चुपचाप सहना नहीं है, लड़ना है…
आपका साथी एक मज़दूर
मैंने अपने गाँव में दिल्ली शहर के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। कि राजधानी दिल्ली में हर हाथ को काम मिल जाता है। कोई भी वहाँ बेरोज़गार नहीं है। मैंने तो यह भी दिल्ली में मुख्यमंत्री केजरीवाल ने न्यूनतम वेतन भी 15-16,000 रुपये करवा दिया है। महँगाई ज़रूर है लेकिन कमाई भी तो ज़्यादा है। इसलिए मैं भी अपना गाँव छोड़कर दिल्ली आ गया, रोज़गार करने और कमाने के लिए। आकर दिल्ली शहर की चमक-दमक देखी, बड़ा अच्छा लगा। फिर रहने के लिए दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्र पीरागढ़ा के पास एक बस्ती में छोटा-सा कमरा लिया जिसका मासिक किराया 6000 रुपया सुनकर मेरे पोश उड़ गये। खैर, हम दो लोगों ने मिलकर ले लिया।
काम ढूँढने निकला तो लगभग सभी फैक्टरी में पूछा तो पता लगा कि किसी फैक्टरी में 9000 रु. तो किसी में 9500 रुपये, किसी में 10,000 रु. जिसमें बहुत भारी काम है। लोडिंग-अनलोडिंग जैसा काम है तो 11-12000 रुपये महीने की तनख्वाह 8 घण्टे के हिसाब से है। खैर मैंने भी एक कारखाने में काम पकड़ा। इस कम्पनी में दिनभर माल को ट्राली में रखकर इधर से उधर ले जाने का काम था। 8 घण्टे में ही कमर की हालत खराब हो जाती थी।
आप खुद अन्दाज़ा लगाइये। आधा किलो के 2 से 3 हज़ार पीस ट्राली में रखकर धक्का मारकर पहले खराद मशीन पर ले जाओ, फिर वहाँ से ड्रिल मशीन पर ले जाओ, वहाँ से थ्रेडिंग मशीन पर, वहाँ से हाइड्रोलिक मशीन पर, वहाँ से पैकिंग पर – दिनभर यही काम। इधर से उधर, पूरे दिन मंे एक चाय तक नहीं। गाँव में तो बैल को भी दो-तीन घण्टे में आराम दे देेते हैं। हमको आठ घण्टे से पहले आने की इजाज़त नहीं। उसके बाद भी ओवर-टाइम लगाने का प्रेशर। मना करो तो काम से हटाने की धमकी।
तो अब मैंने जाना कि इस विकसित दिल्ली में मज़दूरों का क्या हाल है। यहाँ मज़दूर महीने भर कमरतोड़ परिश्रम करने पर भी सिर्फ मकान का किराया और दो वक़्त की रोटी का ही जुगाड़ कर पाते हैं, और जिनको मजबूरी में अपनी पत्नी व बच्चों को साथ रखना पड़ता है, वो तो आपको 24 घण्टे फैक्टरी में ही नज़र आयेंगे। हफ्तों गुजर जाते हैं, बच्चे अपने बाप के दर्शन तक नहीं कर पाते हैं, क्योंकि पिताजी सुबह जल्दी चले जाते हैं और शाम को देर से सिर्फ खाना खाने आते हैं। तब बच्चा सोया मिलता है।
अगर कहीं बीमार पड़ गये या कोई चोट लग गयी तो महीनों की सारी बचत एक सप्ताह में उड़ जाती है। जो कम्पनी आपका खून चूसकर मुनाफा कमाती है वह घायल होने पर दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकती है। फैक्टरी में रुपया बचा रहता है वो भी मार लेते हैं। कोरोना के समय क्या हुआ था, आप सबने तो देखा ही होगा। मैं भी घर लौट गया था। मगर फिर सोचा कि यहाँ कितने दिन रह पाउँगा? रोज़गार की तलाश में तो फिर उसी नर्ककुण्ड में जाना ही पड़ेगा। लेकिन मैंने भी सोच लिया है – अब चुपचाप सहूँगा नहीं। मैं लड़ूँगा और मज़दूरों की एकता बनाउँगा। वरना गाँव और शहर के बीच दौड़ते-दौड़ते मर जाउँगा।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2024
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