बवाना के मज़दूर की चिट्ठी
एक मज़दूर, बवाना, दिल्ली
अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि दिल्ली में दिल्ली में मजदूरों की तनखा देश के बहुत से राज्यों में मज़दूरों के न्यूनतम वेतन से ज़्यादा है। यानी राजधानी के मज़दूर तो बड़े मज़े में रहते हैं। लेकिन असलियत क्या है?
अभी दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी ने अकुशल मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी 17,494 से बढ़ाकर 18,066 कर दी और इसके लिए अपनी काफ़ी पीठ भी ठोंकी। अर्धकुशल की इससे थोड़ी ज़्यादा और कुशल की करीब 21,000 रुपये है। हालाँकि सभी जानते हैं कि 90 प्रतिशत के लगभग मज़दूर अकुशल की ही तनखा पाते हैं क्योंकि मालिक हर तरह के काम उनसे करा लेते हैं।
अब ये बताइए कि क्या दिल्ली में 18,000 रुपये में कोई इंसान की तरह की तरह का जीवन जी सकता है? गन्दी झुग्गी में छोटे-से कमरे का किराया भी एक तिहाई से ज़्यादा तनखा माँगता है। खाना-पीना, आना-जाना सबकुछ बहुत महँगा है। अकेला बन्दा जिस पर कोई ज़िम्मेदारी न हो, वो तो कुछ दिन मज़े में गुज़ार लेगा, कई मज़दूरों के साथ एक ही कमरे में रहकर। लेकिन अगर परिवार साथ में है या गाँव-घर में गुज़ारे के लिए पैसे भेजने पड़ते हैं तो जीना मुश्किल हो जाता है।
ना सही से खाने को ना ही जीने का कोई उत्साह। सुबह जगो तो काम के लिए, नहाओ तो काम के लिए, खाओ तो काम के लिए, रात बारह बजे सोओ तो काम के लिए। ऐसा लगता है की हम सिर्फ काम करने के लिए पैदा हुए हैं तो हम फिर अपना जीवन कब जियेंगे। महीने की सात से दस तारीख के बीच तनखा मिलती है, पन्द्रह तारीख तक जेब में पैसे होते हैं तो अपने बच्चों के लिए फल या कुछ ज़रूरी चीजें ले सकते हैं । उसके बाद हर दिन एक-एक रुपया सोचकर खर्च करना पड़ता है। महीना ख़त्म होते-होते ये भी सोच ख़त्म हो जाती है। अगर कहीं बीमार पड़ गये तो क़र्ज़ के बोझ तले दबना तय है।
इस व्यवस्था के पास मज़दूरों को देने के लिए कुछ भी नहीं है। ये हालत बहुत दिनों तक ऐसे ही नहीं चल सकती। इस व्यवस्था को आग लगाकर नयी व्यवस्था खड़ी करने के लिए मज़दूर उठ खड़े होंगे। अगर मज़दूर ऐसा नहीं करता तो सरकारें ग़रीबों-मज़दूरों को इतना पीस डालेंगी कि फिर वो कुछ करने लायक ही नहीं रहेगा।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2024
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