Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

अपनी ज़िन्दगी बदलने के लिए बम्बइया मसाला फ़िल्मों की नही बल्कि मज़दूरों के संघर्षों के गौरवशाली इतिहास की जानकारी ज़रूरी है

आज हमें दिमाग़ी नशे की खुराकें नहीं चाहिए, जो कुछ देर के लिए हमें अपना दुःख दर्द भुलवा देती हैं मगर उसका कोई इलाज नहीं करतीं। हमें ऐसी सच्चाई चाहिए जिसके सहारे हम अपने जीवन और अपने जैसे करोड़ों मज़दूरों के जीवन को बदल सकते हैं।

आपस की बात – न्याय, विधान, संवि‍धान का घिनौना नंगा नाच

आज की परिस्थिति आठ बाई आठ के कमरे में रहना, ना सही से खाने को, ना ही जीने का कोई उत्साह। सुबह जगो तो काम के लिए, नहाओ तो काम के लिए, खाओ तो काम के लिए, रात बारह बजे सोओ तो काम के लिए। ऐसा लगता है कि हम सिर्फ़ काम करने के लिए पैदा हुए हैं ‌तो हम फिर अपना जीवन कब जीयेंगे। जहाँ तक तनख़ा की बात है, तो वो तो महीने की सात से दस के बीच में मिल जाती है, लेकिन सिर्फ़ पन्द्रह तारीख़ तक जेब में पैसे होते हैं, जिससे हम अपने बच्चों के लिए कुछ ज़रूरी चीज़ें ले पाते हैं। उसके बाद तो हर एक दिन एक-एक रुपया सोच-सोचकर ख़र्च करना पड़ता है। महीना ख़त्म होने से पहले ही बचे हुए रुपये भी ख़त्म हो जाते हैं।

बवाना के मज़दूर की चिट्ठी

सुबह जगो तो काम के लिए, नहाओ तो काम के लिए, खाओ तो काम के लिए, रात बारह बजे सोओ तो काम के लिए। ऐसा लगता है की हम सिर्फ काम करने के लिए पैदा हुए हैं ‌तो हम फिर अपना जीवन कब जियेंगे। महीने की सात से दस तारीख के बीच तनखा मिलती है, पन्द्रह तारीख तक जेब में पैसे होते हैं तो अपने बच्चों के लिए फल या कुछ ज़रूरी चीजें ले सकते हैं । उसके बाद हर दिन एक-एक रुपया सोचकर खर्च करना पड़ता है। महीना ख़त्म होते-होते ये भी सोच ख़त्म हो जाती है। अगर कहीं बीमार पड़ गये तो क़र्ज़ के बोझ तले दबना तय है।

ऑटोमोबाइल मज़दूर विकास की चिट्ठी

मैं अपने रिश्तेदार के साथ लॉज में उनके कमरे पर रुका। उन छोटे कमरों में मेरा दम घुटता है। एक कमरे में हमलोग 4 से 5 आदमी रहते हैं।  मेरे रिश्तेदार मार्क एग्जौस्ट सिस्टम लिमिटेड मैं काम करते थे। उन्होंने मेरा काम मीनाक्षी पोलिमर्स में लगवा दिया। यहाँ पर करीब 100 लोग काम करते थे। यहाँ बहुत बुरी तरह से हमारा शोषण होता था। कम्पनी फ़र्श पर झाड़ू-पोछा भी लगवाती थी और कभी प्रोडक्शन का काम नहीं हो तो नाली वगैरह भी साफ़ करवाती थी। काम जबरिया दबाव में कराया जाता था, बारह घण्टे का काम आठ घण्टे में करवाया जाता था। अन्दर में बैठने की व्यवस्था नहीं था। बारिश के समय खाने पीने के लिए कोई जगह नहीं थी। गर्मी में काम करवाया जाता और पीने के लिए गर्म पानी दिया जाता। मैं दिन-रात मेहनत करता था ताकि कुछ पैसे कमा बचा सकूँ। लेकिन यहाँ मालिक ज़िन्दा रहने लायक भी पैसा नहीं दे रहा था। हम अपना हक माँग रहे हैं और मालिक दे नहीं रहा है, हम यूनियन बनाने का प्रयास कर रहे हैं मालिक बनने नहीं दे रहा है। मैं जीवन में आगे बढ़ना चाहता हूँ, लेकिन मैं अब समझ गया हूँ कि मैं अकेले आगे नहीं बढ़ सकता। हम सबकी ज़िन्दगी ख़राब है इसीलिए हम सभी को एक साथ मिलकर लड़ना चाहिए। इसीलिए दोस्तों और मजदूर भाइयो अपना हक माँगो और यूनियन बनाओ।

चुपचाप सहना नहीं है, लड़ना है…

अगर कहीं बीमार पड़ गये या कोई चोट लग गयी तो महीनों की सारी बचत एक सप्ताह में उड़ जाती है। जो कम्पनी आपका खून चूसकर मुनाफा कमाती है वह घायल होने पर दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकती है। फैक्टरी में रुपया बचा रहता है वो भी मार लेते हैं। कोरोना के समय क्या हुआ था, आप सबने तो देखा ही होगा। मैं भी घर लौट गया था। मगर फिर सोचा कि यहाँ कितने दिन रह पाउँगा? रोज़गार की तलाश में तो फिर उसी नर्ककुण्ड में जाना ही पड़ेगा। लेकिन मैंने भी सोच लिया है – अब चुपचाप सहूँगा नहीं। मैं लड़ूँगा और मज़दूरों की एकता बनाउँगा। वरना गाँव और शहर के बीच दौड़ते-दौड़ते मर जाउँगा।

