Category Archives: संशोधनवाद

दो दिनों की “राष्‍ट्रव्यापी” हड़ताल

वास्तव में हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर ऐसे तमाशों से कुछ हासिल नहीं होता बल्कि हमारे इस हथियार की धार ही कुन्द हो जाती है। मज़दूरों को ऐसे अनुष्ठानों की ज़रूरत नहीं है। मज़दूरों के हक़ों के लिए एकजुट और जुझारू लड़ाई की लम्बी तैयारी आज वक़्त की माँग है। इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी है कि मज़दूर दलाल यूनियनों और नकली लाल झण्डे वाले नेताओं को धता बताकर अपने आप को व्यापक आधार वाली क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों में संगठित करें। एक-एक कारख़ाने में दुअन्नी-चवन्नी के लिए लड़ने के बजाय मज़दूर वर्ग के तौर पर पहले उन क़ानूनी अधिकारों के लिए आवाज़ उठायें जिन्हें देने का वायदा सभी सरकारें करती हैं। और हर छोटे-बड़े हक़ की लड़ाई में क़दम बढ़ाते हुए यह कभी न भूलें कि ग़ुलामी की ज़िन्दगी से मुक्ति के लिए उन्हें इस पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करने की लम्बी लड़ाई में शामिल होना ही होगा।

मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी और मार्क्‍सवाद को विकृत करने का गन्दा, नंगा और बेशर्म संशोधनवादी दस्तावेज़

इन सभी प्रयासों के बावजूद अगर माकपा के इस दस्तावेज़ को कोई आम व्यक्ति भी पंक्तियों के बीच ध्यान देते हुए पढ़े तो माकपा की मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी, उसका पूँजीपति वर्ग के हाथों बिकना, उसका बेहूदे क़िस्म का संशोधनवाद और ‘भारतीय क़िस्म के समाजवाद’ के नाम पर भारतीय क़िस्म के पूँजीवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने का उसका शर्मनाक इरादा निपट नंगा हो जाता है! इस दस्तावेज़ में माकपा के घाघ संशोधनवादी सड़क पर निपट नंगे भाग चले हैं। मज़दूर वर्ग के इन ग़द्दारों की असलियत को हमें हर जगह बेनक़ाब करना होगा! ये हमारे सबसे ख़तरनाक दुश्मन हैं। इन्हें नेस्तनाबूत किये बग़ैर देश में मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन आगे नहीं बढ़ पायेगा!

28 फ़रवरी की हड़ताल: एक और ”देशव्यापी” तमाशा

सवाल उठता है कि लाखों-लाख सदस्य होने का दावा करने वाली ये बड़ी-बड़ी यूनियनें करोड़ों मज़दूरों की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी सवालों पर भी कोई जुझारू आन्दोलन क्यों नहीं कर पातीं? अगर इनके नेताओं से पूछा जाये तो ये बड़ी बेशर्मी से इसका दोष भी मज़दूरों पर ही मढ़ देते हैं। दरअसल, ट्रेड यूनियनों के इन मौक़ापरस्त, दलाल, धन्धेबाज़ नेताओं का चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को अब ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। एक जुझारू, ताक़तवर संघर्ष के लिए व्यापक मज़दूर आबादी को संगठित करने के लिए ज़रूरी है कि उनके बीच इन नक़ली मज़दूर नेताओं का, लाल झण्डे के इन सौदागरों का पूरी तरह पर्दाफ़ाश किया जाये। मगर ख़ुद को ‘इंक़लाबी’ कहने वाले कुछ संगठन ऐसा करने के बजाय हड़ताल वाले दिन भी कहीं-कहीं इन दलालों के पीछे-पीछे घूमते नज़र आये।

चीन : माओ की भविष्यवाणी सही साबित हुई

सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के तहत जब पूँजीवादी पथगामियों के ख़िलाफ जनान्दोलन जारी था उस समय माओ-त्से-तुङ ने कहा था कि अगर चीन की राज्यसत्ता पर पूँजीवादी पथगामी काबिज़ हो भी जाते हैं तो चीनी जनता उन्हें एक दिन भी चैन की नींद नहीं सोने देगी। कामरेड माओ की यह भविष्यवाणी पूरी तरह सच साबित हुई। चीनी मेहनतकश जनता ने पूँजीवादी पथगामियों के राज्यसत्ता हथियाने के बाद पूँजीवादी सुधारों का जवाब ज़बर्दस्त आन्दोलनों से दिया है।

चीन के लुटेरे शासकों के काले कारनामे महान चीनी क्रान्ति की आभा को मन्द नहीं कर सकते

