दिल्ली में सीवर लाइन बनाने वाले मज़दूरों के हालात
एक मज़दूर की चिट्ठी
साथियो, जहाँ एक ओर इस वर्ष तापमान लगातार 50 डिग्री के पार जा रहा है, घास से लेकर पेड़ तक सब सूख रहे हैं, गर्मी में बाहर कुछ समय तक भी खड़ा होना मुश्किल है, वहीं दूसरी ओर यह अमानवीय पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूरों का शोषण करके मुनाफ़ा कमाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है।
अभी लगभग पूरी उत्तरी-पश्चिमी दिल्ली के तमाम रिहायशी इलाक़ों में सीवर लाइन बिछाने का काम युद्ध स्तर पर चल रहा है। हर तरफ, छोटी गली से लेकर बड़ी सड़क तक, सब अनियोजित तरीक़े से खोदे जा रहे है। ऐसा इसलिए है ताकि कहने को ही सही, लेकिन दिल्ली को कम से कम “स्मार्ट सिटी” का तमगा तो दिया जा सके। परन्तु ये सब मज़दूरों की मेहनत से ही हो रहा है।
इन मज़दूरों से बात करके व थोड़ी जाँच-पड़ताल के बाद यह पता चला कि सीवर लाइन बिछाने वाली कम्पनी और कॉण्ट्रेक्टर दोनों गुजरात के हैं और सभी मज़दूरों को भी ठेके पर गुजरात से ही लाया गया है। इन्हें 1 मीटर लम्बाई और 1 मीटर गहराई का गड्ढा खोदने के 120 रुपये मिलते हैं। एक मज़दूर अधिकतम दिनभर में 5-6 मीटर ही गड्ढा खोद पाता है जिसके लिए उन्हें सुबह 6 बजे से लगातार रात 8 बजे तक खुदाई करनी पड़ती है। यानी औसतन 5 मीटर गड्ढे खोदने पर उनकी 600 रुपये की दिहाड़ी बनती है जिसके लिए उन्हें 14 घण्टे काम करना पड़ता है। इन मज़दूरों लिए छुट्टी का कोई मतलब नहीं है, कई बार पूरी रात भी ओवरटाइम लगाना पड़ता है। बरसात होने या किसी भी अन्य स्थिति में काम न होने पर इन्हें कुछ नहीं मिलता है क्योंकि इनका ठेका तो 120 रुपये प्रति मीटर की खुदाई का है। इस 45-50 डिग्री सेल्सियस की गर्मी में कम्पनी, काण्ट्रेक्टर या ठेकेदार की तरफ़ से लोगों के लिए पीने के पानी तक का इन्तज़ाम भी नहीं किया जाता है। ये मज़दूर साधारण प्याऊ या जनता के बीच से ही पीने के पानी का इन्तज़ाम करते हैं।
एक मज़दूर नीलेश ने बताया कि वे सभी लोग दाहोद (गुजरात) से हैं। यहाँ खाटू श्याम धाम दिल्ली के पीछे के जंगल में उन्होंने अपनी अस्थायी झोपड़ियाँ डाली हैं। जन सुविधा के नाम पर 3 अस्थायी शौचालय बनाये गये हैं, जिनका कोई ख़ास मतलब नहीं है। आमतौर पर वे सभी मज़दूर (महिलाएँ भी) जंगलों में ही शौच के लिए जाते हैं। नीलेश भाई से जब पूछा गया कि गुजरात के बारे में देश भर में यही प्रचार होता है कि वहाँ तो कोई ग़रीब ही नहीं है, तो उन्होंने पसीना पोंछते हुए मुस्कुराकर जवाब दिया, “सब झूठ बोलता है।”
उनके सुपरवाइज़र से जब बात की तो उसने बोला कि वहाँ प्रत्येक मज़दूर की तनख़्वाह 35-40 हज़ार रुपयों तक है, लेकिन ये लोग खाने और दारू पीने पर सारे पैसे उड़ा देते हैं। लेकिन जब काम के घण्टे, मज़दूरों को मिलने वाली मज़दूरी, तथा काम न हो पाने की सूरत में उनकी स्थिति, जैसे तमाम मसलों पर बात की गयी तो वह बगले झाँकने लगा। उसने बोला कॉण्ट्रेक्टर इन सबको 1-2 लाख रुपये प्रति परिवार के हिसाब से एडवांस देकर लाता है। वह बोला इन्हें पहले ही ख़रीद लिया जाता है। बाद में उसने ईमानदारी से सच्चाई को स्वीकार किया और कहा कि ये सही मायने में बन्धुआ मज़दूर ही हैं। उन्हें बस जीनेभर के पैसे मिलते हैं, ताकि ये सब अपनी मेहनत से सुपरवाइज़र, ठेकेदार, कॉण्ट्रेक्टर, कम्पनी, नौकरशाही और सरकार को पालते रहें और देश विकास करता रहे!
मज़दूर बिगुल, जून 2024
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन