Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

गुड़गाँव के एक मज़दूर की चिट्ठी

आज गुडगाँव में जो चमक-दमक दिखती है इसके पीछे मज़दूरों का ख़ून-पसीना लगा हुआ है। जिन अपार्टमेण्टों, शोपिंग मॉलों, बड़ी-बड़ी इमारतों से लेकर ऑटोमोबाइल सेक्टर को देखकर कहा जा सकता है कि यहाँ रहने वालों की ज़िन्दगी हर प्रकार से सुख-सम्पन्न होगी। लेकिन इस क्षेत्र के औधोगिक पट्टी तथा उन लॉजों को देखा जाये जिनमें मज़दूर रहते हैं और उनमें भी एक-एक कमरे में 3-4 मज़दूर रहने पर मजबूर हैं तो इस सारी चमक-दमक की असलियत सामने आ जाती है। मज़दूरों की एक आबादी फ़ैक्टरियों में काम करती है और दूसरी फ़ौज सड़क पर बेरोज़गार घूमती है। इससे कोई भी आसानी से मज़दूरों की हालत का अन्दाज़ा लगा सकता है। गुडगाँव-धारूहेड़ा-मानेसर-बावल से भिवाड़ी तक का  औद्योगिक क्षेत्र देश की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल पट्टी है जहाँ 60% से ज़्यादा ऑटोमोबाइल उत्पाद का उत्पादन होता है।

इस व्यवस्था को चोट दो!

यह व्यवस्था पूर्णतः लूट और अन्याय पर आधारित है। इस व्यवस्था में कोई मजदूर कितना भी हाथ पाँव मारेगा वह अपना विकास नहीं कर पायेगा; क्योंकि यह मालिकों की व्यवस्था है। मजदूर को अपने विकास के लिए अलग व्यवस्था बनाना होगा। इसे एक उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। धान की छँटाई करने वाले हालर का सिस्टम अलग होता है और गेहूँ की पिसाई करने वाली चक्की का सिस्टम अलग होता है। अगर आप चाहेंगे कि धान की छँटाई हम गेहूँ की पिसाई करने वाली चक्की में करें तो यह कतई नहीं होगा; और अगर आप चाहेंगे कि गेहूँ की पिसाई हम धान की छँटाई करने वाले हालर में करें तो यह कतई नहीं होगा। इसलिए हमसफर साथियों! हम मजदूरों को अपने विकास के लिए अलग व्यवस्था बनानी होगी और वह व्यवस्था होगी ‘मजदूर राज’। लेकिन यह अकेले सम्भव नहीं है।

हालात को बदलने के लिए आगे आना होगा

मैं लुधियाना में प्लाट नं. 97, शिवा डाईंग, फेस-4, फोकल प्वांईट, में काम करता हूँ। जिसमें लगभग 60 मजदूर काम करते हैं, कोई माल ढुलाई, कोई माल सुखाई, कोई ब्यालर तो कोई कपड़ा रंगाई में काम करता है। मैं कपड़ा रंगाई में काम करता हूँ। मेरे साथ 10 मजदूर काम करते हैं, हमारी मशीनों पर गर्मी बहुत ज्यादा होती है। मशीनों के अन्दर 135 डिग्री गर्म रंग वाला पानी भरा होता है। इन जानलेवा हालातों में हम 12-12 घंटे काम करते हैं। यहाँ पर हम लोगों को कोई भी सुरक्षा उपकरण नहीं दिये जाते, ना तो कैमिकल से बचने के लिए जूते दिये जाते हैं और ना ही हाथों में पहनने के लिए दस्ताने दिये जाते हैं। इस काम में कोई भी नया मजदूर जल्दी भर्ती नहीं होता क्योंकि यहाँ पर गर्मी सबसे ज्यादा होती है। ब्यालर पर काम करना सबसे ज्यादा कठिन है, क्योंकि यहाँ तो 12 घंटे आग के सामने खड़े होकर काम करना होता है। हम सभी मजदूरों को बेहद कम वेतन पर 12-12 घंटे काम करना पड़ता है और इस कारखाने में पक्की भर्ती नहीं होती, बहुत ही कम मजदूरों को पक्का भर्ती किया हुआ है।

