Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

मजदूरों के पत्र – विदेशों में मज़दूरी कर रही भारतीय महिला मज़दूरों की हालत

यह पत्र हमें मज़दूर बिगुल की पाठक बिन्दर कौर ने भेजा है। बिन्दर कौर सिंगापुर में घरेलु नौकर के तौर पर काम करती हैं, पर मज़दूर बिगुल को व्हाटसएप्प के माध्यम से नियमित तौर पर पढ़ती हैं। तमाम सारे पढ़े-लिखे मज़दूर जो आज बेहद कम तनख़्वाहों पर अलग-अलग काम कर रहे हैं, राजनीतिक तौर पर बेहद सचेत हैं और समय-समय पर बिगुल को पत्र लिखते रहते हैं, फ़ोन करते रहते हैं। ऐसे में हम अन्य साथियों से भी अपील करते हैं कि वो मज़दूर बिगुल को पत्र लिखकर अपने जीवन के बारे में ज़रूर बतायें ताकि देशभर के मज़दूरों को पता चले कि जाति, धर्म, क्षेत्र से परे सभी मज़दूरों की माँगें और हालत एक ही है।

सभी साथी एकजुट होकर संघर्ष करें, संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता!

कम्पनी को काम करते 5 साल हो गये लेकिन किसी भी मज़दूर की सैलरी 8,600 रुपये से बढ़कर 12,000 रुपये नहीं हुई है, इक्के दुक्के किसी की तनख्वाह बढ़ी भी है तो थोड़ी बहुत जबकि हमारे साथ ही ज्वाइन किये मैनेजमेंट स्टाफ की सैलरी 15,000 से बढ़कर 1,50,000 तक हो गयी है। जब सैलरी बढ़ाने की बात आती है तो कम्पनी वाले कहते हैं कि कम्पनी घाटे में चल रही है।

दोस्तो, हम सभी को एक साथ मिलकर लड़ना चाहिए

मजबूरी के कारण मुझे कम उम्र में ही पढ़ाई छोड़कर काम करने जाना पड़ा। मेरे पिताजी ऑटो चलाते थे, एक दिन उनकी गाड़ी पलट गयी, जिसके कारण नौ लोग घायल हो गये, इस वजह से 3-4 लाख ख़र्च हो गया था, और क़र्ज़ चढ़ गया था। पढ़ने की इच्छा थी फिर भी मुझे मजबूरी में आना पड़ा। अगली बार जब गाँव गया, तो मेरे दोस्त मुझे दुबारा बाहर जाकर कमाने से रोक रहे थे, मेरी भी वही इच्छा थी, लेकिन मुझे मजबूरी में आना पड़ा। जब मैं पहली बार गाँव से बाहर निकला तो दिल्ली गया। वहाँ मैंने समयपुर बदली में पौचिंग लाइन में काम किया। बहुत काम करने के बावजूद वहाँ पर काम चलने लायक़ भी पैसा नहीं मिलता था।

फैक्ट्रियों के अनुभव और मज़दूर बिगुल से मिली समझ ने मुझे सही रास्ता दिखाया है

यह साफ़ था कि हमारे हाथ में कुछ नहीं था और हम लोग मानसिक रूप से परेशान रहने लगे। इस प्रकार अपना हुनर चमकाने और इसे निखारने का भूत जल्द ही मेरे सिर से उतर गया। मेरा वेतन 8,000 रुपये था किन्तु काट-पीटकर मात्र 6,800 रुपये मुझे थमा दिये जाते थे। मानेसर जैसे शहर में इतनी कम तनख़्वाह से घर पर पैसे भेजने की तो कोई सोच भी नहीं सकता, अपना ही गुज़ारा चल जायेे तो गनीमत समझिए, बल्कि कई बार तो उल्टा घर से पैसे मँगाने भी पड़ जाते थे।

मालिक का भाई मरे या कोई और, उसे कमाने से मतलब है

मेरी फ़ैक्टरी के मालिक पर जीएसटी का ज़्यादा असर नहीं लगता है। ये तो ख़ूब 12 घण्टे हम जुतवाता है। यह बिल्कुल पैसे का भूखा है। पिछले हफ़्ते मालिक के भाई की मौत हो गयी थी। इलाक़े के सारे मालिक फ़ैक्टरी पर इकठ्ठा थे। मालिक ने फ़ैक्टरी बन्द करने को कहा और हमने राहत की साँस ली पर उसने कहा कि कहीं मत जाना फ़ैक्टरी में ही रहना। एक घण्टे के भीतर ही मालिक कुछ पीले रंग का द्रव्य लेकर आया और उसे फ़ैक्टरी के गेट पर छिड़का और हमें बोला फटाफट काम शुरू करो। मालिक का भाई मरे या कोई और, इसे कमाने से मतलब है।

