अपनी ज़िन्दगी बदलने के लिए बम्बइया मसाला फ़िल्मों की नही बल्कि मज़दूरों के संघर्षों के गौरवशाली इतिहास की जानकारी ज़रूरी है

राजकुमार, लखनऊ

हर व्यक्ति की तरह मज़दूरों को भी दिनभर काम के बाद मनोरंजन की ज़रूरत होती है। हमारे लिए कोई अच्छे मनोरंजन के साधन उपलब्ध नहीं हैं, तो जब भी थोड़ी मोहलत मिलती है हम में से ज़्यादातर लोग बॉलीवुड की मसाला फ़िल्में देखना पसन्द करते हैं। इन फ़िल्मों को देखकर हम कुछ देर के लिए अपनी कठिन ज़िन्दगी को भूल जाते हैं, पर इससे हमारे वास्तविक जीवन में कोई फ़र्क़ नही आता है। सुबह होते ही हम फिर कोल्हू के बैल की तरह खटने निकल पड़ते हैं। अक्सर फ़िल्मों में हीरो मेहनतकश जनता का हमदर्द और अमीरों का दुश्मन दिखाया जाता है। असलियत में ये तमाम हीरो मज़दूरों और मेहनतकशों से सख़्त नफ़रत करते हैं और उसी व्यवस्था के चाकर हैं जो मेहनतकशों के शोषण पर टिकी है।

असल बात तो यह है कि इन फ़िल्मी सितारों और कारख़ाना मालिक के चरित्र में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है। जिस तरह कारख़ाने में सारी मेहनत तो मज़दूर करता है, पर मुनाफ़ा मालिक हड़प लेता है, उसी तरह फ़िल्म को बनाने में भी भारी योगदान मेहनतकशों का होता है, लेकिन सारा श्रेय और मुनाफ़ा निर्देशक और फिल्म के हीरो-हीरोइन आपस में बाँट लेते है। अपने आलीशान बंगलों, कीमती कपड़ों, और महँगी गाड़ियों का रौब दिखाते समय ये लोग भूल जाते हैं कि इन तमाम चीज़ों के पीछे मज़दूरों की मेहनत छिपी हुई है।

इसलिए साथियो, इनके मोह में अपना वक़्त गँवाने के बजाय हमें अपने संघर्षों के इतिहास को जानना चाहिए जिसे हम भूल गये हैं। हमें ऐसी किताबें पढ़नी चाहिए और ऐसी फ़िल्में ढूँढ़कर देखनी चाहिए जो हमें बहलाएँ नहीं बल्कि सच बतायें।

आज हमें दिमाग़ी नशे की खुराकें नहीं चाहिए, जो कुछ देर के लिए हमें अपना दुःख दर्द भुलवा देती हैं मगर उसका कोई इलाज नहीं करतीं। हमें ऐसी सच्चाई चाहिए जिसके सहारे हम अपने जीवन और अपने जैसे करोड़ों मज़दूरों के जीवन को बदल सकते हैं।

 

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2025


 

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