बिगुल के लिए एक कविता

जगविन्द्र सिंह, बलराज नगर, कैथल

हम तो बस इसी बहाने निकले हैं
धरती की गोद में बैठकर आसमाँ को झुकाने निकले हैं
ज़ुल्मतों के दौर से, इन्साँ को बचाने निकले हैं
विज्ञान की ज्वाला जलाकर, अँधेरा मिटाने निकले हैं
हम इन्सान है, इन्सान बनाने निकले हैं
हम अन्धविश्वास को दहलाने निकले हैं
हम ग़रीबों की भूख मिटाने निकले हैं
हम किसी धर्म-मजहब के नहीं
हम तो फासीवाद,धर्म-जात की नफ़रतों को मिटाने निकले हैं
हम इन्सानों को जगाने निकले हैं
हम तो लोगों को मिलाने निकले हैं
शहीदों के देश में, ये अहसास दिलाने निकले हैं
किस तरह बलिदानों से स्वतन्त्रता दिलाई
ये फिर बतलाने निकले हैं
भगतसिंह, शहीद सराभा को सुनाने निकले हैं
हम इन्सानों को जगाने निकले हैं
हम जवानों की जवानी जगाने निकले हैं
ना मरे जवानी नशे की महामारी से बचाने निकले हैं
हम विज्ञान की ज्वाला से पाखण्ड को मिटाने निकले हैं
क्यूँ मुज़फ़्फ़रनगर जला, क्यंँ गुजरात सुलगा
क्यूँ बच्चे मारे पेट में, क्यूँ नारी का अपमान हुआ
हम वो राज़ बताने निकले हैं
हम लोगों की आँखों से अन्धकार मिटाने निकले हैं
अब अगर तू ना समझा जेवी,
आगे क्या अंजाम होगा मेरे देश का
हम वो अनुमान लगाने निकले हैं
हम इन्सानों को जगाने निकले हैं
हम इन्सान हैं, इन्सान बनाने निकले हैं

 

 

मज़दूर बिगुल, मई 2025

 

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