ठहराया जा सकता। किसी भी कौम को फ़ौजी बूटों तले दबाकर ज़बरदस्ती देश के एक हिस्से के रूप में एकीकृत करके नहीं रखा जा सकता। सर्वहारा वर्ग सभी कौमों की आपसी सहमति के आधार पर एक एकीकृत राज्य की हिमायत करता है, किसी भी कौम के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती के आधार पर नहीं। यदि हम इस दमन का समर्थन करते हैं तो हम स्वयं अपना दमन करने का भी लाईसेंस शासक वर्ग और उसकी राज्यसत्ता को प्रदान करते हैं।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन
New arrangement of seperate article is nice The issue of January. 24 with current political affair is nice.