माओ ने कहा था कि चीन में पूँजीवादी राते के राही अगर सत्ता पर कब्ज़ा करने में कामयाब भी हो गये तो वे चैन से नहीं बैठ पायेंगे। चीन में मज़दूरों और ग़रीब किसानों के लगातार तेज़ और व्यापक होते संघर्ष इस बात का संकेत दे रहे हैं कि चीन के नये लुटेरे शासकों के चैन के दिन अब लद चुके हैं। वह दिन बहुत दूर नहीं जब चीन में फिर से एक सच्ची क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी उठ खड़ी होगी जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए पूँजीवाद को उखाड़ फेंककर कम्युनिज्म की ओर एक नये लम्बे अभियान में चीनी जनता का नेतृत्व करेगी।

लेनिन – बुर्जुआ चुनावों और क़ानूनी संघर्षों के बारे में सर्वहारा क्रान्तिकारी दृष्टिकोण

जो बदमाश हैं या मूर्ख हैं, वे ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पहले पूँजीपति वर्ग के जुए के नीचे, उजरती ग़ुलामी के जुए के नीचे होनेवाले चुनावों में बहुमत प्राप्त करना है और तभी उसे सत्ता हाथ में लेनी है। यह हद दर्जे की बेवकूफी या पाखण्ड है, यह वर्ग-संघर्ष तथा क्रान्ति का स्थान पुरानी व्यवस्था के अन्तर्गत तथा पुरानी सत्ता के रहते हुए चुनावों को देना है।

मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों की जुझारू हड़ताल — क़ुछ सवाल

मारुति उद्योग, मानेसर के 2000 से अधिक मज़दूरों ने पिछले दिनों एक जुझारू लड़ाई लड़ी। उनकी माँगें बेहद न्यायपूर्ण थीं। वे माँग कर रहे थे कि अपनी अलग यूनियन बनाने के उनके क़ानूनी अधिकार को मान्यता दी जाये। मारुति के मैनेजमेण्ट द्वारा मान्यता प्राप्त मारुति उद्योग कामगार यूनियन पूरी तरह मैनेजमेण्ट की गिरफ़्रत में है और वह मानेसर स्थित कारख़ाने के मज़दूरों की माँगों पर ध्यान ही नहीं देती है। भारत सरकार और हरियाणा सरकार के श्रम क़ानूनों के तहत मज़दूरों को अपनी यूनियन बनाने का पूरा हक़ है और जब कारख़ाने के सभी मज़दूर इस माँग के साथ हैं तो इसमें किसी तरह की अड़ंगेबाज़ी बिल्कुल ग़ैरक़ानूनी है। मगर मारुति के मैनेजमेण्ट ने ख़ुद ही गैरक़ानूनी क़दम उठाते हुए यूनियन को मान्यता देने से इंकार कर दिया और हड़ताल को तोड़ने के लिए हर तरह के घटिया हथकण्डे अपनाये। इसमें हरियाणा की कांग्रेस सरकार की उसे खुली मदद मिल रही थी जिसने राज्यभर में पूँजीपतियों की मदद के लिए मज़दूरों का फासिस्ट तरीक़े से दमन करने का बीड़ा उठा रखा है। गुड़गाँव में 2006 में होण्डा के मज़दूरों की पुलिस द्वारा बर्बर पिटाई को कौन भूल सकता है।