दिल्ली में सीवर लाइन बनाने वाले मज़दूरों के हालात

सीवर लाइन बिछाने वाली कम्पनी और कॉण्ट्रेक्टर दोनों गुजरात के हैं और सभी मज़दूरों को भी ठेके पर गुजरात से ही लाया गया है। इन्हें 1 मीटर लम्बाई और 1 मीटर गहराई का गड्ढा खोदने के 120 रुपये मिलते हैं। एक मज़दूर अधिकतम दिनभर में 5-6 मीटर ही गड्ढा खोद पाता है जिसके लिए उन्हें सुबह 6 बजे से लगातार रात 8 बजे तक खुदाई करनी पड़ती है। यानी औसतन 5 मीटर गड्ढे खोदने पर उनकी 600 रुपये की दिहाड़ी बनती है जिसके लिए उन्हें 14 घण्टे काम करना पड़ता है। इन मज़दूरों लिए छुट्टी का कोई मतलब नहीं है, कई बार पूरी रात भी ओवरटाइम लगाना पड़ता है। बरसात होने या किसी भी अन्य स्थिति में काम न होने पर इन्हें कुछ नहीं मिलता है क्योंकि इनका ठेका तो 120 रुपये प्रति मीटर की खुदाई का है। इस 45-50 डिग्री सेल्सियस की गर्मी में कम्पनी, काण्ट्रेक्टर या ठेकेदार की तरफ़ से लोगों के लिए पीने के पानी तक का इन्तज़ाम भी नहीं किया जाता है। ये मज़दूर साधारण प्याऊ या जनता के बीच से ही पीने के पानी का इन्तज़ाम करते हैं।

आपस की बात – देश के मज़दूर हैं (कविता)

अगर हम अपने अधिकारों को जानते हैं और एकजुट हो उसके लिए लड़ने को तैयार हैं तो इतिहास इस बात का गवाह है कि बड़ी से बड़ी ताकत को भी हमने घुटने टेकने को मजबूर किया है। इसलिए मैं हमेशा अपने मजदूर साथियों से कहता हूँ कि अगर हम पान, बिड़ी, गुटके पर रोज 5-10 रुपए खर्च कर सकते हैं तो क्या हम महीने में एक बार दस रुपए खर्च कर बिगुल अखबार नही पढ़ सकते जो हमारी माँगों और अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है। इसलिए साथियों भले ही अपने वेतन में हर महीने कुछ कटौती करनी पड़े लेकिन जिस उद्देश्य को लेकर यह अखबार निकाला जा रहा है, उसमें हमें भी अपना सहयोग जरूर देना चाहिए।

कविता – हमारा श्रम / आनन्द, गुड़गाँव

अगर हमें मौक़ा मिले तो
इस धरती को स्वर्ग बना सकते हैं
मगर बेड़ियाें से जकड़ रखा है हमारे
जिस्म व आत्मा को इस लूट की व्यवस्था ने
हम चाहते हैं अपने समाज को
बेहतर बनाना मगर
इस मुनाफ़े की व्यवस्था ने
हमारे पैरों को रोक रखा है

आपस की बात – हमें अपनी मज़बूत यूनियन बनानी होगी

काम करने के कोई घण्टे तय नहीं हैं और रोज 12-13 घण्टे से कम काम नहीं होता है। जिस दिन लोडिंग-अनलोडिंग का काम रहता है उस दिन तो 16 घं‍टे तक काम करना पड़ता है। हफ्ते में 2-3 बार तो लोडिंग-अनलोडिंग भी करनी ही पड़ती है। महँगाई को देखते हुए हमें मजदूरी बहुत ही कम दी जाती है। बिना छुट्टी लिए पूरा महीना हाड़तोड़ काम करके भी कुछ बचता नहीं है। हम चाह कर भी अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। श्रम-कानूनों के बारे में किसी भी मज़दूर को नहीं पता है। यूनियन तो गुजरात में है ही नहीं। बहुत से मज़दूरों को फैक्टरी के अन्दर ही रहना पड़ता है क्योंकि किराया बहुत ज़्यादा है। ऐसे मजदूरों का तो और भी ज़्यादा शोषण होता है। उन्हें रोज़ ही काम करना पड़ता है।

तरह-तरह के साधनों से फ़ासीवादी नफ़रती विचारधारा का प्रचार करने में लगा है संघ परिवार

कुछ सात-आठ महीनों के दौरान एक नया स्टीकर का ट्रेण्ड उभर कर सामने आया है। इस स्टीकर का नाम है ‘हिन्दू’ और उसके साथ भगवा झण्डा!  इस स्टीकर का चलन पिछले सात-आठ महीनों में इतना तेज़ी से बढ़ा है जो अपने आप में अभूतपूर्व है। एक न्यूज वेबसाइट न्यूज लाण्ड्री की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के बहुत से स्टीकर बेचने वाले दुकानदारों ने बताया कि एक महीने में इस स्टीकर ‘हिन्दू’ की बिक्री लगभग 20 हज़ार से 25 हज़ार आराम से हो जाती है। अब आप सोच सकते हैं कि जब एक अकेले दिल्ली शहर का यह हाल है तो पूरे देश भर में रोज़ इस प्रकार के कितने स्टीकर बिक रहे होंगे।