मैं काम करते-करते परेशान हो गया, क्योंकि मेहनत करने के बावजूद पैसा नहीं बच पाता

मैं बिहार का रहने वाला हूँ। 2010 में मजबूरी के कारण पहली बार अपना गाँव छोड़कर दिल्ली आना पड़ा। मुझे दुनियादारी के बारे में पता नहीं था। कुछ दिन काम की तलाश में दिल्ली में जगह-जगह घूमे और अन्त में वज़ीरपुर में झुग्गी में रहने लगे। गाँव के मुक़ाबले झुग्गी में रहना बिल्कुल अलग था, झुग्गी में आठ-बाय-आठ कमरा था। पानी की मारामारी अलग से थी। यहीं मुझे स्टील प्लाण्ट में काम भी मिल गया। यहाँ तेज़ाब का काम होता था जिसमें स्टील की चपटी पत्तियों को तेज़ाब में डालकर साफ़ किया जाता है। तेज़ाब का धुआँ लगातार साँस में घुलता रहता है और काम करते हुए अन्दर से गला कटता हुआ महसूस होता है। तेज़ाब कहीं गिर जाये तो अलग समस्या होती है। पिछले हफ़्ते तेज़ाब में काम करते हुए मेरी आँख में तेज़ाब गिर गया था। आँख जाते-जाते बची है। मालिक और मुनीम की गालियाँ अलग से सुननी पड़ती हैं।

लुधियाना के एक मजदूर का पत्र

मज़दूरों को पहले ही श्रम कानूनों के तहत अधिकार नहीं मिल रहे। ऊपर से श्रम कानूनों को सरल बनाने के नाम पर कानूनी तौर पर भी श्रम अधिकार खत्म करने की कोशिश हो रही है। सबसे पहले राजस्थान की भाजपा सरकार ने श्रम अधिकारों पर बड़ा हमला किया। पहले कानून था कि 100 से अधिक श्रमिकों को रोजगार देने वाली कम्पनी को बन्द करने से पहले श्रम विभाग से मंजूरी लेनी होती थी। राजस्थान सरकार ने इसे बढ़ाकर 300 कर दिया। यह तो बस शुरुआत थी। इसके बाद कई राज्यों की सरकारों ने मज़दूरों के अधिकारों पर ऐसे हमले तेज कर दिये और केन्द्र सरकार ने मज़दूर हितों पर पूरी बमबारी की तैयारी कर ली है। पूँजीवादी लेखकों से इसके पक्ष में लेख लिखवा कर श्रम अधिकारों को कानूनी तौर पर खत्म करने का माहौल बनाया जा रहा है।

कोई फ़ैक्टरी, कारख़ाना या कोई छोटी-बड़ी कम्पनी हो, जीवन बदहाली और नर्क जैसा ही है

मेरा नाम संदीप है और मैं डोमिनोस पिज़्ज़ा रेस्टोरेण्ट में काम करता था। मैं वहाँ पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय का काम करता था। इण्टरव्यू के वक़्त हमें यह बताया गया था कि हम सब एक फै़मिली (परिवार) की तरह हैं। पर यह ऐसा परिवार है जिसमें सबसे ऊपर के सदस्य (मैनेजर) हैं और वे नीचे के सदस्यों से गाली बककर बात करते थे। इस बात पर अगर कोई सवाल उठाता या मना करता तो कहते कि परिवार में बड़ों से जुबान नहीं लड़ाते हैं। मैनेजर हमसे अपने निजी काम कराते थे। मना करने पर कहते कि सैलरी तो हम से ही लोगे। नौकरी चले जाने के डर से हम लोगों को उनकी बात माननी ही पड़ती थी।

भोरगढ़ (दिल्ली) के मज़दूरों का नारकीय जीवन और उससे सीखे कुछ सबक

भोरगढ़ में अधिकतर प्लास्टिक लाइन की कम्पनियां है। इसके अलावा बर्तन, गत्ता, रबर, केबल आदि की फैक्ट्री है। सभी कम्पनियों में औसतन मात्र 8-10 लड़के काम करते हैं अधिकतर कम्पनियों में माल ठेके पर बनता है। छोटी कम्पनियों में मज़दूर हमेशा मालिक की नजरों के सामने होता है मज़दूर एक काम खतम भी नहीं कर पाता है कि मालिक दूसरा काम बता देता है कि अब ये कर लेना।

मज़दूरों को स्वर्ग का झाँसा देकर नर्ककुंड में डाला जाता है

ये भोले-भाले मज़दूर इन सब बातों से अपने लिए स्वर्ग की कल्‍पना करने लगते हैं पर इ‍न्हें यह कहां पता होता है कि जिस स्वर्ग की तलाश में वे जा रहे हैं वह स्वर्ग नहीं नर्ककुंड है। ठेकेदार उनको वहां से लाने के लिए अपना किराया भी लगा देते हैं। पर ‍यहां आने के साथ ही उनके स्वर्ग की कल्पना टूटने लगती है और नर्ककुंड की असलियत नजर आने लगती है। यहां उन्हें रहने के लिए जो कमरा मिलता है उसमें 15 से 20 मजदूरों को रहना पडता है। फैक्ट्री में काम पर जाते ही उन्हें पता चलता है कि वे छोटे-छोटे पुर्जे 50 किलो से लकर 450 किलो तक के हैं। यहां जियाई का काम होता है। लोहे को तेजाब के टैंक में डालने पर जो बदबूदार तीखी दुर्गंध निकलती है वह दम घोंटने वाली होती है। इससे सुरक्षा का कोई सामान नहीं दिया जाता।