मज़दूरों की कलम से दो पत्र

यहाँ रोज़ 12-13 घण्टे से कम काम नहीं होता है। जिस दिन लोडिंग-अनलोडिंग का काम रहता है उस दिन तो 16 घण्टे तक काम करना पड़ता है। हफ्ते में 2-3 बार तो लोडिंग-अनलोडिंग भी करनी ही पड़ती है। मुम्बई जैसे शहर में महँगाई को देखते हुए हमें मज़दूरी बहुत ही कम दी जाती है। अगर बिना छुट्टी लिये पूरा महीना हाड़तोड़ काम किया जाये तो भी 8-9 हज़ार रुपये से ज़्यादा नहीं कमा पाते हैं। हम चाहकर भी अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। यहाँ किसी भी फ़ैक्टरी का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है और श्रम-क़ानूनों के बारे में किसी भी मज़दूर को नहीं पता है। बहुत से मज़दूरों को फ़ैक्टरी के अन्दर ही रहना पड़ता है क्योंकि मुम्बई में सिर पर छत का इन्तज़ाम कर पाना बहुत मुश्किल है। ऐसे मज़दूरों का तो और भी ज़्यादा शोषण होता है। हमें शुक्रवार को छुट्टी मिलती है लेकिन उन्हें तो रोज़ ही काम करना पड़ता है।

हमें आज़ाद होना है तो मज़दूरों का राज लाना होगा।

ट्रेन से उतरकर मैं सुस्ताने के लिए प्लेटफ़ार्म पर बैठा ही था कि एक आदमी मुझसे पूछने लगा कि मैं कहाँ जाऊँगा और मेरे जवाब देने पर उसने बताया कि वह मुझे यहीं पास में ही काम पर लगवा देगा। उसके साथ 3 और लोग थे। मैं उस पर विश्वास कर उसके साथ चल दिया, सोचा कमाना ही तो है चाहे वज़ीरपुर या यहाँ और लगा कि जो बात गाँव में सुनी थी वह सही है कि शहर में काम ही काम है। ये आदमी मुझे एक बड़ी बिल्डिंग में पाँचवीं मंज़िल की एक फ़ैक्टरी में ले गया और बोला कि यहाँ जी लगाकर काम करो और महीने के अन्त में मालिक से पैसे ले लेना। फ़ैक्टरी में ताँबे के तार बेले जाते थे। फ़ैक्टरी के अन्दर मेरी उम्र के ही बच्चे काम कर रहे थे। सुपरवाइज़र दिन में जमकर काम करवाता था और होटल का खाना खाने को मिलता था। फ़ैक्टरी से बाहर जाना मना था। एक महीना गुज़र गया पर मालिक ने पैसा नहीं दिया। महीना पूरा होने के 10 दिन बाद मैं मालिक के दफ्तर पैसे माँगने लगा तो उसने कहा कि मुझे तो वह ख़रीद चुका है और मुझे यहाँ ऐसे ही काम करना होगा। यह बात सुनकर मैं घबरा गया। मैं फ़ैक्टरी में गुलामी करने को मजबूर था। मैंने जब और लड़कों से बात की तो पता चला कि वे सब भी बिके हुए थे और मालिक की गुलामी करने को मजबूर हैं। 5-6 महीने मैं गुलामों की तरह काम करता रहा। पर मैं किसी भी तरह आज़ाद होना चाहता था। मैं भागने के उपाय सोचने लगा। पर दिनभर सुपरवाइज़र बन्द फ़ैक्टरी में पहरा देता था। रात को ताला बन्द कर वह सोने चला जाता था। कमरे में दरवाज़े के अलावा एक रोशनदान भी था जिस पर ताँबे के तार बँधे थे।

पूँजी की गुलामी से मुक्ति के लिए बॉलीवुड फ़िल्मों की नहीं बल्कि मज़दूर संघर्षों के गौरवशाली इतिहास की जानकारी ज़रूरी है

लेकिन साथियों इस पूरी स्थिति के लिए हम भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि वो हम ही हैं जो अपनी मेहनत की कमाई से इनकी घटिया फ़िल्मों की सीडी और टिकट ख़रीदते हैं। असलियत में तो हमारे असली नायक ये नहीं बल्कि अमरीका के शिकागो में शहीद हुए वे मज़दूर नेता हैं, जिन्होंने मज़दूरों के हक़ों के लिए अपनी जान तक की कुर्बानी दे डाली, तथा जिनकी शहादत को याद करते हुए हर साल 1 मई को मई दिवस के नाम से मनाया जाता है।

हमारी ताक़त हमारी एकजुटता में ही है!

