‘मज़दूर बिगुल’ के बारे में मज़दूर परिवार की एक बच्ची के विचार
यह मज़दूरों का अखबार है। यह चन्दा इकठ्ठा करके छपता है। इस अखबार में कुछ भी छिपाया नहीं जाता। इसमें कोई भी बात छिपाई नहीं जाती। इसमें यह छपता है कि मज़दूर अपना घर कैसे चलाता है।
यह मज़दूरों का अखबार है। यह चन्दा इकठ्ठा करके छपता है। इस अखबार में कुछ भी छिपाया नहीं जाता। इसमें कोई भी बात छिपाई नहीं जाती। इसमें यह छपता है कि मज़दूर अपना घर कैसे चलाता है।
काम की तलाश में घूम रहे हैं लोग,
एक-दूसरे की जाति-धर्म को
दोष दे रहे हैं लोग,
भाई-भतीजे, बुजुर्गों-रिश्तेदारों
को दोष दे रहे हैं लोग
आई.आई.टी कैथल जहाँ पर पाँच सफाईकर्मी और माली कर्मचारियों की आवश्यकता है वहाँ सिर्फ दो कर्मचारी ही कार्य कर रहे हैं। कर्मचारियों की कमी के कारण जो कर्मचारी वहाँ काम करते है उनपर काम का अधिक दबाव बन जाता है। जहाँ पांच आदमियों का काम अकेले दो व्यक्तियों को ही करना पड़ता है। एक तो उनको सिर्फ़ 5500 रूपए महीने के हिसाब से काम पर रखा गया है, ऊपर से ठेकेदार उन गरीब मजदूरों का धड़ल्ले से शोषण करता है और फिर उन्हें पूरा हक भी नहीं दिया जाता और काम भी अधिक लिया जाता है। ये पूरी धाँधली ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की पोल खोल रही है।
उनके पास जितना भी पैसा था वे पहले ही जमा करा चुके थे और अब उनके पास कुछ नहीं हैा अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें बिना भुगतान किये डिस्चार्ज करने से मना कर दिया। जयभगवान ने जब अपने दुकान मालिक से मदद माँगी तो उसने भी हाथ खड़े कर दिये लेकिन काफ़ी आरज़ू-मिन्नत करने के बाद 8000 रुपये सूद पर उधार दिया। बाकी रक़म भी परिवार वालों ने तगड़े ब्याज पर इकट्ठा की और अस्पताल का बिल चुकाया।
मालिक और मैनेजमैंट के ही कहने पर प्रेस मशीनों से सैंसर आदि हटा दिये जाते हैं या खराब होने पर ठीक नहीं करवाये जाते। कारख़ाने में माहौल ऐसा बना दिया जाता है कि मशीनों में बहुत सी गड़बड़ियों को ठीक करने का मतलब समय और पैसा खराब करना होगा। मज़दूरों की शिकायतों को कामचोरी मान लिया जाता है।
हमसे रोज़ 18 से 19 घण्टे काम करवाया जा रहा था, जब हम टॉयलेट जाते तो भी ठेकेदार या उसके गुर्गे साथ-साथ जाते और जल्दी करो-जल्दी करो की रट्ट लगाये रहते। हम गुलामों सी ज़िन्दगी जी रहे थे, कोई भी आदमी गोदाम से बाहर नहीं जा सकता था, आपस में काम के दौरान बात नहीं कर सकता था और ज़रा सी कमर सीधी करते ही गालियों की बौछार होने लगती थी। जब मैं छोटा था तो मैंने दलित मज़दूरों को खेतों में बन्धुआ मज़दूर जैसे हालातों में काम करते और बेगारी खटते देखा था लेकिन यहाँ पर हमारी स्थिति तो उनसे कहीं बदतर ही जान पड़ती थी।
मैं, मेरा भाई और पिताजी तीनों काम करते हैं और फिर भी ढंग से खर्च नहीं चला पाते। लेकिन शहर में रहकर और जीवन के लिए संघर्ष करके मुझे यह एहसास ज़रूर हुआ कि काम करने वालों के हक़-अधिकार एक जैसे होते हैं और मालिकों के हित एक जैसे होते हैं चाहे फिर वे किसी भी जाति और धर्म के क्यों न हों। खान-पान को लेकर बनी सोच और ऊँच-नीच के तमाम विचार अब मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते। मुझे दुकान पर जहाँ काम करते हैं वहीं एक साथी के माध्यम से भगतसिंह के विचारों के बारे में और मज़दूरों के अधिकारों के बारे में जानकारी मिली।
