Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

आपस की बात – वेल्डिंग कम्पनी के मजदूरों के हालात

मैं जहाँ काम करता हूं उसमें केबल की रबर बनाने में पाउडर (मिट्टी) का इस्तेमाल होता है। मिट्टी इतनी सूखी और हल्की होती है कि हमेशा उड़ती रहती हहै। आँखों से उतना दिखाई तो नहीं देता लेकिन शाम को जब अपने शरीर की हालत देखते हैं तो पूरा शरीर और सिर मिट्टी से भरा होता है। नाक, मुंह के जरिये फेफड़ों तक जाता है। इस कारण मजदूरों को हमेशा टी.बी., कैंसर, पथरी जैसी गम्भीर बीमारियां होने का खतरा बना रहता है। जो पाउडर केबल के रबर के ऊपर लगाया जाता है उससे तो हाथ पर काला-काल हो जाता है। जलन एवं खुजली होती रहती है। इन सबसे सुरक्षा के लिए सरकार ने जो नियम बना रखे हैं वे पूरे दिखावटी हैं।

हिन्दुस्तान यूनीलीवर, हरिद्वार में मज़दूरों का शोषण

इस बेरोज़गारी के माहौल में मज़दूर काम पाने के लिए ठेकेदारों की शर्तों पर भर्ती तो हो जाता है। मगर कम्पनी में एक बार काम पकड़ लेने के बाद उनके साथ ज्यादतियाँ चालू हो जाती हैं। जैसे कम्पनी तो आठ-आठ घण्टे की तीन शिफ्टों में चलती है लेकिन ठेका मज़दूरों को अपनी आठ घण्टे की शिफ्ट खत्म करने के बाद भी जबरन काम करने के लिए मज़बूर किया जाता है। जिससे बहुत सारे मज़़दूर बीमार पड़ जाते हैं। अगर बीमारी के दौरान छुट्टियाँ ज्यादा हो गयीं तो भी काम से हाथ धोना पड़ता है। काम से निकाले जाने और दूसरी जगह जल्दी काम न मिलने के कारण मज़़दूर सोलह-सोलह घण्टे काम करने को मजबूर होते हैं। इस कम्पनी में ठेका मज़दूरों से कभी भी कोई भी काम लिया जा सकता है। उससे लोडिंग-अनलोडिंग से लेकर मशीन पर, पैकिंग में या असेम्बली लाइन पर लगाया जा सकता है। इस कंपनी में आठ प्लाण्ट हैं, जिनमें किसी भी प्लाण्ट में ठेका मज़दूरों को कभी भी भेजा जा सकता है। ज्यादातर ठेका मज़दूरों को तीन-चार दिन बाद एक काम छोड़कर दूसरे काम या प्लाण्ट में भेज दिया जाता है।

धागा बनाने वाली कम्पनी के मजदूर की आपबीती

इस काम को करने वाले मजदूरों को अधिकतर तमाम प्रकार की बीमारियाँ हो जाती हैं। दमा और टी.बी. जैसी बीमारी अधिकतर होती है क्योंकि काम ही कुछ ऐसा है। एसीड-कास्टिक और फैक्ट्री से निकलने वाले धुआँ से और नमक सार में हाथ और पैर खराब होते हैं। सोडा नमक एसिड, और तमाम कैमिकलों का पानी हाथ पैरों में लगता रहता है। ये अकेली कम्पनी नहीं है, ऐसी लाखों कम्पनियाँ हैं। इनमें करोड़ों लोगो की जिन्दगी नर्क कुण्ड में झुलस रही है।

आपस की बात – न्यायपालिका का फ़ासिस्ट चरित्र

न्यायपालिका अगर एक-आध फ़ैसला सन्तुलन बनाये रखने के लिए ‘पक्ष’ में देती है, तो तुरन्त इनका भरोसा छलांग मारने लगता है। इन्हें अबतक न्यायपालिका का फ़ासिस्ट चरित्र नहीं दिख रहा है।

सभी साथी एकजुट होकर संघर्ष करें, संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता!