मेरी उम्र 30 साल है और 16 साल की उम्र से ही मैंने दिहाड़ी-मज़दूरी का काम शुरू कर दिया था। घर के आर्थिक हालात अच्छे न होने के कारण स्कूल के दिनों में खेत मज़दूरी जैसे कामों में घरवालों का हाथ बँटाना पड़ता था। खेती का काम तो मौसमी होता था और इसमें मेहनत ज़्यादा थी और पैसा कम, इसलिए स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूर के तौर भी मैंने काफ़ी दिन बेलदारी का काम किया। किन्तु यहाँ भी काम में अनिश्चितता बनी रहती थी। उसके बाद मैंने एक आरा मशीन पर काम पकड़ा, यहाँ मैं लगातार आठ साल तक खटता रहा। मालिक कहा-सुनी व गाली-गलौज करता था, पैसा भी बेहद कम मिलता था। अन्त में एक दिन काम के दौरान आरा मशीन में मेरा हाथ आ गया जिसके कारण मुझे अपनी एक उँगली गँवानी पड़ी। न तो मुझे कोई मुआवज़ा मिला और काम भी मुझे छोड़ना पड़ा

देश के मज़दूरों से अलग नहीं है पानीपत के मज़दूरों के हालात!

फ़ैक्टरी रिहाइश से करीब 15 किलोमीटर दूर है, आने-जाने की व्यवस्था ख़ुद ही करनी पड़ती है थोड़ा सा लेट होने पर आधे दिन की तनख़्वाह काट ली जाती है। पिछले दिनों ही अलग-अलग करके करीब सौ मज़दूरों की छुट्टी कर दी गयी थी। बच्चों से भी फ़ैक्टरी में काम करवाया जाता है। जब कभी इंस्पेक्शन होती है प्लाण्ट बन्द दिखाकर बच्चों को हटा दिया जाता है और काम फिर से चालू हो जाता है। यह हाल केवल हमारी फ़ैक्टरी का ही नहीं है बल्कि पानीपत भर के पूरे औद्योगिक इलाक़े के ऐसे ही हालात हैं। कुछ धन्धेबाज़ यूनियनें काम करती हैं लेकिन मज़दूरों की कोई व्यापक एकजुटता नहीं है। मुझे आधी से ज़्यादा उम्र काम करते हो गयी, अभी तक सिर पर अपनी छत नहीं है। किराये के मकान में किसी तरह रहना पड़ता है। मैंने देश के कई हिस्सों में देखा है कि मज़दूर कहीं भी अच्छे हालात में नहीं हैं।

काम के ज़्यादा दबाव की वजह से दिमागी संतुलन खोता म़जदूर

पिछले साल की गर्मी में काम का इतना अधिक बोझ था कि सोने का कोई ठिकाना नहीं था, न ही खाने-पीने का कोई ढंग का बंदोबस्त और कंपनी के अंदर एक दम घोंटू माहौल था। जिसके चलते मेरी तबियत बहुत बिगड़ गयी थी। इसी दबाव के चलते मेरा दिमागी संतुलन भी बिगड़ गया। मैंने ई.एस.आई. अस्पताल में दवाई करवाई। मगर ई.एस.आई. में सही इलाज नहीं हुआ जिसके चलते मुझे कोई आराम नहीं पहुँचा।

मज़दूर बिगुल पढ़कर एक क्लास पूरा हो जाता है

आज की मौजूदा परिस्थिति में बिगुल राजनीतिक रूप से सचेत करता है। बिगुल पढ़कर एक क्लास पूरा हो जाता है। मेरे गाँव के लायब्रेरी भवन का इस वर्ष निर्माण होने जा रहा है। अब अपना भवन प्रेमचंद पुस्तकालय का होगा। बिगुल का स्थायी सदस्य बन जाने का प्रयास है। मेरा गाँव कोलियरी एरिया में है। यहाँ मज़दूर आन्दोलन का दौर 1970 के दशक से देखता आ रहा हूँ। लायब्रेरी गाँवों की और आन्दोलनों की प्रतिनिधि के बतौर स्थापित होगी। आने वाली पीढ़ी के लिए एक रौशनी होगी। मैं दिखाऊँगा आपको अपना गाँव।