चुपचाप सहना नहीं है, लड़ना है…
अगर कहीं बीमार पड़ गये या कोई चोट लग गयी तो महीनों की सारी बचत एक सप्ताह में उड़ जाती है। जो कम्पनी आपका खून चूसकर मुनाफा कमाती है वह घायल होने पर दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकती है। फैक्टरी में रुपया बचा रहता है वो भी मार लेते हैं। कोरोना के समय क्या हुआ था, आप सबने तो देखा ही होगा। मैं भी घर लौट गया था। मगर फिर सोचा कि यहाँ कितने दिन रह पाउँगा? रोज़गार की तलाश में तो फिर उसी नर्ककुण्ड में जाना ही पड़ेगा। लेकिन मैंने भी सोच लिया है – अब चुपचाप सहूँगा नहीं। मैं लड़ूँगा और मज़दूरों की एकता बनाउँगा। वरना गाँव और शहर के बीच दौड़ते-दौड़ते मर जाउँगा।