साथियो, मैं हरियाणा में एक ऑटो कम्‍पनी का मज़दूर हूँ। इस कम्पनी में लगभग 700 मज़दूर साथी कार्य करते हैं। हमारे सारे मज़दूर साथियों के साथ इस कम्पनी की मैनेजमेंट ने जो जुल्म किये उसके बारे में मैं आज सारे मज़दूर भाइयों से कुछ बात बोलना चाहता हूँ।

नहीं सहेंगे इस तानाशाही को अब हम मज़दूर साथियो

मैं उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जि़ले के एक छोटे से गाँव का रहने वाला हूँ। मैं अभी मुम्बई में रहता हूँ, इससे पहले मैंने दिल्ली में दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर थोड़े समय के लिए काम किया था। अभी मैं मुम्बई में एक चश्मे की दुकान पर काम करता हूँ। यहाँ पर मैं लगभग डेढ़ साल से काम कर रहा हूँ। दुकान पर काम करने का समय सुबह 10 बजे से रात के 10 बजे तक है ,यानी 12 घण्टे का है। जबकि इसके लिए मेरी पगार सिर्फ़ 7000 रुपये ही है।

अपनी जिन्दगी बदलने के लिए खुद जागना होगा और दूसरों को जगाना होगा

मैं उत्तर प्रदेश प्रदेश के बस्ती जिले का रहने वाला हूं। दिल्ली में रहकर कई साल से मज़दूरी कर रहा हूं। मालिकों के शोषण और बुरे बरताव से तंग हूं। कहीं भाग जाने के बारे में सोचता रहता था। फिर एक दिन मुझे मज़दूर बिगुल अखबार मिला। इसने मुझे नया रास्ता दिखाया।

आपस की बात : हमें एकजुटता बनानी होगी

मैं पिछले वर्ष से जब से हमारी हड़ताल हुई थी तब से मज़दूर बिगुल अख़बार पढ़ रही हूँ। इसी अख़बार ने हमारी हड़ताल की रिपोर्टों को भी काफ़ी जगह दी थी। इसके लिए मैं अपनी आँगनवाड़ी की सभी बहनों और साथियों की तरफ़ से आपका धन्यवाद करती हूँ। हम सभी यह जानते हैं कि मज़दूर वर्ग बहुत सारी मुश्किलों का सामना करता है। दिन पर दिन हमारी दिक़्क़तें बढ़ती ही जाती हैं। आँगनवाड़ी में काम करते हुए हमें भी बहुत तरह की परेशानियों को झेलना पड़ता है। जैसे खाने की आपूर्ति करने वाली कम्पनियों की वजह से खाने में कीड़े तो छोड़िए छिपकली तक निकल जाती है लेकिन जब इस तरह के खाने की वजह से बच्चों की तबीयत खराब होती है तो उसका दण्ड हमें भुगतना पड़ता है।

“स्वच्छ भारत अभियान” की कहानी झाड़ू की जुबानी

झाड़ू सोचती है कि ये धोखे का खेल है जिसकी शिकार केवल वह ख़ुद नहीं है, बल्कि पूरी जनता है जिसके सामने ये नौटंकी परोसी जाती है, हर वो सफ़ाईकर्मी भी है जिसकी तकलीफ़ें इस महानौटंकी के शोर के पीछे दब जाती हैं। झाड़ू ने अपने पूर्वजों से सुन रखा है कि स्वच्छता दिखावा मात्र नहीं होना चाहिए, स्वच्छता हमारा स्वभाव होना चाहिए, क्योंकि दिखावा वो लोग करते हैं जिनका मन ही साफ़ नहीं है। झाड़ू उन सफ़ाईकर्मियों को देखती है, उनकी तकलीफ़ों को समझती है। वो ये भी जानती है कि पूरे समाज की सफ़ाई का दारोमदार इन्हीं के कन्धे पे है, पर उनको ना तो ये समाज बराबर का सम्मान देता है, ना आधुनिक मशीनें और ना ही समय से तनख्वाह।

मजदूरों के पत्र – न्याय, विधान, सवि‍ंधान का घिनौना नंगा नाच

ऐसा लगता है कि हम सिर्फ़ काम करने के लिए पैदा हुए हैं ‌तो हम फिर अपना जीवन कब जीयेंगे। जहाँ तक तनख़ा की बात है, तो वो तो महीने की सात से दस के बीच में मिल जाती है, लेकिन सिर्फ़ पन्द्रह तारीख़ तक जेब में पैसे होते हैं, जिससे हम अपने बच्चों के लिए कुछ ज़रूरी चीज़ें ले पाते हैं। उसके बाद तो हर एक दिन एक-एक रुपया सोच-सोचकर ख़र्च करना पड़ता है। महीना ख़त्म होने से पहले ही बचे हुए रुपये भी ख़त्म हो जाते हैं।