‘सरूप सन्स’ के मज़दूरों को जुझारू संघर्ष से मिली आंशिक जीत

सीटू की हमेशा से ही नीति रही है कि प्रोडक्शन बढ़वाकर और अधिक से अधिक ओवरटाइम लगवाकर आमदनी बढ़वाने का ड्रामा किया जाये। यह नीति मज़दूरों के लिए बेहद ख़तरनाक है। मज़दूरों की असल लड़ाई तो आठ घण्टे के काम की मज़दूरी बढ़वाने तथा अन्य अधिकार हासिल करने की है। बिगुल मज़दूर दस्ता और कारख़ाना मज़दूर यूनियन के आह्वान का बजाज ग्रुप के मज़दूरों ने ज़ोरदार स्वागत किया। सीटू के नेताओं को मजबूरी में आपातकालीन मीटिंग करके कुशलता के मुताबिक़ वेतन लागू करवाने, पहचानपत्र बनवाने, ओवरटाइम का दोगुना भुगतान आदि माँगें उठानी पड़ीं। श्रम विभाग में तारीख़ें पड़ने लगीं। बिना मज़दूरों से पूछे और बिना मालिक से कुछ हासिल किये सीटू नेताओं ने ओवरटाइम चलवाने का समझौता कर लिया। इसके विरोध में मज़दूरों ने सीटू नेताओं द्वारा बुलायी गयी मीटिंग में सीटू और इसके नेताओं के ख़िलाफ जमकर नारे लगाये। 95 प्रतिशत मज़दूरों ने सीटू का फैसला मानने से इनकार दिया। लेकिन सीटू नेताओं ने उन अगुवा मज़दूरों की लिस्ट कम्पनी को सौंप दी जो अब ओवरटाइम बन्द रखने के लिए मज़दूरों की अगुवाई कर रहे थे। अन्य मज़दूरों को भी सीटू ने तरह-तरह से धमकाकर और मज़दूरों को ओवरटाइम दुबारा शुरू करने के लिए बाध्य किया। लेकिन इस घटनाक्रम ने बजाज सन्स कम्पनी के मज़दूरों के बीच सीटू को बुरी तरह नंगा कर दिया है। बजाज सन्स के ये सारे मज़दूर अगर दलाल और समझौतापरस्त सीटू से पूरी तरह पीछा छुड़ाकर सरूप सन्स के मज़दूरों की राह अपनाते हैं तो इसमें कोई शक नहीं कि वे बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर सकते हैं।

हरसूर्या हेल्थकेयर, गुड़गाँव के मज़दूरों का संघर्ष और हिन्द मज़दूर सभा की समझौतापरस्ती

पहले चार मज़दूर बाहर थे तो हड़ताल की गयी थी लेकिन फिर सात लोगों को बाहर रखने के मालिक के निर्णय के बाद भी समझौता कर लिया गया! यहाँ तक कि समझौते के बाद एचएमएस के नेताओं ने मज़दूरों से कहा कि आगे क्या करना है उसे वे ख़ुद देख लेंगे और अब मज़दूरों को कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। इस पूरे संघर्ष के निचोड़ के तौर पर देखा जाये तो मज़दूरों के हित में एक भी निर्णय नहीं हुआ, उनकी कोई भी माँग पूरी नहीं हुई, और एचएमएस ने मज़दूरों को मालिक का आज्ञाकारी बने रहने की शर्त पर समझौता कर लिया। वह भी तब जबकि मज़दूर जुझारू संघर्ष करने के लिए तैयार थे। आन्दोलन का नेतृत्व कर रही एचएमएस दूसरी फैक्टरियों की अपनी यूनियनों के समर्थन से मज़दूरों के साथ मिलकर संघर्ष को व्यापक बना सकती थी। लेकिन किसी न किसी चुनावी पार्टी से जुड़ी ये सारी बड़ी यूनियनें अब कोई भी जुझारू संघर्ष करने की क्षमता और नीयत दोनों ही खो चुकी हैं।

सीटू की गद्दारी से आई.ई.डी. के मजदूरों की हड़ताल नाकामयाब

दुर्घटना के शिकार इन मजदूरों को कम्पनी के मालिकान मशीनमैन से हेल्पर बना देते हैं और उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया जाता है। बीती दीपावली के दौरान इस कारख़ाने के मजदूरों ने हड़ताल की थी और कारख़ाने पर कब्जा कर लिया था। सीटू के नेतृत्व ने इस आन्दोलन को अपनी ग़द्दारी के चलते असफल बना दिया था। सीटू के नेतृत्व ने मजदूरों को मुआवजे के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने की बजाय उनके दिमाग़ में यह बात बिठा दी थी कि मालिक उँगलियाँ कटने के बाद भी काम से निकालने की बजाय हेल्पर बनाकर मजदूरों पर अहसान करता है। जब मजदूरों ने दीपावली के दौरान संघर्ष किया तो मालिकों ने छह मजदूरों के ऊपर कानूनी कार्रवाई का नाटक करते हुए उन्हें निलम्बित कर दिया। वास्तव में, इन मजदूरों पर कोई एफ.आई.आर. दर्ज नहीं की गयी थी। लेकिन सीटू के नेतृत्व ने इस बारे में मजदूरों को अंधेरे में रखा और उनको यह बताया कि फिलहाल कारख़ाने पर कब्जा छोड़ दिया जाये और हड़ताल वापस ले ली जाये, वरना उन मजदूरों पर कानूनी कार्रवाई भी हो सकती है। मजदूर हड़ताल वापस लेने को तैयार नहीं थे, लेकिन सीटू ने बन्द दरवाजे के पीछे मालिकों से समझौता करके हड़ताल को तोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि वे छह मजदूर भी काम पर वापस नहीं लिए गये और मजदूरों की वेतन बढ़ाने, बोनस देने आदि की माँगों को भी मालिकों ने नहीं माना।