मैं काम से नहीं घबराता, लेकिन इतनी मेहनत से काम करने के बाद भी सुपरवाइजर मां-बहन की गाली देता रहता है, ज़रा सी गलती पर गाली-गलौज करने लगता है, और अक्सर हाथ भी उठा देता है। मज़दूर लोग दूर गांव से अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए आए हैं, इसलिए नौकरी से निकाले जाने के डर से वे लोग कुछ नहीं बोलते। शुरू-शुरू में मैंने पलटकर जवाब दिया तो मुझे काम से निकाल दिया गया। यहां मेरा कोई जानने वाला नहीं है, इसलिए मेरे लिए काम करना बहुत ही ज़रूरी है। इसी बात पर मैं भी अब कुछ नहीं बोलता। लेकिन बुरा बहुत लगता है कि सुपरवाइजर ही नहीं, मैनेजर, चौकीदार और खुद मालिक लोग भी हमें जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझते। कारखाने में घुसने के समय और काम खत्म करने के बाद बाहर लौटते समय गेट पर बैठे चौकीदार हम लोगों की तलाशी ऐसे लेते हैं, जैसे हम चोर हों। बस लंच में ही समय मिलता है। उसके अलावा यदि जरूरत हो तो सुपरवाइजर की नाक रगड़नी पड़ती है। स्त्री मज़दूरों के साथ तो और भी बुरा बर्ताव होता है। गाली-गलौज, छेड़छाड़ तो आम बात है, जैसे वे औरत नहीं, उस फैक्ट्री का प्रोडक्ट हों। एक दो औरत मजदूरों ने विरोध किया और पलट कर गाली भी दी, तो उन्हें काम से निकाल दिया गया और खूब बेइज्जती की।
आज गुडगाँव में जो चमक-दमक दिखती है इसके पीछे मज़दूरों का ख़ून-पसीना लगा हुआ है। जिन अपार्टमेण्टों, शोपिंग मॉलों, बड़ी-बड़ी इमारतों से लेकर ऑटोमोबाइल सेक्टर को देखकर कहा जा सकता है कि यहाँ रहने वालों की ज़िन्दगी हर प्रकार से सुख-सम्पन्न होगी। लेकिन इस क्षेत्र के औधोगिक पट्टी तथा उन लॉजों को देखा जाये जिनमें मज़दूर रहते हैं और उनमें भी एक-एक कमरे में 3-4 मज़दूर रहने पर मजबूर हैं तो इस सारी चमक-दमक की असलियत सामने आ जाती है। मज़दूरों की एक आबादी फ़ैक्टरियों में काम करती है और दूसरी फ़ौज सड़क पर बेरोज़गार घूमती है। इससे कोई भी आसानी से मज़दूरों की हालत का अन्दाज़ा लगा सकता है। गुडगाँव-धारूहेड़ा-मानेसर-बावल से भिवाड़ी तक का औद्योगिक क्षेत्र देश की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल पट्टी है जहाँ 60% से ज़्यादा ऑटोमोबाइल उत्पाद का उत्पादन होता है।
यह व्यवस्था पूर्णतः लूट और अन्याय पर आधारित है। इस व्यवस्था में कोई मजदूर कितना भी हाथ पाँव मारेगा वह अपना विकास नहीं कर पायेगा; क्योंकि यह मालिकों की व्यवस्था है। मजदूर को अपने विकास के लिए अलग व्यवस्था बनाना होगा। इसे एक उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। धान की छँटाई करने वाले हालर का सिस्टम अलग होता है और गेहूँ की पिसाई करने वाली चक्की का सिस्टम अलग होता है। अगर आप चाहेंगे कि धान की छँटाई हम गेहूँ की पिसाई करने वाली चक्की में करें तो यह कतई नहीं होगा; और अगर आप चाहेंगे कि गेहूँ की पिसाई हम धान की छँटाई करने वाले हालर में करें तो यह कतई नहीं होगा। इसलिए हमसफर साथियों! हम मजदूरों को अपने विकास के लिए अलग व्यवस्था बनानी होगी और वह व्यवस्था होगी ‘मजदूर राज’। लेकिन यह अकेले सम्भव नहीं है।